राम प्रसाद ‘बिस्मिल’
राम प्रसाद 'बिस्मिल'
वो 18 दिसंबर 1927 का दिन था, जब गोरखपुर सेण्ट्रल जेल के बडे फाटक के सामने अधेड़ आयु की एक महिला और उसका पति जेल के अन्दर जाने के इंतजार में खड़े थे। उनके चेहरे पर कुछ उदासी छाई हुयी थी और चिंता भी स्पष्ट दिखलाई दे रही थी। वे इसी सोच में थे कि उन्हें कब जेल के अन्दर जाने की आज्ञा मिलती है। तभी एक युवक भी वहाँ पहुँच गया। वह इनका रिश्तेदार नहीं था मगर वह जानता था कि इन दोनों को अन्दर प्रवेश करने की इजाजत मिल जायेगी। वह अपने बारे में सोच रहा था कि वह स्वयं कैसे भीतर जा सकेगा? जेल के अफसर वहाँ आये और उन्होंने पति-पत्नी दोनों को बुलाया। वहीं खड़ा युवक भी उनके पीछे-पीछे जाने लगा तो पहरेदार ने उसे रोक दिया और कड़ककर पूछा, “तुम कौन हो?” युवक कुछ कहता, इसके पहले ही उस महिला ने अनुरोध के स्वर में कहा, “भैया, उसे भी अन्दर आने दो। वह मेरा भानजा है।” पहरेदार ने युवक को भी उनके साथ जाने दिया। तीनों व्यक्ति जेल में एक ऐसे स्वतंत्रता सैनिक से मिलने जा रहे थे, जिसे अगली सुबह फाँसी की सजा दी जानेवाली थी।
हथकड़ियाँ-बेडियाँ पहने उस स्वतंत्रता सैनिक को वहाँ लाया गया। वह अन्तिम बार अपनी माँ को देख रहा था और सोच रहा था कि अब मैं आखिरी बार उसे 'माँ” कहकर पुकार सकूँगा। उसके मुँह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उस दिन मां को देखकर उस मातृभूमि-भक्त पुजारी की आंखों में आंसू आ गए । उस समय उसकी माता ने हृदय पर पत्थर रख जो कहा, वो विरली माताएं ही कर सकती हैं। उसकी माँ ने दृढ़ता के स्वर में कहा—मेरे बेटे, यह तुम क्या कर रहे हो? मैं तो अपने सपूत को एक महान योद्धा मानती थी और सोचती थी कि मेरे बेटे का नाम सुनते ही ब्रिटिश सरकार भय से काँप उठती है। मैं समझती थी तुमने अपने पर विजय पाई है किन्तु यहां तो तुम्हारी कुछ और ही दशा है। मुझे यह मालूम नहीं था कि मेरा बेटा मौत से डरता है। यदि तुम रोते हुए ही मौत का सामना करना चाहते हो तो तुमने आजादी की लड़ाई में हिस्सा ही क्यों लिया? जीवन पर्यन्त देश के लिये आंसू बहाकर अब अन्तिम समय तुम मेरे लिये रोने बैठे हो। इस कायरता से अब क्या होगा। तुम्हें वीर की भांति हंसते हुए प्राण देते देखकर मैं अपने आपको धन्य समझूंगी। मुझे गर्व है कि इस गये-बीते जमाने में मेरा पुत्र देश की वेदी पर प्राण दे रहा है। मेरा काम तुम्हें पालकर बड़ा करना था, इसके बाद तुम देश की चीज थे, और उसी के काम आ गए। मुझे इसमें तनिक भी दुख नहीं है।
उत्तर में उस वीर स्वाधीनता सेनानी ने कहा—मां, तुम तो मेरे हृदय को भली-भांति जानती हो। ये आँसू भय के आँसू नहीं हैं। ये हर्ष के आँसू हैं, तुम जैसी वीर माता को पाने की खुशी के हैं ये आँसू। क्या तुम समझती हो कि मैं तुम्हारे लिये रो रहा हूं अथवा इसलिये रो रहा हूं कि मुझे कल फाँसी हो जायेगी। यदि ऐसा है तो मैं कहूंगा कि तुम जननी होकर भी मुझे समझ न पायी। मुझे अपनी मृत्यु का तनिक भी दुख नहीं है। हां, यदि घी को आग के पास लाया जायेगा तो उसका पिघलना स्वाभाविक है। बस उसी प्राकृतिक सम्बन्ध से दो चार आंसू आ गए। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं अपनी मृत्यु से बहुत सन्तुष्ट हूं। उस माता और उसके पुत्र की देशभक्ति और दृढ़ता देखकर जेल के अफसर भी चकित रह गये। उस वीर माता के वीर पुत्र का नाम था रामप्रसाद 'बिस्मिल' जो प्रसिद्ध काकोरी रेल डकैती प्रकरण के अगुआ थे। उनसे मिलने गए वो पति पत्नी उनके माता पिता थे और साथ में गया युवक, उनके साथी प्रसिद्द क्रांतिकारी शिव वर्मा, जो उस दिन भी एक विशेष प्रयोजन से जेल में उनसे मिलने गए थे।
