वेदवाणी,काव्य गीत

वेदवाणी
ओ३म् अग्निर्मित्राणि जंघनद द्रविणस्युर्विपन्यया:। समिद्ध: शुक्र आहुतः।।-सामवेद- पूर्वार्चिक-४,
जो विशेष भाव से ज्ञानस्वरूप अग्नि ईश्वर की भक्ति करता है।
उसे ईश्वर ज्ञान बल धन आदि दे कर जगमग कर देता है।
वह शीघ्रकारी ईश्वर हमारे आह्वाहन को सुन हमारा मित्र बन अविद्या राग द्वेष कष्ट क्लेश आदि को नष्ट कर देता है। और दोनों प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक ऐश्वर्यों, धनों से जैसे - समृद्धि सुख बुद्धि विद्या वैराग्य धन बल ज्ञान शां ति आनंद रूपी धन से भर देता है।
अर्थात् ईश्वर भक्त को हर प्रकार का धन प्राप्त हो जाता है। फिर उसे कोई कष्ट चिंता भय क्लेश नहीं सताते।
क्योंकि ईश्वर भक्त- पुरुषार्थी योगाभ्यासी ईश्वर की आज्ञा में चलने वाला होता है।
और कभी भी वह विपत्तियों में घबराता नहीं है।


काव्य गीत🎤
आओ मित्र बनाएं उसको,
जो धनवान सुखी सबसे।
जिससे सब पाते हैं धन बल,
रहे न फिर कोई दुखी कहीं से।
आओ मित्र---
१-जो भी उसकी करते भक्ति,
विमल हो उससे पाते शक्ति।
क्योंकि सखा उनके संग हरदम,
प्रेरित करता रहता युक्ति।
भक्त की टेर सुनें प्रभु जल्दी,
दूर करें उसे कष्ट गमीं से।।
जिससे सब----
२-दुःख में  कभी न घबराए फिर,
सुख में बहुत न हर्षाये।
इंद्रियजित हो सुने इंद्र की,
आज्ञा- प्रभु की चलता जाए।
कभी नहीं भयभीत रहे वह,
प्रभु-धन्यवाद कर भरे नमीं से।।
जिससे--------
३ दूर रहे अंधकार जहाँ का,
मिले प्रकाश प्रभु के यहां का।
समिधा सम जगमग हो जाये,
ईश्वर का प्रिय भक्त कहाये।
हम भी बनें मित्र अग्नि प्रभु,
जुड़ जावें निज मूल जमीं से।।



-आचार्या विमलेश बंसल आर्या


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