शहीद ऊधम सिंह
शहीद ऊधम सिंह
हाथी की तरह भारतीय भी अपने दुश्मन को कभी नहीं भूलते और पलट कर वार करते हैं, 20 साल बाद भी| 1940 में जर्मन रेडियो द्वारा किया गया ये प्रसारण आज भी गर्व से भर देता है हम भारतीयों को और गर्व प्रदान करने वाले इस वाक्य के पीछे था अमर शहीद उधम सिंह द्वारा जलियांवाला बाग़ के खलनायक से लगभग २० वर्षों बाद लिया गया बदला, जिन्होंने खुली चुनौती देकर और दुश्मन को उसी के घर में घुसकर मारने के बाद बहादुर शाह जफ़र के उस वाक्य को साकार कर दिया था कि तख़्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की और जिनके इस साहस ने हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया था। आज उन्हीं अमर शहीद ऊधम सिंह का जन्मदिवस है जिनकी गणना देश के प्रथम पंक्ति के बलिदानियों में होती है और माँ भारती के प्रति जिनकी भक्त अनुपम एवं प्रेरणीय है|
उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव के मोहल्ला रायपुरिया में श्री टहल सिंह और नरायण कौर के द्वितीय पुत्र के रूप में हुआ था। उनके बचपन का नाम था शेरसिंह और उनके बड़े भाई का नाम मुक्ता सिंह। परिवार की छोटी सी खेती बाड़ी थी पर खर्चे पूरे करने के लिए टहल सिंह ने सुनाम के पड़ोसी गाँव उपाल की रेलवे क्रासिंग पर चौकीदारी कर ली। उधम सिंह के पूर्वज यहीं के थे या कहीं से आकर बस गए थे, इस पर मतैक्य नहीं है। डॉ. माता प्रसाद (पूर्व राज्यपाल अरुणाचल प्रदेश) ने लिखा है कि ऊधमसिंह के माता-पिता श्रीमती नारायणी देवी और चूहड़ राम जाटव उत्तर प्रदेश के एटा जनपद के पटियाली गाँव के निवासी थे और सन् 1857 ईं. के बाद अपना जीवन-निर्वाह करने के लिए वे सुनाम जिला संगरूर, पटियाला, पंजाब चले आए थे। एक समय पंजाब के बड़े सिख सरदारों के फार्म, फैक्ट्री और ईंट के भट्ठों पर आसानी से मजदूरी का काम मिल जाता था। सरदार धन्ना सिंह ओवरसियर ने चूहड़ राम को अन्य श्रमिकों के साथ सुनाम से तीन मील दक्षिण नीलोबाल नहर पर काम में लगा लिया।
परन्तु उपयुक्त बातों का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। शहीद ऊधम सिंह के जन्म गृह की दीवारें 'नानक शाही' ईटों से निर्मित थीं, जिनके अवशेष आज भी दृष्टव्य हैं। इससे लगता है कि ऊधम सिंह का परिवार यहाँ पर कई सदियों से रह रहा था। ऊधम सिंह के परिवार में मौजूद उनकी चचेरी बहन आशा कौर के पुत्र श्री बचन सिंह के अनुसार उनके मामा ऊधम सिंह का परिवार सुनाम में कब से निवासित है, इसकी निश्चित जानकारी किसी को भी नहीं है। हाँ, इतना विश्वास से कहा जाता है कि चूहड़सिंह उर्फ टहलसिंह के पिता बसाऊ भी इसी ग्राम के निवासी थे। चूहड़ सिंह ने गुरुद्वारा में अमृत चखा और सिख धर्म अपनाकर टहल सिंह हो गए और वे रेलवे में गेटकीपर थे। इन बातों से स्पष्ट है कि वे एटा के नहीं बल्कि संगरूर जनपद के ग्राम सुनाम के मूल निवासी थे, जो उन दिनों जनपद पटियाला का अंग था। डॉ. माता प्रसाद ने सरदार धन्ना सिंह और सरदार चंचल सिंह का उल्लेख किया, जिन्होंने टहलसिंह दम्पति को सिख धर्म में दीक्षित कराया, परन्तु इसका भी कोई प्रमाण नहीं है।
