ये पिंजरे की नारी






       “इस्लाम में नारी” यह शब्द सुनते ही चेहरे पर चिंता की लकीर खींच जाती है और नरक के विचार आने लगते है, “पिंजरे में कैद पंछी” और “इस्लाम में नारी” लगता है ये दोनों वाक्य एक दूजे के पर्याय है


     महिला आयोग हो या मानवाधिकार आयोग या so called समाजसुधारक आमिर खान हो इन्हें कभी भी इस्लाम की कुरीतियों पर मुहं खोलना याद नहीं आता है परन्तु देखा जाए तो विश्व में यदि कोई मत सम्प्रदाय है जिस पर इन लोगों को वास्तव में मुहं खोलना चाहिए तो वो है “इस्लाम”


       खैर इस विषय पर जितना लिखते जायेंगे उतना कम लगेगा क्यूंकि इस्लाम में नारी केवल और केवल भोग विलास का साधन है


       जिस प्रकार हम सनातनी कर्म की प्रधानता को मानते है इस्लाम को मानने वाले काम-वासना को प्रधान मानते है तभी तो बच्चे का खतना करते है ताकि उसकी सेक्स क्षमता को बढाया जा सके (ये इस्लाम को मानने वालो का तर्क है) वैसे अपने इस तर्क को छुपाने के लिए कई बार नमाज के समय शरीर के पाक साफ़ होने का वास्ता देकर उचित बताते है हां यह बात अलग है की मुहम्मद के समय तो अरब निवासी जुम्मे के जुम्मे नहाते थे


       चलिए जैसे हमने इस लेख की प्रधानता नारी को दी है तो आइये इस्लाम में नारी की स्थिति और इस्लाम के विद्वानों की नारी के प्रति क्या सोच है कुरान क्या कहती है इसका विश्लेषण कर लिया जाये


     अभी आपको याद होगा हाजी अली में महिलाओं के जाने पर रोक थी पर अदालत ने इस रोक को हटा दिया है और महिलाओं के हाजी अली में प्रवेश को प्रारम्भ कर दिया है


      यह प्रभाव है हमारे सनातन धर्म का उसी के प्रभाव और सनातन धर्म में नारी के स्थान से प्रभावित होकर ही आज महिलाओं को हाजी अली में जाने अधिकार प्राप्त हुआ है वरना जैसे अरब देशों में महिलाओं की शरीयत से दयनीय स्थिति ही वैसी भारत में भी इस्लामिक महिलाओं की स्थिति बन चुकी है


      महिलाओं का मस्जिदों में जाने पर प्रतिबन्ध कुरान का लगाया है यह तर्क इस्लामिक विद्वान देते आये है


     “इस्लामिक कानून में पसंदीदा शक्ल यही है की वह (नारी) घर में रहे जैसा की आयत “अपने घरों में टिककर रहो” (कुरान ३३:३३)


     “हाँ कुछ पाबंदियों के साथ मस्जिदों में आने की इजाजत जरुर दी गई है, लेकिन इसको पसंद नहीं किया गया !”
     “उसको महरम (ऐसा रिश्तेदार जिससे विवाह हराम हो) के बिना सफ़र करने की भी इजाजत नहीं दी गई”
      इसी तरह एक हदीस में फरमाया है की


“औरतों के लिए वह नमाज श्रेष्ठ है जो घर के एकांत हालत में पढ़ी जाए”
“नबी ने हिदायत फरमाई की छिपकर अकेले कोने में नमाज पढ़ा करो”


        जहाँ एक तरह सम्पूर्ण विश्व इस बात पर जोर दे रहा है जो सनातन धर्म की देन है की महिला और पुरुष को समान दर्जा दिया जाए
       वहीँ इस्लाम में नारी को आज तक केवल भोग का साधन मात्र रखा हुआ है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हाजी अली की घटना है जहाँ किसी इस्लामिक संस्था ने नहीं बल्कि अदालत को मस्जिद में जाने का अधिकार दिलाने के लिए आगे आना पड़ा


       ये एक घटना नहीं है ऐसी कई घटना है जिससे ये प्रमाणित हो जाता है की इस्लाम आज तक उस द्कियानुकिश सोच से आगे नहीं बढ़ पाया कभी कभी ये मजाक भी सही लगता है और सही भी है की सम्पूर्ण विश्व (इस्लाम को छोड़कर) आज चाँद पर पहुँच गया है पर इस्लाम अभी तक बुर्के में ही अटका हुआ है


       इस्लाम के पैरोकार इस्लाम में महिला की स्थिति सनातन धर्म से बेहतर बताने के कई झूठे दावे करते है परन्तु उनके दावों की पोल उनके इमामों के फतवे ही खोल देते है तो कोई और क्या कहे


       कुरान में एक आयत है जहाँ औरतों को पीटने तक की इजाजत दी गई है उसे प्रमाणित यह व्रतांत करता है


      “हदीस की किताब इब्ने माजा में है की एक बार हजरत उमर ने शिकायत की कि औरते बहुत सरकश हो गई है, उनको काबू में करने के लिए मारने की इजाजत होनी चाहिए और आपने इजाजत दे दी ! और लोग ना जाने कब से भरे बैठे थे, जिस दिन इजाजत मिली, उसी दिन सतर औरते अपने घरों में पिटी गई”


      यहाँ तर्क देने को कुछ बचता नहीं है इस्लामिक विद्वानों के पास क्यूंकि यह तो कुरान ही सिखाती है और मोहम्मद साहब ने इसे और पुख्ता कर दिया


      अब यदि किसी को विचार करना है तो इस्लाम को मान रही महिलाओं, औरतों, बहु, बेटियों को करना है की वे कब तक इस जहन्नुम में रहेगी और कब अपनी आवाज को इन अत्याचारों के विरुद्ध बुलंद करेगी या क़यामत तक का इन्तजार करते रहेगी


      और सतर्क होना है तो गैर इस्लामिक महिलाओं को की इस मत से जुड़े लड़कों के जाल में फसकर अपने परिजनों को जीते जी चिता में मत जलाना


       


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