वीर कुँवर सिंह

वीर कुँवर सिंह



 


       23 अप्रैल का दिन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महान सिपाहियों में से एक बाबू वीर कुँवर सिंह का जन्मदिवस है जिन्होंने 80 वर्ष की आयु में भी ईस्ट इंडिया कंपनी से जबरदस्त लोहा लिया और बहुत से युद्धों में विजय हासिल कर अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिये| वीर कुंवर सिंह का जन्म 23 अप्रैल 1777 को बिहार के शाहाबाद (अब भोजपुर) जिले के जगदीशपुर में महाराज विक्रमादित्य और राजा भोज के वंशज माने जाने वाले उज्जैनी क्षत्रिय (परमार) परिवार में पिता राजा साहबजादा सिंह और माँ पंचरत्न देवी के पुत्र के रूप में हुआ था| साहबजादा सिंह को चार पुत्र थे- कुँवर सिंह, दयाल सिंह, राजपति सिंह और अमर सिंह जिनमें कुँवर सिंह सबसे बडे थे। बचपन और युवावस्था घोड़े की सवारी, निशानेबाजी और शिकारी जीवन में बीतने के कारण किसी प्रकार फारसी में गुलिस्ताँ तक की ही शिक्षा प्राप्त कर सके। जैसे-जैसे वे बडे होते गये, बेहतर योद्धा के रूप में चर्चित होने लगे। इस बीच उनके पिता मुकदमे में फँसे और उनकी आर्थिक स्थिति जर्जर हो गयी। 1804 में बाबू साहबजादा सिंह मुकदमा जीतकर जगदीशपुर के स्वामी बने।


       कहा जाता है कि बाबू कुँवर सिंह चापलूसों से दूर रहते थे, इसीलिए उनकी पिता से नहीं पटती थी। उनके पिता के दरबार में कई चापलूस थे, जिन्हें हटाने के लिए कुँवर सिंह ने पिता को सलाह दी थी पर जब चापलूसों को नहीं हटाया गया, तो वे अलग रहने लगे और जितौरा में अपना आवास बनाया। अपने पिता बाबू साहबजादा सिंह की मृत्यु के बाद वे 1237 फसली (1830 ईसवी) में जगदीशपुर की गद्दी पर बैठे। उनकी जमींदारी का विस्तार बिहार प्रदेश के आरा जिले के जगदीशपुर, पीरो परगना, नोनार, आरा, बारहगाँवा आदि अनेक मौजों और परगनों तक था, जिसकी वार्षिक आय लगभग साढ़े 9 लाख रुपए थी। बाबू कुँवर सिंह गद्दी पर बैठते ही जगदीशपुर के विकास में लग गये। उन्होंने अपने जमींदारी काल में काफी जनसेवा की। जितौरा में शिकारगाह, जगदीशपुर में शिवमंदिर और तालाब, आरा में धर्मन बीबी की मसजिद, अनेक महल, धर्मशालाएँ, बाग बगीचे तथा जंगलों को कटवाकर गरीबों के लिए बस्तियों का निर्माण आदि अनेक कीर्तिकार्य किए।


       इसी बीच अँगरेज शासकों द्वारा कतिपय युद्धों में लड़ने के लिए देशी सिपाहियों को धर्मविरुद्ध समुद्रमार्ग होकर बाहर जाने की आज्ञा, नई बंदूकों के टोटे पर गौ और सूअर की चर्बी चढ़ाए जाने की अफवाह तथा देशी रियासतों, राजे रजवाड़ों एवं देश की तत्कालीन विक्षोभजनक परिस्थिति के कारण बंगाल के देशी सिपाहियों के दल से 1857 ई. में जो विप्लव शुरू हुआ, वह कुछ ही महीनों के भीतर दिल्ली, लखनऊ , कानपुर, झाँसी, ग्वालियर, प्रयाग, पटना आदि स्थानों में फैल गया। बिहार में तो स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियाँ वर्ष 1855 से ही प्रारम्भ हो गई थी। उस समय वहाबी मुसलमानों की गतिविधियों का केन्द्र बिहार ही था। नाना साहब पेशवा का संदेश मिलते ही पूरे बिहार में गुप्त बैठकों का दौर शुरू हो गया। पटना में किताबें बेचने वाले पीर अली क्रांतिकारी संगठन के मुखिया थे। सन् 57 की 10 मई को मेरठ के भारतीय सैनिकों की स्वतंत्रता का उद्घोष बिहार में भी सुनाई दिया। पटना का कमिश्नर टेलर बड़ा धूर्त था। मेरठ की क्रांति का समाचार मिलते ही उसने पटना में जासूसों का जाल बिछा दिया। दैवयोग से एक क्रांतिकारी वारिस अली अंग्रेजों की गिरफ्त मे आ गये। उनके घर से कुछ और लोगों के नाम-पते मिल गये। परिणाम स्वरूप अधिकांश स्वतंत्रता सैनानी पकड़ लिये गये और संगठन कमजोर पड़ गया।