ऊधम सिंह के पूर्वजों की जाति और पेशा के बारे में जो भी जानकारी उपलब्ध है, उनके अनुसार वे 'कमोऊँ जाति' के थे, जिनका पेशा था, लकड़ी और लोहे का काम करना यथा बुनकरों का ताना-बाना, धान कूटने की ओखली, कृषि कार्य के औजार, हल और जुआठ और लोहें के फाल आदि बनाना। इसके अतिरिक्त अधिकांश लोग मजदूरी करते थे। संगरूर जनपद में 'कमोऊं' की अधिसंख्यता के कारण 'कमोडिया देश' भी कहा जाता था। इसका उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता है कि ऊधम सिंह के परिवारजन कभी चमड़े का काम करते रहे होंगे। पर सच जो भी हो, हमारे लिए शहीद ऊधम सिंह जाति, धर्म और पेशा से ऊपर हैं। वे भारत माता के सपूत थे, सपूत रहेंगे और हम सभी के प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। वैसे भी 'राम मोहम्मद सिंह आज़ाद' नाम रखकर ऊधम सिंह जाति और धर्म से काफी अलग और ऊँचे जा खड़े हुए थे और उन्हें किसी खाँचे में बाँधना उनके साथ अन्याय होगा।
ऊधमसिंह के सर से माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और फिर 1907 में उनके पिता भी चल बसे। यह वही अवस्था होती है जब पिता अपनी संतान की ऊंगली पकड़कर उसे विद्यालय की सीढ़ियां चढ़ाता है, परंतु यहां तो उल्टा हो रहा था और पिता की उंगली छूट रही थी। दोनों अनाथ भाई इधर उधर घूम घूमकर अपना जीवन यापन करने लगे। कठिनाइयों और विषमताओं का दौर अभी समाप्त नही हो रहा था। भाई किशन सिंह रागी की सहायता से बालक शेर सिंह और उसके बड़े भाई मुक्ता सिंह को पुतलीघर, अमृतसर के केंद्रीय खालसा अनाथालय में ले जाया गया, जहाँ उनका नया नामकरण हुआ, शेर सिंह अब उधम सिंह बन गए और मुक्ता सिंह को नाम मिला साधू सिंह। यहाँ उधम सिंह ने विभिन्न शिल्प कलाओं और पंजाबी, हिंदी, उर्दू व अंग्रेजी में निपुणता हासिल की।
दोनों भाई जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे थे परंतु 1917 में 19 वर्ष के तरूण भाई साधूसिंह का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ा और एक दिन वह भी भाई का साथ छोड़कर चले गये। इस तरह ऊधमसिंह दुनिया के जुल्मों सितम झेलने के लिए बिलकुल तन्हा रह गए। ईश्वर की छत्रछाया और मजबूत इच्छा शक्ति से बना आत्मबल ही अब नितांत अकेले ऊधम सिंह के मित्र थे। मजबूत इरादे के धनी इस युवक ने अपने इन दोनों मित्रों का दामन पकड़ा और फिर उठकर चल दिया-क्रांति पथ की ओर क्योंकि उसे एक महान दायित्व का निर्वाह करना था। अब उसकी मां भारत माता थी, पिता भारतीय राष्ट्र था तो भाई देश के करोड़ों करोड़ नौजवान । इस उदात्त भावना के वशीभूत होकर ऊधम सिंह बैठे-बैठे अनंत में खो जाते और भविष्य की योजनाओं को सिरे चढ़ाने के सपने संजोते रहते। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था और उससे उन जैसा क्रांतिकारी नौजवान भला कैसे अछूता रह सकता था? उन्होंने चंद्रशेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों की तरह ही ब्रिटिश हुक्मरानों को ऐसी चोट दी जिसके निशान यूनियन जैक पर दशकों तक नजर आए।
उस समय हर तरफ अंग्रेजों के जुल्म-ओ-सितम पूरे उफान -पर थे और इनकी चरम परिणिति देखने को मिली, 13 अप्रैल 1919 को बैशाखी के उस दिन जिसे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में आँसुओं से लिखा गया है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और आज़ादी के दीवानों को सबक सिखाने के उद्देश्य से सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया ताकि भारतीय कभी भी ब्रिटिश सरकार से टकराने की हिम्मत न कर सकें| उस दिन जाने माने नेताओं डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी और रोलट एक्ट के विरोध में लोगों ने जलियांवाला बाग में एक सभा रखी थी, जिसमें ऊधम सिंह भी अपने अनाथालय के दोस्तों के साथ कडकती गर्मी की दोपहरी में स्वयंसेवक के रूप में पानी देने की सेवा कर रहे थे। पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर किसी कीमत पर इस सभा को नहीं होने देना चाहता था और उसकी सहमति से ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने जलियांवाला बाग को घेरकर बिना किसी चेतावनी के अंधाधुंध फायरिंग करा दी।
