“वेद-विहित विधि से ईश्वरोपासना न करने से जन्म-परजन्मों में हानियां”

“वेद-विहित विधि से ईश्वरोपासना न करने से जन्म-परजन्मों में हानियां”
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       मनुष्य को उपासना की आवश्यकता क्यों है? इसके अनेक कारण हैं। मुख्य कारण तो उपासना से हमें उपास्य ईश्वर के सद्गुणों का ज्ञान होने सहित ईश्वर से अपनी जीवन यात्रा को सुगम रीति से चलाने में मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है। ईश्वर उपासक निर्धन व दरिद्र नहीं होता। ईश्वर की उपासना से उपासक को जन्म व परजन्मों में सुख देने वाली सद्कर्मों की पूंजी से लाभ भी होता है। हमारे पास वेद, उपनिषद एवं दर्शन आदि जो ग्रन्थ हैं उससे हमें ईश्वर व संसार का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता हैं। ईश्वर के पास अथाह ज्ञान एवं ऐश्वर्य है। वह अपना ऐश्वर्य सुपात्र मनुष्यों व उपासकों को ही देता है। यदि सुपात्र मनुष्य व उपासक नहीं होंगे तो ईश्वर उन्हें ऐश्वर्य नहीं देगा। अतः ईश्वर से ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये हमें स्वाध्याय एवं उपासना के द्वारा सुपात्र बनना होगा। ऐसा करने से हम ईश्वर से ऐश्वर्य की प्राप्ति के अधिकारी होंगे। मनुष्य का यह भी कर्तव्य है कि ईश्वर का अनुकरण करते हुए यदि उसके पास आवश्यकता से अधिक धन-सम्पत्ति सहित बहुमूल्य वस्तुवें हों तो उसे उनका सुपात्रों को दान करना चाहिये। यदि हम अपने से अधिक योग्य विद्वानों सहित ईश्वर को जानने वाले और उसकी उपासना करने वाले व्यक्तियों की संगति करेंगे तो निश्चय ही हमें उनसे ईश्वर एवं उपासना विषयक ज्ञान होगा। मनुष्य को सच्चे ज्ञानी व अनुभवी लोगों की संगति करने सहित अज्ञानी, स्वार्थ, चालाक, चतुर, छल करने वाले, धोखेबाज लोगों की संगति से बचना भी चाहिये। अधिकांश लोग एसे दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों के जाल में फंस व उनके मतानुयायी बनकर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। अतः आध्यात्म व सांसारिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने सहित धन व सम्पत्ति अर्जित करते हुए अपने समीपस्थ लोगों की गुप्त रीति से जांच व पड़ताल कर लेनी चाहिये। ऐसे सत्यान्वेषी, सदाचारी तथा ईश्वरोपासक व्यक्ति का ही जीवन सफल हुआ करता है। 


       उपासना क्या है और इसे क्यों करना चाहिये? इस विषय को जानने के लिये सबसे उत्तम ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों का अध्ययन कर हमें उपासना का महत्व पता चलता है। उपासना से जन्म-जन्मान्तर में हमें लाभ होते हैं। एक सामान्य सिद्धान्त है कि जिसका वर्तमान अच्छा है उसका भविष्य भी अच्छा होता है। जिसका वर्तमान जीवन दुगुर्णों एवं दुष्कर्मों से युक्त हो, जो सत्साहित्य एवं सज्जन पुरुषों की संगति से दूर है तथा जो व्यसनों एवं अविद्यायुक्त पुस्तकों एवं मत-मतान्तरों के जाल में फंसा हुआ है, हो सकता है कि उसका वर्तमान समय आर्थिक दृष्टि से अच्छा हो, परन्तु ऐसा होने पर भी उन मनुष्यों का जीवन शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक दृष्टि से क्षीण होने सहित सद्ज्ञान एवं सत्कर्मों की दृष्टि से दूर होता है। इसका परिणाम उन मनुष्यों के वर्तमान व भविष्य दोनों ही जीवनों के लिए अहितकर होता है। अतः श्रेष्ठ ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्पुरुषों की संगति अवश्य करनी चाहिये। इससे अनेकानेक लाभ होते हैं। स्वाध्याय करने से मनुष्य को आत्मा में विद्यमान सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी परमेश्वर का सान्निध्य प्राप्त रहता है। इससे सत्य विषयों का अध्ययन करते हुए उन्हें उत्साह एवं सद्प्रेरणायें होती हैं जिससे अध्ययनकर्ता एवं जिज्ञासु मनुष्य का मार्गदर्शन होता है। वह असत्य पथ का त्याग करता है तथा सत्यपथ को ग्रहण कर उसमें प्रवृत्त होता है। यही कल्याण एवं उन्नति का मार्ग होता है। इस मार्ग पर चलकर ही अतीत के प्रायः सभी मनुष्य महान व महापुरुष बने हैं। हमें भी अपने पूर्वज महापुरुषों से प्रेरणा ग्रहण कर जीवन में उपलब्ध समय का सदुपयोग करते हुए इसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिये और वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्पुरुषों व महात्माओं की संगति करनी चाहिये। 