11 जून उन्हीं महान हुतात्मा राम प्रसाद 'बिस्मिल' का जन्मदिवस है जो भारत के महान स्वतन्त्रता सेनानी ही नहीं, बल्कि उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद् व साहित्यकार भी थे और जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी| उनका जन्म उत्तर प्रदेश में शाहजहाँपुर में 11 जून 1897 को मुरलीधर एवं मूलवती देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। उनके पूर्वज ग्वालियर राज्य के चम्बल नदी के किनारे बसे तोमरगढ़ नामक स्थान के निवासी थे। उनके दादा पण्डित श्री नारायण लाल की पारिवारिक परिस्थिति अत्यन्त सामान्य स्तर की थी। घर में उनकी भाभी का एकाधिकार चलता था, जो एक स्वार्थी प्रवृत्ति की महिला थी। पण्डित नारायण लाल के लिए धीरे-धीरे भाभी का दुर्व्यवहार असहनीय हो गया। इसलिए उन्होंने घर छोड़ देने का निर्णय लिया और अपनी धर्मपत्नी तथा दो अबोध पुत्रों को साथ लेकर घर से निकल पड़े। इस समय उनके बड़े पुत्र मुरलीधर की अवस्था आठ वर्ष तथा छोटे पुत्र कल्याणमल की केवल छ: वर्ष थी।
घर छोड़ने के बाद पण्डित नारायण लाल कई दिनों तक अजीविका की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे तथा अन्त में शाहजहांपुर में उत्तर प्रदेश में पहुँचे और यहीं अहरिया नामक गांव में रहने लगे। अत्यधिक प्रयत्न करने पर शाहजहांपुर में एक अतार महोदय के यहां पण्डित नारायण लाल को एक मामूली सी नौकरी मिली, जिसमें नाममात्र के लिए तीन रुपए प्रतिमास वेतन मिलता था। उस समय पड़ रहे भयंकर अकाल में परिवार के चार प्राणियों का भरण-पोषण कर पाना अत्यधिक कठिन कार्य था पर बिस्मिल की दादी बहुत जीवट वाली महिला थीं और उन्होंने एक समय आधा पेट भोजन करके भी निर्धनता एवं कठिनाइयों का सामना बहादुरी से सामना किया। ऐसे दुर्दिनों में उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, एक सामान्य ग्रामीण महिला से ऐसी अपेक्षा प्राय: कम ही की जाती है। कठिन परिश्रम से घर की स्थिति में धीरे धीरे सुधार हुआ और धीरे-धीरे बच्चे भी बड़े होकर हाथ बँटाने लगे।
बिस्मिल के पिता मुरलीधर जी को शाहजहाँपुर नगरपालिका में नौकरी मिल गयी, पर कुछ समय बाद वे नौकरी से ऊब गये और नौकरी छोड़कर उन्होंने स्वतंत्र जीवन-यापन शुरू कर दिया। वे ब्याज पर ऋण देने लगे और उनकी गाडियाँ भी किराये पर चलने लगीं। उनका पहला पुत्र काफी कम समय जीवित रहा और रामप्रसाद उनके दूसरे पुत्र थे। इस बालक में भी पहले बच्चे की तरह रोग के लक्षण दिखाई देने लगे थे, पर परिवारीजनों के अथक प्रयासों और दादी की मनौतियों से यह बच्चा बच गया। पिता भगवान राम के अनन्य भक्त थे अतः बच्चे का नाम रखा गया रामप्रसाद। रामप्रसाद के बाद उनके घर में पांच बहनों तथा तीन भाइयों का जन्म हुआ। इनमें से दो भाई तथा दो बहनें कुछ ही समय बाद मृत्यु को प्राप्त हो गए। इसके बाद परिवार में दो भाई तथा तीन बहनें रहीं। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के बलिदान के समय उनके छोटे भाई सुशीलचंद्र की अवस्था केवल दस वर्ष थी। बाद में उसे तपेदिक हो गई थी, जो चिकित्सा के अभाव में कुछ ही समय बाद दुनिया से चल बसा था। तीन बहनों का विवाह हो गया था, जिनमें से एक की विवाह के बाद मृत्यु हो गई थी। एक अन्य बहन बड़े भाई रामप्रसाद की मृत्यु का दु:ख सहन नहीं कर सकी और उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली। केवल एक बहन शास्त्रीदेवी ही शेष बची। इस करुणकथा का वर्णन श्रीमती शास्त्रीदेवी ने इस प्रकार किया है—
दो बहनें विवाह के बाद मर गयीं। एक छोटी बहन तो जहर खाकर मर गई। भाई को फांसी का हुक्म हुआ सुनकर उसने जहर खा लिया। उसकी शादी भाई ने एक ज़मींदार के साथ की थी। वह हम से छ: मील की दूरी पर थी कुचेला के मौजे में। छोटा भाई बीमार हो गया तपेदिक हो गई थी। पिताजी अस्पताल में भर्ती कर आये। डाक्टर ने कहा कि दो सौ रुपये दो, हम ठीक कर सकते हैं। पिताजी ने कहा कि मेरे पास रुपये होते तो यहाँ क्यों आता। मुझे तो गवर्नमेंट ने भेंट दिया। लड़का भी गया, पैसा भी गया। अब तो बहुत दिन हो गए। गणेश शंकर विद्यार्थी पन्द्रह रुपये मासिक देते हैं, उनसे गुजर करता हूँ। एक हफ़्ता अस्पताल में रहा, उसे खून के दस्त हुए, चौबीस घंटे में खतम हो गया। दसवां दर्जा पास था। वह भी बोलने में बहुत अच्छा था। लोग कहते थे कि यह भी रामप्रसाद की तरह काम करेगा। अब इस समय मायके के सारे खानदान में मैं ही अकेली अभागिन रह गई हूँ।