अचानक हुई गोलीबारी से बाग में भगदड़ मच गई। बहुत से लोग जहां गोलियों से मारे गए, वहीं बहुतों की जान भगदड़ ने ले ली। जान बचाने की कोशिश में बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। मरने वालों में माओं के सीने से चिपटे दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या वेला में देश की आजादी का ख्वाब देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार युवा सभी शामिल थे। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो कुएं से ही बरामद हुए। सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोगों की इस घटना में जान चली गई। स्वामी श्रद्धानंद के मुताबिक मृतकों की संख्या 1500 से अधिक थी। अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से ज्यादा थी।
अपने देश बांधवों की कारुणिक चीत्कारें सुनकर ऊधम सिंह उन्हें पानी देने लगे और घूम घूम कर घायलों की सेवा करने लगे पर इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उनके मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। इस हत्याकांड से बुरी तरह विचलित और दुखी वह रात में बाबा टलनाम नामक स्थान से होकर गुजर रहा था कि तभी पेशावर की रत्नादेवी नामक एक महिला के रूदन पूर्ण विलाप की चीख उनके कानों में पड़ी। उनके पूछने पर महिला ने बताया कि वह और उसका पति बैशाखी स्नान के लिए अमृतसर आए थे परंतु पति जलियांवाला बाग की इस घटना में शहीद हो चुके हैं और अब मैं उनकी लाश को लेने के लिए व्याकुल हूं। नवयुवक ऊधम सिंह ने बहन की सहायता का संकल्प लिया और उससे कहा कि तुम मेरे साथ चलो, पर शर्त ये है कि तुम रोओगी कतई नहीं। महिला ने हां कह दिया और ना रोने का व्रत लिया। तब दोनों गोरे सिपाहियों को झांसा देकर किसी तरह से बाग में घुसने में सफल हो गये। बड़े प्रयत्न से और बड़ा जोखिम लेकर रात्रि के अंधेरे में लाशों के ढेर में किसी प्रकार वे दोनों वांछित लाश को पहचानने में सफल हो गये। लेकिन धर्मपरायण रत्नादेवी ने जैसे ही पति की खून से लथपथ लाश देखी तो उसकी चीख निकल गयी। वह भूल गयी कि उसने ऊधम सिंह को क्या वचन दिया था? उसकी चीख सुनते ही गोरे सिपाहियों ने गोली चला दी, जो ऊधम सिंह के बाजू में आकर लगी, पर उस शेर ने अपनी पगड़ी उतारी और बाजू को कसकर बांध लिया। इस बहन के पति की लाश को उठाकर किसी तरह बाहर ले आये और उसे रत्नादेवी को अंतिम संस्कार के लिए सौंप दिया। पर उन्होंने बाग की मिट्टी हाथ में लेकर और स्वर्ण मन्दिर के पवित्र सरोवर में स्नान करके पंजाब प्रान्त के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर को मारकर इस जघन्य हत्याकांड का बदला लेने की सौगंध खाई, जिसे उन्होंने मुख्य रूप से इस हत्याकांड का दोषी माना।
