रानी गाइडेनिल्यू

रानी गाइडेनिल्यू



 


सुदूर पूर्वोत्तर भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध बहुत छोटी आयु में ही क्रान्ति की मशाल जलाने वाली रानी गाइडेनिल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के टौसेम प्रखंड के लोंग्काओ गाँव में लोथोनांग पामेई एवं काचक्लेनिल्यू के यहाँ हुआ था। राङ्गमेई कबीले में जन्मी गाइडेनिल्यू अपने माता-पिता की आठ संतानों में से पांचवी संतान थीं। 1927 में, जब वह मात्र 13 वर्ष की थी, उनकी मुलाकात अपने क्षेत्र के एक प्रमुख स्थानीय नेता हाइपोउ जादोनांग से हुयी, जिनकी विचारधारा और सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे उनकी शिष्या बन गयीं और अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध अभियान में शामिल हो गयीं। केवल तीन वर्षों में 16 वर्ष की होते होते गाइडेनिल्यू अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध चलाये जा रहे गुरिल्ला युद्ध की नेता बन गयीं। जैसे जैसे ये आन्दोलन तीव्र होता गया और इसके प्रभाव में लोगों ने अंग्रेजी प्रशासन और सामान का बहिष्कार करना शुरू कर दिया, अंग्रेजी सरकार ने इसे कुचलने के लिए क्रूर कदम उठाना प्रारम्भ कर दिए। इसी बीच इस आन्दोलन के सूत्रधार हाइपोउ जादोनांग गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें 29 अगस्त 1931 को फांसी दे दी गयी। इसके बाद इस आन्दोलन का पूरा उत्तरदायित्व गाइडेनिल्यू पर आ गया जो अपने गुरु की मृत्यु के बाद उनकी राजनैतिक, अध्यात्मिक और सामाजिक उत्तराधिकारी थीं। नागा लोगों में उनके बढ़ते प्रभाव को देखते हुए अंग्रेजी सरकार ने उन्हें खोजने का एक बड़ा अभियान शुरू किया और उनको पकडवाने पर इनाम भी रखा पर मणिपुर, कछार और नागा क्षेत्रों के लोगों के प्रबल समर्थन के चलते गाइडेनिल्यू भूमिगत हो गयीं। अंग्रेजी प्रशासन के उन्हें पकड़ने के प्रयास जारी रहे और अंततः 17 अक्टूबर 1932 को वर्तमान नागालैंड के पुलोमी गाँव से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला और हत्यायों और राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। 1933 से 1947 तक वो अनेकों जेलों में बंद रहीं। उनकी बन्दीवस्था में ही 1937 में नेहरु जी ने उनसे शिलांग जेल में भेंट की और उनकी जल्द रिहाई के लिए प्रयास करने का आश्वासन दिया। नेहरु जी ने इस सम्बन्ध में प्रयास भी किये पर ब्रिटिश सरकार के भारतमंत्री ने ये कहते हुए नेहरु जी के प्रयासों को ठुकरा दिया कि गाइडेनिल्यू को छोड़ देने से पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में अशांति का खतरा हो सकता है। देश के प्रति उनके निस्वार्थ प्रेम, उनके संघर्ष एवं उनके समर्पण को देखते हुए गाइडेनिल्यू को भारतीय लोगों ने पर्वतों की पुत्री कह कर सम्बोधित किया और उन्हें रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमूर्ति के रूप में देखते हुए उन्हें रानी की उपाधि दी, जो आगे चलकर उनके नाम का भाग बन गयी। स्वतंत्रता के बाद प्रधानमंत्री नेहरु के आदेश पर रानी गाइडेनिल्यू को पूरे 14 वर्ष जेल में बिताने के बाद तूरा जेल से रिहा किया गया परन्तु अज्ञात कारणों से सरकार ने उन्हें पैतृक गाँव जाने की अनुमति नहीं दी और इस कारण 1952 तक वे अपने छोटे भाई के साथ तुयेनसंग के विमरप गाँव में रहीं। 1952 में उन्हें अपने पैतृक गाँव जाने की अनुमति दी गयी, उस गाँव जहाँ से उन्होंने अपनी क्रान्ति की यात्रा आरम्भ की थी। 