योग ही रोग का नाशक है


योग का मुख्य उद्देश्य चित्त की एकाग्रता द्वारा आत्मिक मानसिक तथा बौधिक शक्तियों का विकास करना और आत्म साक्षात द्वारा परम आत्मा तक पहुंचाना है किंतु जो बुद्धि तथा आत्मा का निवास स्थान है जो परमात्मा का साक्षात मन्दिर है वह हमारा शरीर यदि बलवान और स्वस्थ नहीं है तो हम अपनी शक्तियों का विकास नहीं कर सकते हैं और ना ही अपने आत्मस्वरूप का साक्षात परम आत्मा परमेश्वर का दर्शन आर्यों की धर्म पुस्तक वेद में भक्त भगवान से प्रार्थना करते हैं।


 



“स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांस:”


 


हे प्रभु हम सुधार तथा बलवान अंगों से तेरी स्तुति करने वाले हैं अध्यात्म विद्या की मुख्य पुस्तक उपनिषद भी बिना शारीरिक बल के आत्मदर्शन असंभव ही बताती है जैसा कि उपनिषदों में कहा है -


 


नायमात्मा बलहीनेनलभ्यः।


 


अर्थात् यह आत्मा बल हीना कमजोर मनुष्य को प्राप्त नहीं होता है अतः योग जहां आत्मिक मानसिक तथा भौतिक उन्नति का उपाय बताता है, वहां शारीरिक उन्नति का भी सर्वोत्तम तथा अचूक उपाय हमारे सामने रखता है।


 


स्वस्थ तथा बलवान शरीर ही सांसारिक सुख समृद्धि का मुख्य साधन है


 


मनुष्य-जीवन का उद्देश्य अपने को सुखमय तथा शक्ति संपन्न बनाना है इस उद्देश्य की पूर्ति भी तभी हो सकती है जबकि हमारे शरीर निरोग तथा सबल हो। इस शरीर की महत्ता का विद्वज्जनों ने इन शब्दों में गुणानुवाद गाया है।


 


आयतनं सर्वं विद्यानां मूलं धर्मार्थकाममोक्षाणाम्।


प्रेयः किमन्यत् शरीरमजरामरं विहायैकम्।।


 


अर्थात् जो शरीर सम्पूर्ण विद्याओं तथा शुभ गुणों का आधार है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष -प्राप्ति का मूल कारण है, उस शरीर को मनुष्य तो सैदव अजर, अमर चाहता हैं


 


अर्थात् चिरायु अवस्था से अधिक प्रिय वस्तु संसार में मनुष्य के लिए और क्या होगी।


 


 आज प्रभु की अमूल्य देन की दयनीय दशा को देख कर बहुत दुख होता है आज सभ्य संसार इस शरीर की अनेक प्रकार की आधि-व्याधियों से आक्रांत हो रहा है सम्भवत: कोई ऐसा सौभाग्यशाली पुरुष होगा कि जिसको किसी न किसी प्रकार की आधि तथा व्याधियों ने घेर रखा हो। जठराग्नि की कमजोरी (अपचन), बद्धकोष्ठता (कब्ज), का कबाब रक्त दोष सिर दर्द जुखाम स्वपनदोष प्रमेह में ही धातुक्षीणता आदि बीमारियां तो सर्वसाधारण बनती जा रही है आज सभ्य जगत का प्रतीक पुरुष उपयुक्त किसी न किसी व्याधि से अवश्य आक्रांत है यदि कोई सौभाग्यवश शारीरिक व्याधि से मुक्त है तो उसे मानसिक व्याधि ने सता रखा है। इसलिए आज हमारे शरीरों में तथा मनों में न बल है न उत्साह, न पावित्र्य है और न प्रसन्नता।


 


जीवन की छोटी से छोटी घटनाएं तथा परिस्थितियां भी हमारे निर्बल तथा निस्तेज शरीर तथा मन को विक्षुब्ध और अशान्त बना देती है। हमारे स्वभाव का आनंद को भी नष्ट कर हमें शोक सागर में डूबा देती है संसार का कोई ही शायद सौभाग्यशाली मनुष्य होगा कि जिसको किसी ने किसी शोक या चिंता ने सता रखा हो इन सब आदि व्याधियों का मुख्य कारण हमारी शारीरिक तथा मानसिक निर्मलता और अस्वस्थता ही है और उसमें भी विशेष कर शारीरिक निर्बलता जिस मनुष्य का शरीर स्वस्थ और बलवान नहीं वह कभी भी मानसिक चिंता हो तथा शारीरिक व्याधियों से मुक्त नहीं हो सकता है।