उधम सिंह सक्रिय राजनीति में कूद पड़े और एक समर्पित क्रांतिकारी बन गए। 1918 में मेट्रिक पास कर चुके ऊधम सिंह ने 1919 में अनाथालय छोड़ दिया और ओ'डायर को मारने का बहुत प्रयास किया किन्तु उसके भारत में रहते तक उन्हें अपनी शपथ को पूरा करने का मौका नहीं मिला। कुछ समय बाद ओ'डायर वापस इंगलैंड चला गया, परन्तु ओ'डायर के वापस चले जाने पर भी ऊधम सिंह अपनी शपथ नहीं भूले। अपने गुप्त उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए और लंदन में अपने शिकार तक पहुंचने के लक्ष्य के लिए जीवन के विभिन्न चरणों में उन्होंने शेर सिंह, ऊधम सिंह, उधन सिंह, उड़े सिंह, उदय सिंह, फ्रैंक ब्राजील, और राम मोहम्मद सिंह आजाद आदि नाम रखे। वह 1920 में अफ्रीका पहुँचे, 1921 में नैरोबी के लिए आगे बढे और संयुक्त राज्य अमेरिका जाने के लिए कोशिश की लेकिन असफल रहे। '
वह 1924 में भारत लौटे और उसी वर्ष अमेरिका पहुंचे जहाँ उधम सिंह सक्रिय रूप से ग़दर पार्टी में शामिल हो गए, जो समूह अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और संस्थापक सोहन सिंह भकना के नाम से जाता था। उधम सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए अमेरिकी और संगठित प्रवासी भारतीयों में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए तीन साल बिताए। उनकी बहादुरी की चर्चा भगत सिंह व चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों के कानों तक भी जा पहुंची थी और उन्होंने इसलिए इन्हें स्वदेश बुला लिया। भगत सिंह के आदेश पर वह जुलाई 1927 में भारत लौट आए। वह अमेरिका से 25 साथियों के साथ रिवाल्वर और गोला बारूद की एक खेप भी लाये थे। 30 अगस्त 1927 को ऊधम सिंह को अमृतसर में बिना लाइसेंस हथियारों के लिए गिरफ्तार किया गया और उनके पास से कुछ रिवाल्वर, गोला – बारूद और निषिद्ध ग़दर पार्टी के “ग़दर-इ-गूंज” (“विद्रोह की आवाज”) की कागज की प्रतियां जब्त की गई। उन पर शस्त्र अधिनियम की धारा 20 के तहत मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें पांच साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। वह चार साल जेल में रहे और जब बाहर आये, तब तक भारतीय क्रांति के शिखर चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु-सुखदेव इस दुनिया में नही थे।
ऊधम सिंह को जेल से 23 अक्टूबर 1931 को रिहा किया गया, जिसके बाद वह अपने पैतृक गाँव सुनाम के लिए लौट आए, लेकिन उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण स्थानीय पुलिस द्वारा लगातार उत्पीड़न के कारण वो वापस अमृतसर आ गए और वहां उन्होंने राम मोहम्मद सिंह आजाद नाम के साथ साइन बोर्ड पेंटर की दूकान खोल ली। तीन साल तक ऊधम सिंह ने पंजाब में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखा और लंदन तक पहुँचने के लिए ओ' डायर की हत्या की योजना पर भी काम किया। उनके आंदोलनों पर पंजाब पुलिस द्वारा लगातार निगरानी की जा रही थी। वह 1933 में फिर अपने पैतृक गांव चले गए और फिर वहां से कश्मीर में एक गुप्त क्रांतिकारी मिशन पर, जहाँ वो पुलिस की नजर से दूर थे। इस अवसर का लाभ उठा वे जर्मनी के लिए भाग निकले और अंततः : 1934 में लंदन पहुँच गए और 9 एडलर स्ट्रीट, व्हाइटचैपल (ईस्ट लंदन) कमर्शियल रोड के पास रहने लगे।
ब्रिटिश पुलिस की गुप्त रिपोर्ट के मुताबिक, उधम सिंह 1934 के शुरूआती समय तक भारत में थे, फिर वह इटली पहुंच गए और 3-4 महीनों के लिए वहाँ रुके थे। इटली से वह फ्रांस, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रिया के लिए रवाना हुए और अंतत: 1934 में इंग्लैंड पहुंच गए, जहां उन्होंने कार खरीदी और यात्रा के उद्देश्यों के लिए अपनी कार का इस्तेमाल किया, तथापिउनका असली उद्देश्य हमेशा माइकल ओ' डायर ही था। उधम सिंह ने एक छः चैंबर रिवॉल्वर एमुनेशन के साथ खरीदी। कई अवसरों को छोड़ने के बावजूद, उधम सिंह एक सही समय की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि वह हत्या को अधिक प्रभावी बना सकें और वैश्विक ध्यान आकर्षित कर सकें।