       उपासना अपने से ज्ञान व शक्ति में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ सत्पुरुषों की की जाती हैं। संसार में सबसे श्रेष्ठ व ज्येष्ठ परमात्मा है। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, सदा रहने वाला और हमारे जन्म-जन्मान्तरों का साथी है। वह हमें ज्ञान व शक्ति सहित हमारे कर्मानुसार हमें भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म देने वाला है। वह हमें हमारे माता-पिता व आचार्य से भी अधिक प्रेम करता है व स्नेह प्रदान करता है। हम उसे न जानकर और उसकी उपेक्षा करके अपना ही अहित करते हैं। परमात्मा को हमारी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की आवश्यकता नहीं है। वह अपने आप में पूर्ण सत्ता है। यदि यह कहें कि उसे हमारी स्तुति की आवश्यकता है तो इसका अर्थ होगा कि वह पूर्ण नहीं अपितु अपूर्ण है। ईश्वर के पूर्ण होने से उसे हमारी स्तुति व अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। हमारे पास हमारा अपना तो केवल आत्मा है जिसे हम जानते तक नहीं है। अन्य भौतिक सम्पत्ति आदि जो कुछ भी हमारे पास है वह हमारा न होकर परमात्मा का ही है। वेद इस तथ्य को हमें बताता है। परमात्मा ने इस सृष्टि को अपने परम पुरुषार्थ एवं सर्वज्ञता से बनाया है। इस सृष्टि का स्वामी वही है। परमात्मा ने सृष्टि की वस्तुयें वा पदार्थ हमें अपने जीवनयापन हेतु त्याग भाव से अल्पमात्रा में उपयोग करने के लिये दिये हैं। सृष्टि की वस्तुओं पर संसार के सभी लोगों का अधिकार है। यदि हम परिग्रह की भावना रखते हुए अधिकाधिक धन संग्रह की प्रवृत्ति रखते हैं तो ऐसा करना उचित नहीं है। ऐसा करने से हम परमात्मा की अन्य सन्तानों पर कुछ न कुछ अन्याय करते हैं। बहुत से लोग धन व साधनों के अभाव में भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा व चिकित्सा की अपनी आवश्यकतायें तक पूरी नहीं कर पाते। अतः हमें इस विषय में मार्गदर्शन हेतु वेद व ऋषि दयानन्द सहित विद्वानों के ग्रन्थों से सहायता लेनी चाहिये। योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने मनुष्यों को अपरिग्रही होने का सन्देश दिया है। जो मनुष्य अपरिग्रही होता है उसी को उपासना में सफलता मिलने की सम्भावना होती है। अतः हमें अपने जीवन के प्रत्येक कार्य का निर्णय सोच समझ कर लेना चाहिये। ऐसा करने पर ही हमारा कल्याण हो सकता है। 


