वासुदेव बलवंत फड़के

वासुदेव बलवंत फड़के



 


       स्वतंत्र भारत के इस मन्दिर की नींव में पड़े हुए असंख्य पत्थरों को कौन भुला सकता है, जो स्वयं स्वाहा हो गए किन्तु भारत के इस भव्य और स्वाभिमानी मंदिर की आधारशिला बन गए। ऐसे ही एक गुमनाम पत्थर के रूप में थे, भारत में स्वतंत्रता संग्राम में सशस्त्र क्रांति के जनक माने जाने वाले महान क्रन्तिकारी अमर शहीद वासुदेव बलवंत फड़के, जिन्हें आदि क्रांतिकारी कहा जाता है, जिन्होंने 1857 की प्रथम संगठित महाक्रांति की विफलता के बाद आजादी के महासमर की पहली चिनगारी जलायी थी और जिनका नाम लेने मात्र से युवकों में राष्ट्रभक्ति की भावना जागृत हो जाती थी। महाराष्ट्र के रायगढ़ जनपद के पनवेल तालुका के श्रीधर गाँव में 4 नवम्बर, 1845 को जन्में वासुदेव के पिता चाहते थे कि वह एक व्यापारी की दुकान पर दस रुपए मासिक वेतन की नौकरी कर लें, पढ़ाई छोड़ दें किन्तु बासुदेव ने यह बात नहीं मानी और मुम्बई आ गए। वहाँ पर जी.आर.पी. में बीस रुपए मासिक की नौकरी करते हुए अपनी पढ़ायी भी जारी रखी। उन्हीं दिनों 1870 में महाराष्ट्र स्वदेशी आंदोलन के प्रमुख नेता न्यायमूर्ति रानाडे का मुम्बई में भाषण सुनकर बासुदेव प्रभावित हुए और देश के लिए कुछ करने का संकल्प मन में बनने लगा। 1871 में एक दिन सायंकाल वे कुछ गंभीर विचार में बैठे थे कि तभी उनकी माताजी की तीव्र अस्वस्थता का तार उनको मिला जिसमें कहा गया था कि बासु! तुम तुरन्त आ जाओ अन्यथा माँ के दर्शन भी शायद न हो सकें। इस वेदनापूर्ण तार को पढ़कर अतीत की स्मृतियाँ मानस पटल पर आ गयीं और तार लेकर अंग्रेज अधिकारी के पास अवकाश का प्रार्थना पत्र देने गए किन्तु अंग्रेज तो भारतीयों को अपमानित करने के लिए सतत् प्रयासरत रहते थे। उस अंग्रेज अधिकारी ने अवकाश नहीं दिया तो वासुदेव दूसरे दिन बिना अवकाश लिए अपने गांव-चले गए। वहाँ पहुंचकर वासुदेव पर वज्राघात हुआ जब उन्होंने देखा कि उनका मुंह देखे बिना तड़फते-तड़फते उनकी ममतामयी मां चल बसी। उन्होंने पांव छूकर रोते हुए माता से क्षमा मांगी, किन्तु अंग्रेजी शासन के दुव्यर्वहार से उनका हृदय चीत्कार कर उठा। उन्होंने प्रण कर लिया कि अब शेष जीवन अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में ही बिताना है और अपनी मातृभूमि को परतंत्रता से मुक्त कराना है। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर नवयुवकों से विचार-विमर्श किया और उन्हें संगठित करने का प्रयास किया किन्तु उन्हें नवयुवकों के व्यवहार से आशा की कोई किरण नहीं दिखायी पड़ी। कुछ युवक उनके साथ खड़े हुए भी पर फिर भी कोई शक्तिशाली संगठन खड़ा होता नहीं दिखायी दिया। ये फडके की दूरदृष्टि ही कही जाएगी कि उन्होंने उस समय ही समझ लिया था कि भारत कि आज़ादी का स्वप्न तब तक अधूरा ही रहेगा जब तक उसमें समाज के सब वर्गों से आहुतियाँ ना पड़ें और यही कारण रहा कि चित्तपावन ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने रामोशी, कोली, भील, धनगर जैसी पिछड़ी कही जाने वाली जातियों को साथ लेकर वर्षों तक अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया| उनका सोचना था कि आखिर भगवान श्रीराम ने भी तो वानरों और वनवासी समूहों को संगठित करके लंका पर विजय पायी थी। महाराणा प्रताप ने भी इन्हीं वनवासियों को ही संगठित करके अकबर को नाको चने चबवा दिए थे और शिवाजी ने भी इन्हीं वनवासियों को स्वाभिमान की प्रेरणा देकर औरंगजेब को हिला दिया था, तो मैं ये कार्य क्यों नहीं कर सकता। भारत माता की सेवा के लिए बासुदेव ने नौकरी छोड़ दी, पत्नी को भूल गए और अपनी सेना बनाने लगे। महाराष्ट्र के सात जिलों में बासुदेव की सेना का जबर्दस्त प्रभाव फैल चुका था और अंग्रेज उनके नाम से थर थर कांपने लगे थे । एक समय था की उनका नाम अंग्रेजों के लिए उसी तरह भय का पर्याय बना जैसे कभी मुगलों के लिए शिवाजी महाराज का|अंग्रेज सरकार ने उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर पचास हजार रुपए का इनाम घोषित किया। किन्तु दूसरे ही दिन मुम्बई नगर में बासुदेव के हस्ताक्षर से इश्तहार लगा दिए गए कि जो अंग्रेज अफसर मुंबई के गवर्नर रिचर्ड टेम्पल का सिर काटकर लाएगा उसे 75 हजार रुपए का इनाम दिया जाएगा। अंग्रेज अफसर इससे बौखला गए। अन्ततोगत्वा एक दिन बासुदेव अपने एक मित्र के घर से गिरफ्तार कर लिए गए और 31 अगस्त 1879 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी। बचाव में बासुदेब बलवन्त फड़के ने कहा कि भारतवासी आज मृत्यु के मुहाने पर खड़े हैं, परतंत्रता की इस लज्जापूर्ण स्थिति से मर जाना ही श्रेयस्कर है, मैं भगवान या सरकार से नहीं डरता क्योंकि मैंने कोई पाप नहीं किया है। दधीचि की तरह मैं अपने जीवन का बलिदान देकर अगर भारत की गुलामी की पीड़ा को थोड़ा भी कम कर सका तो अपने को धन्य समझूंगा। अरब की अदन जेल में आजीवन कारावास भुगतते बासुदेव ने सोचा कि क्या मेरा जन्म जेल में सड़ने के लिए हुआ है? एक रात कड़े पहरे के बीच जेल की दीवार फांदकर भाग गए। शक्तिहीनता की शारीरिक स्थिति में भी 17 मील तक बासुदेव भागते रहे पर एक अनजान देश में कमजोर हालत में कब तक और कहाँ तक भागते । पीछा कर रही पुलिस से वे बच नहीं पाए और पुन: जेल भेज दिए गए। इस बार जेल के अधिकारी ने कठोर यातानाएं दीं। परिणाम स्वरूप 17 फरवरी, 1883 ई. को अदन की जेल में वीर बासुदेव बलवन्त फड़के ने अपना शरीर छोड़ दिया और भारत माँ का ये वीर पुत्र माँ को स्वतंत्र करने का स्वप्न आँखों में लिए ही इस संसार को छोड़ गया। कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।


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