यह अवसर मिला उन्हें जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में हुयी एक बैठक में जहाँ माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके। शाम के 3:00 बजे सभा लार्ड जैटलैण्ड की अध्यक्षता में बैठक शुरू हुई, जिसमें सर परसी साइकस ने अफगानिस्तान पर अपना भाषण दिया। इसी तरह सर लुईस डेन और जनरल डायर ने भी अपने विचार रखे। माइकल ओ डायर अफगानिस्तान के पहाड़ी राजाओं के चुटकले सुना कर सबको हँसा रहा था। वह भारत के विषय में भी बोला और जलियांबाला बाग के हत्याकांड की चर्चा भी उसने की। उसने भारतीयों के बारे में भी कहा कि भारतीय बड़े कायर होते हैं। अमृतसर के जलियांवाला बाग में गोलियों की आवाज़ सुनकर वह भेड़-बकरियों की तरह भाग रहे थे। उन्हें अभी सैंकड़ों वर्षों तक दबा कर रखा जा सकता है। उसके भाषण की समाप्ति 4 बजकर 30 मिनट पर हुई थी। जैसे ही वह मंच से उठकर चला तो ऊधम सिंह ने ओडायर के निकट आकर 6 गोलियां उस पर दाग दीं। दो गोली उस क्रूर अंग्रेज को सदा के लिए शांत करती हुई भारत के जलियांबाला बाग के शहीदों को अपना अंतिम लेकिन गौरवमयी सलाम करती हुई निकल गयीं।
ऊधम सिंह की गोलियों ने लार्ड जैटलैण्ड, लार्ड लेमिंगटन और मि. लुईडेन को भी घायल किया था। लुईडेन पंजाब का गवर्नर रहा था। ऊधम की गोली ने इसकी बांह तोड़ दी थी। लार्ड लेमिंगटन बंबई का गवर्नर रहा था, जिसे एक बार दुर्गा भाभी भी मारने के लिए बंबई गयी थीं। आज उसे भी लहुलुहान कर ऊधम सिंह ने भाभी की दुआएं ले ली थीं। जबकि जैटलैण्ड भारतमंत्री रहा था। वह भी बड़ा क्रूर था आज उसे भी घायल कर ऊधम सिंह ने भारत के शेरत्व का परिचय दिया था। इस प्रकार एक शिकार की ओट में ऊधम सिंह ने कई शिकारों को भारत का सही परिचय दे दिया था। सारी सभा में सन्नाटा छा गया पर ऊधम सिंह का बाहर निकलते वक्त एक अंग्रेज़ औरत बरथा होरिंग ने रास्ता रोक लिया। उस पर भारत मां के इस अमर सपूत ने हमला नही किया और संकट के क्षणों में भी भारतीय मूल्यों का परिचय दिया। उन पर मुकदमा चला और जब अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह अन्य लोगों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। ऊधमसिंह ने जवाब दिया कि मेरे सामने एक महिला थी और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। ऊधम सिंह की तलाशी लेने पर उनकी जेब से एक चाकू तथा 25 गोलियां मिलीं। उनके हथियार, एक चाकू, उनकी डायरी उस दिन चलाई गोली के साथ अब स्कॉटलैंड यार्ड के 'ब्लैक संग्रहालय' में रखे हैं।
विडंबना यह है कि प्रेस को एक बयान में, महात्मा गांधी ने काक्सटन हॉल शूटिंग की निंदा की और कहा- “the outrage has caused me deep pain. I regard it as an act of insanity…I hope this will not be allowed to affect political judgement”. एक सप्ताह के बाद उनके समाचार पत्र 'हरिजन' ने लिखा– “We had our differences with Michael O' Dwyer but that should not prevent us from being grieved over his assassination. We have our grievances against Lord Zetland. We must fight his reactionary policies, but there should be no malice or vindictiveness in our resistance. The accused is intoxicated with thought of bravery”.