 


उसके पास सांसारिक सुख भोग की सब सामग्री होते हुए भी ना तो वह उसे स्वेच्छा पूर्वक भोग सकता है और ना ही उसके द्वारा सुख और शांति को प्राप्त कर सकता है उसे कोई न कोई मानसिक चिंता या शारीरिक बीमारी अवश्य घेरे रहती है कमजोर शरीर वाले के मन में न तो किसी भी कार्य को करने का उत्साह होता है और ना उमंग, उसका जीवन स्वभाविक शांति तथा आनंद से शून्य सदा नीरस शुष्क बना रहता है हमारे प्राचीन आचार्यों ने सुखी जीवन के जो  लक्षण बताएं हैं आज हम में से शायद ही कोई सौभाग्यशाली होगा जिसमें यह सारे के सारे लक्षण सर्वात्मना विद्यमान हो।


 


महर्षि चरक ग्रंथ में सुखी जीवन के लक्षण बताते हुए लिखते हैं


 


जिस मनुष्य को शारीरिक व मानसिक रोग नहीं सताते जो विशेषकर यौवनावस्था में सब प्रकार के शारीरिक व मानसिक विकारों से रहित है जिसका बल वीर्य यश पौरुष और पराक्रम उसकी सामर्थ्य तथा इच्छा के अनुरूप है जिसका शरीर नाना प्रकार की कला कौशल आदि विज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ है जिसकी इन्द्रियां स्वस्थ बलवान और इंद्रियजन्य भोगो के भोगने में समर्थ है जिसके शरीर में किसी प्रकार की निर्बलता नहीं उसका जीवन ही वास्तव में सुखी जीवन है अतः जिसके शरीर में उपयुक्त नहीं है वह कभी सुखी जीवन नहीं कहला सकता ऐसे नीरस  उत्साहहीन जीवन से ना तो इहलोक सुधर सकता है और न ही परलोक अत: इस लोक और परलोक को शांति तथा सुखमय बनाने का यदि कोई मुख्य साधन है तो वह है शारीरिक आरोग्यता इसलिए शरीर शास्त्र के आचार्यों ने कहा है।


 


 


धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्।।


 


अर्थात् - धर्म अर्थ काम और मोक्ष जो कि मानव जीवन रूपी कल्पवृक्ष के चार मधुर फल है उनका यदि कोई श्रेष्ठता तथा मुख्य साधन है तो वह शारीरिक आरोग्यता ही है, क्योंकि यदि हमारा शरीर स्वस्थ और बलवान् है तो हम अपने पुरुषार्थ से धन भी कमा सकते हैं, उस धन द्वारा सांसारिक सुखों का उपयोग भी कर सकते हैं और परोपकार, देश, जाति तथा धर्म की सेवा तथा आत्म चिंतन और प्रभु-भक्ति आदि शुभ कार्य भी कर सकते हैं। इसलिए महापुरुषों ने कहा है-


 


“शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम्”


 


अर्थात् - अपने जीवन को धार्मिक तथा सुखमय बनाने का सबसे प्रथम और मुख्य साधन स्वस्थ तथा बलवान शरीर ही है। इसलिए हमारे आचार्यों ने सभी स्वास्थ्य पर बहुत बल दिया है महर्षि चरक तो यहां तक लिखते हैं –


 


सर्वमन्यत् परित्यज्य शरीरमनुपालयेत्।


तदभावे हि भावानां सर्वाभावः शरीरिणाम्।।


 


अर्थात् - मनुष्य अन्य सब काम छोड़कर पहले अपने शरीर की ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अन्य सब धन, संपत्ति आदि पदार्थों तथा सुख साधनों के होने पर भी शरीर स्वास्थ्य के बिना वह सब नहीं के समान है।


 


--विकास आर्य (वैदिक वाटिका से चुनें पुष्प)


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