       फिर भी पीर अली ने सबकी सलाह से 3 जुलाई को क्रांति का बिगुल बजाने का निर्णय ले लिया। 3 जुलाई को दो सौ क्रान्तिकारी शस्त्र सज्जित हो गुलामी का जुआ उतारने के लिये पटना में निकल पड़े, लेकिन अंग्रेजों ने सिख सैनिको की सहायता से उन्हें परास्त कर दिया। पीर अली सहित कई क्रांतिकारी पकड़ गये, और तुरत-फुरत सभी को फाँसी पर लटका दिया गया। पीर अली को मृत्यदण्ड दिए जाने का समाचार दानापुर की सैनिक छावनी में पहुँचा। छावनी के भारतीय सैनिक तो तैयार ही बैठे थे। 25 जुलाई को तीन पलटनों ने स्वराज्य की घोषणा करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ शस्त्र उठा लिये। छावनी के अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर क्रातिकारी भारतीय सैनिक जगदीशपुर की ओर चल पड़े। सैनिक जानते थे कि अंग्रेजों से लड़ने के लिये कोई योग्य नेता होना जरूरी है और जगदीशपुर के 80 साल के नवयुवक यौद्धा कुँवर सिंह ही सक्षम नेतृत्व दे सकते हैं। दानापुर के सैनिकों के पहुँचते ही वीर कुँवर सिंह ने 25 जुलाई को उनकी कमान सम्हाल ली|


      इसके 2 दिनों के बाद 27 जुलाई 1857 को कुँवरसिंह की सेना ने आरा शहर पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की और वहां के खजाने पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने पीठ दिखाने में ही अपनी कुशल समझी। अब स्वातंत्र्य सैनिक पास की गढ़ी की ओर बढ़े तथा उसको घेर लिया। अंग्रेजों ने कप्तान डनबार की अगुवाई में एक सेना गढ़ी की घेराबन्दी तोड़ने को भेजी। यह सेना सोन नदी पार कर आरा के नजदीक आ गई। रात्रि का समय था किन्तु चाँद की रोशनी हो रही थी। डनबार अपने जवानों के साथ आरा के वन-प्रदेश में घुस गया। वीर कुँवर सिंह ने अब अपनी वृक-युद्ध कला का परिचय दिया। वृक-युद्ध कला छापामार युद्ध का ही दूसरा नाम है। इसका अर्थ है- शत्रु को देखते ही पीछे हट कर लुप्त हो जाओ और अवसर मिलते ही असावधान शत्रु पर हमला कर दो। कुँवर सिंह और तात्या टोपे दोनों ही इस रणनीति के निष्णात थे। आरा पर कब्जे के बाद बाबू कुँवर सिंह स्वतंत्रता-संग्राम के करीब पाँच हजार क्रांतिकारी सिपाहियों के शौर्यमान नेता और भोजपुरी-भाषी जनता के चहेते बन गये। जनता ने उन्हें 'तेगवां बहादुर' कहकर बुलाना षुरू कर दिया। कुँवर सिंह का प्रभाव इतना बढ गया कि खेत-खलिहानों में कुँवर सिंह पर गाने गाये जाने लगे। बिहार में जो विद्रोह हुआ, उसका व्यापक प्रभाव पडा इसमें जनता ने खुलकर भाग लिया। पूरे शाहाबाद में विद्रोह का क्रांतिकारी तेवर अपना रूप ले चुका था। छोटे-मोटे जमींदार और सभी राजपूत कुँवर सिंह के विद्रोह के साथ थे।