जवाहर लाल नेहरू ने अपने नेशनल हेराल्ड में लिखा–“Assassination is regretted but it is earnestly hoped that it will not have far-reaching repercussions on political future of India. We have not been unaware of the trend of the feeling of non-violence, particularly among the younger section of Indians. Situation in India demands immediate handling to avoid further deterioration and we would warn the Government that even Gandhi's refusal to start civil disobedience instead of being God-send may lead to adoption of desperate measures by the youth of the country”.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ही अकेले सार्वजनिक नेता थे जिन्होंने ऊधम सिंह की कार्रवाई की सराहना की। R. C. Aggarwal 'भारत और राष्ट्रीय आंदोलन के संवैधानिक इतिहास' में लिखते हैं– ऊधम सिंह के साहसिक कृत्य ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नए सिरे से संघर्ष के लिए बिगुल फूंका। वीर सावरकर ने इसे वीरतापूर्ण कार्य बताया। दुनिया भर के प्रेस व अखबारों ने जलियांवाला बाग की कहानी को याद किया और माइकल ओ' डायर को इन घटनाओं के लिए पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया। लंदन के टाइम्स द्वारा उधम सिंह को “स्वतंत्रता का लड़ाका” बताया गया था और उनकी कार्रवाई को ” दलित भारतीय लोगों के मन में दबे हुए रोष की अभिव्यक्ति “। Bergeret, रोम से बड़े पैमाने में प्रकाशित पत्र में साहसी के रूप में ऊधम सिंह की कार्रवाई की प्रशंसा की गयी।
अंग्रेजों ने औपचारिकता के लिए ऊधम सिंह के विरूद्घ मुकदमा चलाया। जब उनसे उनका नाम पूछा गया तो मां भारती के इस सच्चे आराधक ने अपना नाम 'राम मुहम्मद सिंह आजाद' बताया। परंतु बाद में तहकीकात करने से पता चला कि उनका वास्तविक नाम ऊधम सिंह है, जो कि पहले भारत में भी जेल काट चुका है। 'ओल्ड वेली सेंट्रल क्रिमिनल मार्ट' नामक न्यायालय में चले मुकदमे में सारी जूरी के जज ऊधम सिंह के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त थे और जैसा कि अपेक्षित था, उन्हें 4 जून 1940 को हत्या का दोषी ठहराया गया।
5 जून 1940 को न्यायाधीश अॅटकिन्सन के सामने उनके दंड सुनाने के पूर्व के अंतिम वक्तव्य में उन्होंने कहा, ''ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हिंदुस्थान में मैंने जनता को दाने-दाने के लिए मरते हुए देखा है। अमृतसर के जलियांवाला बाग में जनरल डायर और माइकल ओडवायर के आदेश पर किए हुए क्रूर हत्याकांड का दृश्य मैं आज भी नहीं भूला हूं। इन्हीं घटनाओं से मैंने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध प्रतिशोध लेने की मन-ही-मन शपथ ली थी । मैंने यह हत्या इसलिए की है कि मुझे इस दरिंदे से नफरत थी। ओडवायर का वध करके यदि मैं यह प्रतिशोध न लेता, तो हिंदुस्थान के नाम को कलंक लग जाता! तुम्हारे 10, 15 अथवा 20 वर्षों के कारावास का अथवा मृत्युदंड का मुझे कदापि भय नहीं । वृद्धावस्था तक ऐसे जीने से क्या लाभ, जिसमें कोई उद्देश्य ही न हो। अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए, मरने में ही खरा पुरुषार्थ है, तो फिर यह कार्य युवावस्था में ही क्यों न हो ! इससे ज्यादा सम्मान मुझे क्या दिया जा सकता है कि अपनी प्यारी मातृभूमि के लिए मैं मृत्यु को वरण करूं।”
