श्यामजी कृष्ण वर्मा

श्यामजी कृष्ण वर्मा



 


       संसार का इतिहास साक्षी है कि क्रान्ति की ज्वाला पहले किसी भी समाज के सर्वोत्तम मस्तिष्कों में जन्म लेती है और फिर धीरे धीरे पूरे समाज को प्रभावित करती है। भारतीय सन्दर्भ में इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं, प्रखर राष्ट्रभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा, जिन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में क्रान्ति की पाठशाला के नाम से जाना जाता है और जिनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित रहा पर दुर्भाग्य इस देश ने उन्हें वह मान सम्मान नहीं दिया, जिसके वे अधिकारी थे। 4 अक्टूबर 1857 को गुजरात की कच्छ रियासत के मांडवी में कृष्ण भानुशाली एवं गोमतीबाई के यहाँ जन्में श्याम जी की प्रारंभिक शिक्षा उनके गाँव मांडवी में और उच्च शिक्षा भुज में हुयी। 1875 में उनका विवाह मुंबई के एक बड़े व्यापारी सेठ छबीलदास लालूभाई की पुत्री भानुमती से संपन्न हुआ। जब और अधिक उच्च शिक्षा के लिए वे मुंबई गए तो वहां महर्षि दयानंद सरस्वती के संपर्क में आये और उनसे अत्यंत प्रभावित हुए। स्वामी जी के अपने ऊपर पड़े प्रभाव के चलते उन्होंने वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया और शीघ्र ही संस्कृत और वेद-वेदांगों में पारंगत हो गए| वे महर्षि द्वारा मुंबई में स्थापित भारत के प्रथम आर्य समाज के प्रधान बनाये गए। वैदिक ज्ञान पर उनका इतना अधिकार हो गया कि वो वैदिक धर्म और दर्शन के ऊपर सम्पूर्ण भारत में प्रवचन देने लेगे जिसने उन्हें एक जाना माना नाम बना दिया | वे पहले गैर-ब्राह्मण थे जो अपनी विद्वता के कारण काशी के विद्वान् पंडितों द्वारा पंडित की उपाधि से सम्मानित किये गए|


       उनकी विद्वता से प्रभावित होकर आक्सफोर्ड में संस्कृत के प्रोफ़ेसर मोनिअर विलियम्स ने उन्हें अपने सहायक के रूप में कार्य करने के लिए आमंत्रित किया| वे 25 अप्रैल 1879 को इंग्लैंड पहुंचे और संस्कृत के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के तौर पर अपनी सेवाएँ दीं| बाद में उन्होंने टेम्पल इन में प्रवेश लिया और भारत के पहले बार-एट-ला बने। 1885 में वे भारत लौट आये और मुंबई उच्च न्यायालय में वकालत प्रारंभ की| कालांतर में उन्होंने कई कार्य किये और रतलाम, अजमेर और जूनागढ़ जैसी कई रियासतों के दीवान रहे| 1897 के आस पास, एक ब्रिटिश एजेंट के साथ उनके कटु अनुभव ने ब्रिटिश राज्य के प्रति उनके मन में नफरत की ज्वाला को और भड़का दिया और उसके बाद उनका पूरा जीवन अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ते ही बीता| वो लोकमान्य तिलक की गरम नीति से अत्यंत प्रभावित थे और इस कारण उनके साथ अत्यंत मधुर सम्बन्ध बनाकर उन्होंने खुद को राष्ट्रीय आन्दोलन में जोड़ दिया| 1897 में पुणे में प्लेग के दौरान भारतीयों पर किये गए बर्बर अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने पर जब तिलक को जेल भेज दिया गया तो श्याम जी को लगा कि यहाँ रह कर वो उतने स्वतंत्र भाव से कार्य नहीं कर सकते जितना बाहर रह कर| अपने शानदार कैरिअर को लात मारकर उन्होंने देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने का मार्ग चुना और उस पर चल पड़े|