1953 में नेहरु जी के इम्फाल दौरे के समय रानी गाइडेनिल्यू ने उनसे भेंट की और स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण में पूर्वोत्तर भारत के लोगों के हर संभव सहयोग का आश्वासन दिया। पर कुछ शेष भारत के लोगों की उपेक्षा के चलते और अधिक ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में जल्द ही ये क्षेत्र उपद्रवग्रस्त हो गया। मिशनरियों से प्राप्त धन और शह के चलते ईसाई बन गए नागा लोगों के एक वर्ग ने अलग नागालैंड की मांग प्रारम्भ कर दी, जिसका रानी गाइडेनिल्यू ने जमकर विरोध किया और लगभग एक समान पहचान वाले सभी कबीलों के लिए एक ही वृहत्तर राज्य की मांग की। परम्परागत मत हेराका को पुनः प्रचारित प्रसारित करने और ईसाई बने नागाओं की अलग राज्य की मांग का विरोध करने के लिए वो मिशनरियों के निशाने पर आ गयीं, जिन्होंने उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी। सरकार से अपेक्षित सहयोग ना मिलते देख रानी गाइडेनिल्यू 1960 में भूमिगत हो गयीं और उन्होंने अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित 1000 लोगों की सेना का गठन किया ताकि मिशनरियों और उनके इशारों पर चलने वाले देश और धर्म विरोधी तत्वों का मुकाबला किया जा सके। उन्होंने देश विरोधी किसी भी मांग के विरुद्ध संघर्ष करने का आव्हान किया और सरकार से मिशनरियों के आगे घुटने ना टेकने की अपील करते हुए देश के संविधान के अनुरूप एक वृहत्तर राज्य की मांग की। 1966 में भारत सरकार से हुए समझौते के बाद रानी गाइडेनिल्यू अपने भूमिगत जीवन को समाप्त कर बाहर आ गयीं और कोहिमा में रहते हुए शांतिपूर्ण एवं लोकतान्त्रिक तरीके से लोगों की भलाई के लिए कार्य करने लगीं। उनके सशस्त्र साथियों को नागालैंड आर्म्ड फ़ोर्स में स्थान दे दिया गया। देश की स्वतंत्रता के लिए उनके संघर्ष, पूर्वोत्तर भारत को शेष भारत से जोड़ने में किये गए उनके प्रयासों और अपने लोगों की उनके द्वारा की गयी सेवाओं को देखते हुए उन्हें 1972 में ताम्रपत्र स्वतंत्रता सेनानी सम्मान, 1981 में पद्म भूषण एवं 1991 में विवेकानन्द सेवा सम्मान प्रदान किया गया। 1991 में वे अपने पैतृक गाँव लौट गयीं और वहीँ 17 फरवरी 1993 में उनकी मृत्यु हो गयी। 29 फरवरी 1993 को पूरे राजकीय सम्मान के साथ हुए उनके अंतिम संस्कार में अनेकों गणमान्य व्यक्तियों ने भाग लिया और अपनी इस महान बेटी की मृत्यु पर पूरा पूर्वोत्तर भारत रो पड़ा। आदिवासियों और जनजातियों के लिए महत्वपूर्ण कार्य करने हेतु मरणोपरांत उन्हें बिरसा मुंडा पुरस्कार से सम्मानित किया और 1996 में केन्द्र सरकार ने उन पर एक डाक टिकट भी जारी किया। परन्तु एक सच्चाई यह भी है कि सरकार ने रानी गाइडेनिल्यू के साथ किये वायदों पर अमल नहीं किया और तुष्टिकरण की नीति के चलते ईसाई मिशनरियों के आगे झुक गयी, जिसके पूर्वोत्तर भारत में अत्यंत गंभीर परिणाम हुए, जिहें ये देश आज तक भुगत रहा है और जो आज भी नासूर बन कर इस देश को दर्द दे रहे हैं। यदि सरकार ने रानी गाइडेनिल्यू के प्रयासों में साथ दिया होता तो आज देश का पूर्वोत्तर भू भाग अलगाववादियों और आतंकियों का ठिकाना ना बना होता और आज वहां परम्परागत मत और जनजातियाँ का अस्तित्व समाप्त सा ना हो गया होता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यक्रम में अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि ये इसी देश में हो सकता है कि सरकार उन लोगों की तो सुनती है जो देश तोडना चाहते हैं और उन लोगों को दुत्कारती है जो देश के लिए ही जीना मरना चाहते हैं। संघ के पूर्वोत्तर भारत को शेष भारत से जोड़ने के प्रयासों पर प्रसन्नता और संतुष्टि व्यक्त करते हुए उन्होंने इस कार्य में हर संभव सहयोग देने का आश्वासन दिया था और इसे निभाया भी। अपनी अंतिम श्वांस तक भारत की एकता और अखंडता के लिए जीने वाली वीरता की प्रतिमूर्ति रानी गाइडेनिल्यू को शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।


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