       मनुष्य को परमात्मा के यथार्थस्वरूप को जानकर उसकी उपासना करनी चाहिये। उपासना का अर्थ है ईश्वर के समीप उपस्थित होना या बैठना। ऐसा इसलिये करना चाहिये कि हम अनेक प्रकार से ईश्वर से ऋणी है। परमात्मा हमारा सनातन व अनादि काल से साथी, मित्र, माता-पिता, बन्धु, आचार्य, राजा एवं स्वामी है। परमात्मा से हमारे व्याप्य-व्यापक, सेवक-स्वामी, पिता-पुत्र, उपास्य-उपासक आदि अनेक सम्बन्ध हैं। यह सभी सम्बन्ध शाश्वत एवं सदा रहने वाले हैं। हमारी मृत्यु होने पर भी परमात्मा से हमारे यह सभी सम्बन्ध बने रहेंगे। इन संबंधों का कभी विच्छेद व समाप्ति नहीं होगी। ईश्वर ने हमें सुख पहुंचाने के लिये ही इस कल्पनातीत विशाल सृष्टि को बनाया है। हमारे जैसे अनन्त जीवन परमात्मा द्वारा सृष्टि बनाने व जीवों को उनके कर्मानुसार जन्म-मृत्यु प्रदान करने से लाभान्वित हो रहे हैं। वह परमात्मा ही सृष्टि का रक्षक एवं पालक है। इसके साथ परमात्मा ही हमें हमारे कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म देता व नाना माता-पिताओं व भाई-बहिन प्रदान करता है। हम प्रत्येक जन्म में अनेक माताओं को प्राप्त होते हैं, उनसे प्रेम व स्नेह सहित दुलार पाते हैं और अपनी सन्तानों को उत्पन्न कर उन्हें भी सन्तानों की तरह से प्यार व स्नेह प्रदान करने सहित उनका हर प्रकार से पोषण करते हैं। हम जो भी करते हैं वह सब परमात्मा द्वारा दी गई शक्तियों, साधनों, बुद्धि एवं ज्ञान के द्वारा करते हैं। हमें जीवन में जो भी सुख प्राप्त होते हैं वह परमात्मा द्वारा हमारे सद्कर्मों के आधार पर हमें मिलते हैं और हमारे दुःखों का कारण हमारा अज्ञान व स्वार्थों से युक्त कर्म व व्यवहार होते हैं। अतः ईश्वर के सब उपकारों के लिये हमें उसके पास बैठकर उसके यथार्थ गुणों से उसकी स्तुति और प्रार्थना करनी तो बनती ही है। ईश्वर को जानना और उसके उपकारों के लिये उसकी स्तुति करना सहित परमात्मा से प्रार्थनापूर्वक ज्ञान, शक्ति, सुख व सद्कर्मों की याचना करना हमारा कर्तव्य बनता है। इसी उद्देश्य से वैदिक धर्म में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करने का विधान है। 


       मनुष्य को ईश्वर की भक्ति व उसकी उपासना उसके यथार्थस्वरूप को जानकर वेद-निर्दिष्ट उपासना विधि से करनी चाहिये। इससे हमारा वर्तमान सुधरेगा। यदि हमारा वर्तमान सुधरता है तो हमारे दुष्ट व अशुभ कर्म छूटेंगे जिसके कारण हम वर्तमान एवं भविष्य में पाप करने से बच जायेंगे। हम श्रेष्ठ उपासना, अग्निहोत्र यज्ञादि कर्मों के साथ देश व समाज हित के जो काम करेंगे उससे हमारे पुण्य कर्मों की पूंजी में वृद्धि होगी जिससे हमारा अगला जन्म व उसके आधार पर भविष्य के सभी जन्मों में हमारी उन्नति होगी। इस प्रकार ईश्वर की उपासना करने से हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान होने के साथ उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार होकर जन्म व मरण के बन्धनों से अवकाश व मुक्ति प्राप्त हो सकती है। ईश्वर का साक्षात्कार ही मनुष्य जीवन का परम पुरुषार्थ है। इसीलिये परमात्मा हमें मनुष्य जन्म देता है। इस अभीष्ट के पूरा होने पर मनुष्य के लिये कुछ कर्तव्य शेष नहीं रहता। उसे मृत्यु पर्यन्त पाप कर्मों से बचे रहकर श्रेष्ठ परहित एवं उपासना आदि कर्मों को ही करना होता है। इस प्रकार आत्मा की उन्नति होकर मनुष्य जीवन का उद्देश्य प्राप्त होता है। अतः मनुष्य का उपासना करना न केवल कर्तव्य ही है अपितु सब उन्नतियों की उन्नति और सबसे बड़ा सुख वा आनन्द प्राप्ति का साधन है। यह सुख मनुष्य व उसकी आत्मा को ईश्वर की उपासना से प्राप्त होता है। यही कारण था कि प्राचीन काल से हमारे हमारे सभी ऋषि, मुनि, योगी, यति, संन्यासी, वानप्रस्थी, तपस्वी आदि लोग ईश्वर की उपासना को ही अपना सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य मानते थे। इससे देश व विश्व में शान्ति रहती थी। यदि कभी अव्यवस्था होती भी थी तो राम व कृष्ण के समान युगपुरुष धार्मिक व सात्विक शक्तियों का पोषण कर पापों का निवारण कराते थे। ईश्वर की उपासना मनुष्य के लिये हर दृष्टि से लाभ प्रद है। सबको इसको करना चाहिये। यह भी बता दें की जड़ मूर्तिपूजा तथा अविद्यायुक्त विधियों से की जाने वाली क्रियायें ईश्वर की उपासना नहीं है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। 


-मनमोहन कुमार आर्य


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