श्री 'भारतेंदु' हरिश्चंद्र
श्री 'भारतेंदु' हरिश्चंद्र
हिंदी के महान् साहित्य निर्माता श्री बाबू 'भारतेंदु' हरिश्चंद्र (जन्म ९ सितम्बर १८५०, अवसान ६ जनवरी १८८५ - दोनों वाराणसी में) १८६९ में स्वामी दयानंद के काशी के पण्डितों के साथ हुए मूर्तिपूजा विषयक ऐतिहासिक शास्त्रार्थ में दृष्टा के रूप में उपस्थित थे । हरिश्चंद्र वल्लभ के शुद्धाद्वैत में आस्था रखने वाले वैष्णव थे । उन्होंने स्वामीजी के काशी से चले जाने एवम् 'काशी शास्त्रार्थ' के प्रकाशन के बाद १८७० में चौंसठ प्रश्नों की 'दूषण मालिका' नाम की एक पुस्तिका लिखकर प्रकाशित की, जिसमें स्वामीजी के लिए अत्यंत अपमानजनक बातें लिखी थीं, और स्वामीजी को शास्त्रार्थ के लिए आहूत करने का दुस्साहस भी किया था । काशी शास्त्रार्थ के बाद स्वामीजी पांच बार काशी आये, मगर हरिश्चंद्र मूर्तिपूजा को लेकर शास्त्रार्थ के लिए कभी भी उनके सम्मुख आने का साहस नहीं कर पाये । उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित 'कविवचन सुधा' हिंदी मासिक में स्वामीजी के विचारों के विरोध में कई लेख प्रकाशित किए । स्वामीजी ने काशी की तीसरी यात्रा के दौरान शांकर अद्वैत के खंडन में ‘अद्वैत मत खंडन’ पुस्तक (जो अब अनुपलब्ध है) लिखी थी । हरिश्चंद्र ने उसे 'कविवचन सुधा' के १८७० के जून के अंक में मूल संस्कृत एवं हिंदी भाषांतर सहित प्रकाशित की । इसमें शांकर अद्वैत मत का खंडन था, इसलिए संभव है कि हरिश्चंद्र को पसंद आया होगा । हरिश्चंद्र आरम्भ में स्वामीजी के कटु आलोचक एवं विरोधी रहे, मगर लगता है कि कालांतर में उनके मन में स्वामीजी की विचारधारा तथा उनके व्यक्तित्व के प्रति कुछ अच्छे भाव भी जागृत होने लगे थे । कई बातों में स्वामीजी के आलोचक रहते हुए भी वे अब यह मानने लगे थे कि स्वामीजी जो कुछ कहते हैं वह बुद्धि तथा युक्ति पूर्वक होता है । उनके साहित्य में जो सुधारावादी अभिगम दिखलाई पड़ता है, उसे स्वामीजी की विचारधारा का प्रभाव माना जाता हैं । १८७३ में स्वामीजी का मूर्तिपूजा विषयक एक शास्त्रार्थ पं. ताराचरण तर्करत्न से हुआ था, जो 'हुगली शास्त्रार्थ' (अथवा 'प्रतिमा पूजन विचार') के नाम से प्रसिद्ध है । हरिश्चंद्र ने इस शास्त्रार्थ को हिंदी में अनुदित कर तत्काल उसी वर्ष छपवाया । इससे प्रतीत होता है कि अब वे भी अन्दर से मूर्तिपूजा का खोखलापन अनुभव करने लगे थे । १८७५ में कि जब हरिश्चंद्र केवल २५ वर्षीय युवक थे, तभी स्वामीजी ने 'सत्यार्थ प्रकाश' जैसा कालजयी ग्रन्थ हिंदी गद्य में लिखकर हिंदी साहित्य को अपना अपूर्व योगदान दिया था । १८७९ में जब स्वामीजी अंतिम (सातवीं) बार काशी पधारे तब रेलवे स्टेशन पर उनका स्वागत करने वालों में हरिश्चंद्र भी थे । इस बार वे व्यक्तिगत रूप से स्वामीजी को मिले भी और स्वामीजी का वास्तविक उद्देश्य क्या है यह समझने का यत्न किया । उन्होंने 'स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन' निबन्ध में स्वामीजी के विचारों की प्रशंसा की है और अपने पत्र 'हरिश्चंद्र चन्द्रिका' के सम्पादक मंडल में स्वामीजी को स्थान दिया था । वैसे उन्होंने स्वामीजी के विचारों का या उनके आन्दोलन का एक समर्थक या अनुयायी के रूप में सातत्यपूर्ण समर्थन या प्रचार कभी नहीं किया ।