उनका वक्तव्य २० मिनट चला, जिसके उपरान्त उन्हें मृत्युदंड सुना दिया गया। इसे सुनकर उन्होंने सरदार भगतसिंह को आदर्श मानकर तीन बार 'इंकलाब जिंदाबाद!' सजा के विरुध अपील दायर की गई जो 15 जुलाई 1940 को खारिज हो गई। कारागृह से जोहल सिंह नाम के मित्र को भेजे हुए पत्र में वे लिखते हैं, ''मुझे मृत्यु का भय कभी भी नहीं लगता । मैं शीघ्र ही फांसी से विवाह करने वाला हूं। मेरे सर्वोत्तम मित्र (भगतसिंह) को मुझे छोडकर गए हुए 10 वर्ष हो गए हैं। मेरी मृत्यु के उपरांत उससे मेरी भेंट होगी। वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है।” आखिरकार 31 जुलाई 1940 को सुबह 9 बजे लंदन की पैनटन विले जेल में ऊधम सिंह को फाँसी दी गई। फांसी लगने से पूर्व उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि जब मेरा देश आजाद हो जाये तो मेरी अस्थियां मेरे देशवासियों को सौंप देना ताकि मेरी मिट्टी मेरे देश में दफन हो सके। उनके शव को काले वक्से में डाल कर जेल के कब्रिस्तान में ही दफन कर दिया गया।
भारत की आज़ादी के बाद लोग ऊधम सिंह को कई वर्षों तक भूले बैठे रहे, क्योंकि हम तो यही सुन सुन कर खुश होते रहे कि हमें आज़ादी बिना खड्ग और बिना ढाल ही मिल गयी है। जब 1972 में ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने सुल्तानपुर लोधी के विधायक सरदार साधु सिंह थिंड के निवेदन पर केंद्र सरकार से शहीद उधम सिंह के अवशेषों को स्वदेश प्रत्यावर्तित करने का अनुरोध किया जब ब्रिटिश सरकार ने शहीद के अवशेष लौटाने की बात स्वीकार कर ली, तब केन्द्रीय सरकार से सलाह मशविरा करके साधू सिंह, मंत्री उमरा सिंह तथा मुख्य सचिव सरदार आर.एस. तलवार को इंगलैण्ड भेज कर शहीद ऊधम सिंह की अस्थियों को भारत वापस मंगवाया गया। उन्हें 19 जुलाई 1974 को पालम हवाई अड्डे दिल्ली में बड़े सत्कार के साथ जहाज़ से उतारा गया और स्वदेश आने पर 'शहीद' जैसा स्वागत किया गया। दिल्ली हवाई अड्डे पर 'देह अवशेष ताबूत' का स्वागत करने वालों में डॉ शंकर दयाल शर्मा जो उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे और ज्ञानी जैल सिंह जो पंजाब के मुख्यमंत्री थे, भी शामिल थे। दिल्ली के कपूरथला हाऊस में उनकी अस्थियों को तीन दिन तक रखा गया, जहां प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तथा अन्य केन्द्रीय मंत्रियों ने शहीद ऊधम सिंह को श्रद्धांजलि दी।
23 जुलाई को शहीद ऊधम सिंह की अस्थि कलश यात्रा दिल्ली से शुरू हो कर चण्डीगढ़, लुधियाना, जालन्धर, अमृतसर, फिरोज़पुर, भठिण्डा आदि शहरों से होती हुई आखिर में 31 जुलाई 1974 को उनके पैतृक गांव सुनाम पहुंची, जहां लाखों लोगों ने शहीद ऊधम सिंह की अस्थियों के दर्शन किये। सुनाम में पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अन्तिम संस्कार किया गया। पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने उनकी चिता को अग्नि देकर अन्तिम संस्कार की रस्म को पूरा किया। इसके बाद हिन्दुओं ने अस्थि विसर्जन हरिद्वार में किया तो मुसलमानों ने फतेहगढ़ मस्जिद और सिखों ने कीरतपुर साहिब में अपने-अपने रीति-अनुसार उनकी अन्तयेष्टि सम्पन्न की। कुछ अस्थियों को गागर में डाल कर अमृतसर के जलियांवाला बाग में सुरक्षित रखा गया।
भारत मां का एक अमर सपूत उसके गौरव के लिए अपना आत्मोत्सर्ग दे गया, पर हमने उन्हें क्या दिया। स्वतंत्रापूर्व उन जैसे लोगों को अंग्रेज और उनके कुछ स्वामिभक्त चाटुकार भारतीय उग्रवादी कहा करते थे, पर आज तो हम आजाद हैं, तब भी हम अपने क्रांतिकारी और इस देश के कोहिनूरों को कम करके क्यों आंक रहे हैं? क्यों हम और हमारे कर्णधार नहीं जानना चाहते कि जिन शहीदों की कुर्बानियों से देश आजाद हुआ अब उनके वारिसों पर क्या बीत रही है। इसके लिए इतिहास के छुपे इन अनमोल हीरों को आज की युवा पीढ़ी के सामने उनके वास्तविक स्वरूप में लाना ही पड़ेगा, अन्यथा मां भारती के ऋण से कभी उऋण नही हो पाएंगे। इस अमर बलिदानी को कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।