       1899 में वे एक बार फिर से लन्दन पहुंचे और अपने ज्ञान, प्रतिभा, कौशल, संघर्ष शक्ति और साधनों के कारण देखते ही देखते ब्रिटेन में भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे युवाओं के एकछत्र सेनापति बन गए। उन्होंने लन्दन से एक मासिक पत्रिका 'इंडियन सोश्योलाजिस्ट' निकाली जो क्रान्ति के विचारों का वाहक बन गयी। 1905 में उन्होंने भारत पर ब्रिटिश सरकार की दमन नीतियों के विरुद्ध 'द इंडियन होमरूल सोसायटी' नामक संस्था की स्थापना की | वे जितना कमाते थे, उतना ही देश पर लुटाते थे | प्रसिद्द दार्शनिक हर्बर्ट स्पेंसर के प्रसिद्द कथन कि आक्रमण के विरुद्ध संघर्ष ना केवल न्यायोचित है बल्कि आवश्यक भी, को अपना मन्त्र मानने वाले श्याम जी ने उनकी समाधि पर श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए एक ऐसे केंद्र की स्थापना का संकल्प किया जो ब्रिटेन में भारतीय क्रांतिकारियों का गढ़ बने और जहाँ से ऐसे सेनानी निकले जो स्वयं को देश के लिए समर्पित कर दें। अपने इसी संकल्प के फलस्वरूप 1905 में ही पंडित श्यामजी ने लंदन में 'इंडिया हाउस' नामक छात्रवास की स्थापना की, जिसके उदघाटन के अवसर पर लाला लाजपत राय, दादाभाई नौरोजी और मैडम भीका जी कामा जैसे लोग उपस्थित थे। यह भवन शीघ्र ही भारतीय क्रांतिकारियों और नेताओं का गढ़ बन गया| 50 कमरों के इस छात्रवास में भारत के अनेक क्रांतिकारी पले और बढ़े, जिनमें विनायक दामोदर सावरकर, गणेश दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, वी . वी . एस . अय्यर, आसफ अली, सिकन्दर हयात खान और ब्रिटिश भूमि पर शहीद होने वाले पहले भारतीय मदनलाल धींगरा आज भी हमारे हृदयों में बसे हुए हैं| कुछ क्रांतिकारी वहॉं रहते थे और कुछ नियमित आया जाया करते थे |


     अपने पैसों से श्यामजी ने क्रांतिकारियों को जीवनयापन, शास्त्र और शस्त्र् आदि की खरीद में सक्रिय सहायता दी | उन्होंने महाराणा प्रताप, शिवाजी, महारानी लक्ष्मीबाई और महर्षि दयानंद के नाम से विदेशों में अध्ययन के इच्छुक भारतीय छात्रों के लिए अनेकों छात्रवृत्तियां स्थापित कीं पर इसे पाने की शर्त यही थी कि इन छात्रवृत्तियों को लेनेवाले छात्र् लंदन से लौटकर अंग्रेज सरकार की चाकरी नहीं करेंगे| इनके पीछे उद्देश्य ये था कि अधिक से अधिक भारतीय छात्र विदेशों में आकर देश की आज़ादी की लड़ाई को आगे बढायें। ये छात्रवृत्तियां अनेक प्रांतों के नवयुवकों को मिलीं, उनमें मुसलमान भी थे | श्यामजी की छात्रवृत्तियां का लाभ वीर सावरकर, भाई परमानंद, लाला हरदयाल, बिपिनचंद्र पाल, मदनलाल ढींगरा जैसे क्रान्तिवीरों ने उठाया और अंग्रेजों को उनके घर में घुसकर चुनौती दी | बाल गंगाधर तिलक जैसे लोग श्यामजी को पत्र भेजकर छात्रों के नाम प्रस्तावित करते थे| अपने पत्रकों के जरिये श्याम जी ने ब्रिटेन में जहाँ एक तरफ भारतीयों के मन में देश की आज़ादी की लौ जलाई, वहीँ दूसरी तरफ अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न कर दिया। उनके द्वारा लिखे गए ये पत्रक इतिहास की अमूल्य निधि हैं जो बताते हैं कि देश की स्वतंत्रता के लिए उनके मन में कितनी पीड़ा थी।


       भारत के आज़ादी के लिए अपने अपने तरीकों से कार्य कर रहे विभिन्न लोगों से श्याम जी के सम्बन्ध मधुर थे पर कांग्रेस को लेकर उनके मन में अप्रसन्नता का भाव था। 1899 में दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए जब गाँधी जी ने अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे बोअर्स के विरोध में अंग्रेजों का साथ दिया तो श्याम जी को अत्यंत क्लेश हुआ। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि एक गुजराती और एक भारतीय के रूप में मैं शर्मिंदा हूँ कि अपने सम्मान और आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे बोअर्स के विरुद्ध मोहनदास करमचंद गांधी ने साम्राज्यवादी अंग्रेजों का साथ दिया है। गांधी जी से उनके सम्बन्ध बाद में और भी कटु हो गए थे जब गाँधी जी भारत लौट कर आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े सेनानी के तौर पर जाने जा रहे थे और मदनलाल धींगरा द्वारा कर्जन वायली की हत्या का समर्थन करने पर गाँधी जी ने श्याम जी से सम्बन्ध विच्छेद कर लिए थे ।