       2 अगस्त को बीबीगंज और 12 अगस्त को दिलावर ग्राम में अंग्रेजों की बड़ी सेना से क्रांतिकारी पराजित हुए। 3 अगस्त को मेजर विंसेंट आयर के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने कुँवर सिंह को पराजित कर दिया और जगदीशपुर को तहस नहस कर दिया| आरा और जगदीशपुर पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। परंतु कुँवरसिंह ने हार न मानी, वे सहसराम और रोहतासदुर्ग की ओर बढ़े। सरकारी सैन्य की 40 वीं पल्टन उनकी सेना से आ मिली। रींवा पर आक्रमण करने के बाद कुँवरसिंह ने कानपुर में तात्या टोपे, नाना साहब और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से मिलकर क्रांति की योजनाएँ बनाई। कालपी की लड़ाई में उनके पौत्र बीरभंजनसिंह खेत रहे। कुँवरसिंह छह महीने तक बाँदा, सुल्तानपुर, गोंडा, लखनऊ, प्रयाग, मिरजापुर, बनारस (वाराणसी) और गाजीपुर आदि जिलों में क्रांति की लहर दौड़ाते आजमगढ़ पहुँचे और अतरौलिया नामक ग्राम पर 17 मार्च 1858 को आक्रमण पर उसे अपने अधिकार में कर लिया।


       80 वर्ष के यौद्धा कुँवर सिंह लगातार नौ महीनों से युद्ध के मैदान में थे। अब वे गंगा पार कर अपनी जन्म-भूमि जगदीशपुर जाने की तैयारी कर रहे थे। अंग्रेज जनरल डगलस भी घोड़े दौड़ाता हुआ उनका पीछा कर रहा था। यहाँ कुँवर सिंह ने युक्ति से काम लिया। उन्होंने अफ़वाह फैला दी कि वे बलिया के निकट हाथियों से अपनी सेना को गंगा पार करायेंगे। कुँवर सिंह की पैतरे-बाज़ियों से परेशान हो चुके अँग्रेज़ों ने फिर करारा धोखा खाया। अँग्रेज़ सेनापति डगलस वहाँ पहुँच कर प्रतीक्षा करने लगा और इधर बलिया से सात मील दूर शिवराजपूर में नावों पर चढ़कर कुँवर सिंह की सेना पार हो रही थी। डगलस हैरान था कि आख़िर कुँवर सिंह गंगा पार करने आ क्यों नहीं रहे। तभी उसे समाचार मिला कि कुँवर सिंह तो सात मील आगे नावों से पुण्य-सलिला गंगा को पार कर रहे हैं। वह तुरंत उधर ही दौड़ा पर जब तक डगलस शिवराजपुर पहुँचता पूरी सेना पार हो चूकी थी। अंतिम नौका पार हो रही थी जिसमें स्वयं कुँवर सिंह सवार थे। अँग्रेज़ी सेना ने उन पर गोली बरसाना प्रारंभ कर दिया। एक गोली कुँवर सिंह के बाएँ हाथ में लगी। ज़हर फैलने की आशंका को देख कुँवर सिंह ने स्वयं अपनी तलवार से कोहनी के पास से हाथ काटकर गंगा को अर्पित कर दिया।


       23 अप्रैल 1858 को कुँवरसिंह ने जनरल ली ग्रांड की सेना को पराजित कर अपनी राजधानी जगदीशपुर पर पुन: अधिकार कर लिया। लेकिन गोली का विष पूरे शरीर में फैल ही गया और 3 दिन बाद ही 26 अप्रैल को उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर दिया। गौरवशाली मृत्यु का वरण कर स्वतंत्रता संघर्ष में कुँवर सिंह अजर-अमर हो गए। जब तक जीवित रहे इस वीर बांकुड़ा ने अंग्रेजों के छक्के छुडा दिए और मरते समय तक उन्होंने जगदीशपुर को आजाद रखा| बाबु वीर कुँवर सिंह की याद और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी अमूल्य भूमिका के लिए 23 अप्रैल 1966 में भारत सरकार ने 1 रुपये के डाक टिकट जारी किये| इस महान योद्धा को कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|


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