       श्याम जी की गतिविधियाँ को लेकर ब्रिटिश सरकार के मन में संदेह गहराता जा रहा था और वो उन पर हर घडी नजर रखने लगी थी| ऐसे में इंडिया हाउस का काम वीर सावरकर के हाथों में छोड़ कर श्याम जी ने अपना मुख्यालय पेरिस बना लिया और ब्रिटिश सरकार की आँखों में धुल झोंक कर 1911 में फ़्रांस चले गए और वहीँ से मातृभूमि की स्वतंत्र के लिए अनवरत प्रयास करते रहे| उनकी गतिविधियों से घबरा कर ब्रिटिश सरकार ने फ़्रांस पर उन्हें गिरफ्तार करने और प्रत्यर्पित करने का दवाब डाला पर श्याम जी पहले ही परिस्थिति को समझ 1914 में जेनेवा चले गए और वहीँ से गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की सहायता करते रहे|


       अनवरत प्रवास और कठिन जीवन से उनके शरीर को तोड़ दिया था और परिणामतः भारत माता का यह वीर सपूत माँ के आंचल से बहुत दूर जेनेवा में 30 मार्च 1930 को चिरनिद्रा में सो गया और साथ ही बुझ गया क्रांति के पथ पर ना जाने कितने ही क्रांतिवीरों का पथप्रदर्शन करने वाला दीप| वो भारत माता को पराधीनता के बेड़ियों से मुक्त देखने के लिए दुनिया में नहीं रहे और उनका अंतिम संस्कार भी उनकी मातृभूमि से बहुत दूर जेनेवा में ही हुआ। उनकी मृत्यु के समाचार को अंग्रेजी सरकार ने दबाने का प्रयास किया पर इसमें सफल ना हो सकी। उनसे विरोध के चलते कांग्रेस और गाँधी जी ने इस महान हुतात्मा को श्रद्धांजलि देना भी गवारा ना किया। पर लाहौर जेल में अमर क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों ने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस हुतात्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। लोकमान्य तिलक के पत्र मराठा ने उनकी स्मृति में लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित कर उन्हें श्रद्धापुष्प अर्पित किये। उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद ही साये की तरह उनका साथ निभाने वाली उनकी पत्नी भानुमती का भी निधन हो गया और उनका अंतिम संस्कार भी जेनेवा में ही कर दिया गया। पर आज़ादी के बाद उनकी उपेक्षा का सिलसिला अनवरत जारी रहा और कांग्रेसी सरकारों ने उनकी स्मृति को अक्षुण बनाये रखने के लिए कोई प्रयास नहीं किया और ना ही श्याम जी और उनकी पत्नी की इच्छा के अनुरूप उनके अस्थिकलश को भारत लाने का कोई प्रयास किया।


       अनेकों प्रयासों के फलस्वरूप, स्वतंत्रता प्राप्ति के पूरे 51 वर्ष बाद उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया गया। भुज में उनकी स्मृति में क्रन्तिगुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा कच्छ विश्वविद्यालय भी स्थापित किया गया है। उनकी मृत्यु के 73 वर्ष बाद एवं स्वतंत्रता के पूरे 55 वर्ष बाद 22 अगस्त 2003 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री एवं वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से श्याम जी और भानुमती जी की अस्थियाँ भारत लायी गयीं। राज्य सरकार ने इन अवशेषों को उनके जन्मस्थान मांडवी तक ले जाने के लिए वीरांजल यात्रा निकाली और मार्ग में पड़ने वाले 17 जिलों के प्रशासन को इस यात्रा को सफल बनाने और इसमें जन भागीदारी कराने के लिए निर्देशित किया गया। मांडवी में ये अस्थियाँ श्याम जी की स्मृति में बने भव्य स्मारक (इसके बारे में नीचे प्रथम कमेन्ट में लिंक दिया गया है जिससे इस स्मारक के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है) में स्थापित की गयी और वर्षों बाद ही सही, माँ का उसके योग्य बेटे से मिलन हुआ| भारत माता के इस महान सपूत श्याम जी को कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|


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