पंडित रामप्रसाद की माताजी एक साहसी महिला थीं। महानतम विपत्ति में भी धैर्य न खोना उनके चरित्र का एक सबसे बड़ा गुण था। वह किसी भी विपत्ति में सदा अपने पुत्र का उत्साह बढ़ाती रहती थीं। पुत्र के दु:खी अथवा अधीर होने पर वह अपनी ममतामयी वाणी से सदा उन्हें सांत्वना देती थीं। रामप्रसाद के परिवार में कन्याओं को जन्म लेते ही मार देने की एक क्रूर परम्परा रही थी। इस परम्परा को उनकी माताजी ने ही तोड़ा था। इसके लिए उन्हें अपने परिवार के विरोध का भी सामना करना पड़ा था। दादा और दादी दोनों कन्याओं को मार देने के पक्ष में थे और बार-बार अपनी पुत्रवधू को कन्याओं को मार देने की प्रेरणा देते थे, किन्तु माताजी ने इसका डटकर विरोध किया और अपनी पुत्रियों के प्राणों की रक्षा की। उन्हीं के कारण इस परिवार में पहली बार कन्याओं का पालन-पोषण तथा विवाह हुआ था।
अपनी मां के व्यक्तित्व का बिस्मिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। अपने जीवन की सभी सफलताओं का श्रेय उन्होंने अपनी मां को ही दिया है। मां के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है- “यदि मुझे ऐसी माता न मिलती तो मैं भी अतिसाधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की, जैसी मेजिनी की उनकी माता ने की थी। माताजी का मेरे लिए सबसे बड़ा उपदेश यही था कि किसी की प्राण न लो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति करने के लिए मुझे मजबूरन एक-दो बार अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी।” बिस्मिल के शब्दों में—-
जन्म दात्री जननी! इस जीवन में तो तुम्हारा ऋण परिशोध करने का प्रयत्न करने का भी अवसर न मिला। इस जन्म में तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूँ तो भी तुमसे उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने किस प्रकार अपनी देववाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका भी श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हें यदि मुझे प्रताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृष्टतापूर्वक उत्तर दिया, तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुमने इस शरीर को जन्म देकर पालन-पोषण ही नहीं किया, किन्तु आत्मिक, धार्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्हीं मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मांतर परमात्मा ऐसी ही माता दे।
जब बिस्मिल सात वर्ष के थे तो पिता मुरलीधर ने उन्हें हिन्दी पढाना शुरू किया और साथ ही उर्दू सीखने के लिये उसे मौलवी के पास भेजा गया। अंत में वे शाला में जाने लगा। वह आठवीं कक्षा तक सदा अपनी कक्षा में प्रथम आते थे, किन्तु कुसंगति में पड़ जाने के कारण उर्दू मिडिल परीक्षा में वह लगातार दो वर्ष अनुत्तीर्ण हो गए। बालक की इस अवनति से घर में सभी को बहत दु:ख हुआ। किसी न किसी तरह पिता को इन आदतों की जानकारी मिल गई पर डांट डपट से भी सुधार ना हो सका। उनके घर के पास ही एक मंदिर था, जिसमें एक नये पुजारी आये थे। वे बिस्मिल को बहुत चाहते थे और उनके प्रेम और मार्गदर्शन के कारण उन्होंने सब बुरी आदतें छोड़ दीं और नियम से पूजा भी करने लगे। दो बार एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर उनका मन उर्दू की पढ़ाई से उठ गया अतः उन्होंने अँग्रेजी शाला में जाने की इच्छा प्रकट की। पिताजी इसके लिये राजी नहीं हुए किन्तु माँ ने भी बेटे का पक्ष लिया और तब पिता ने उसे अँग्रेजीं शाला में भर्ती करा दिया।
मुंशी इन्द्रजीत नामक एक भद्र पुरूष ने युवा रामप्रसाद को पूजा करते देखा। वे बडे प्रसन्न हुए और रामप्रसाद को संध्यावंदन की विधि सिखलाई। आर्य समाज के विषय में भी उन्होंने शिक्षा दी और स्वामी दयानंद की पुस्तक 'सत्यार्थ-प्रकाश' पढने को दी। इस ग्रंथ से उन्हें प्रेरणा मिली और उन्होंने एक वीर पुरूष के रूप् में ऊँचा उठने का संकल्प कर लिया। उनके अपने शब्दों में, “मुंशीजी ने मुझे आर्य-समाज सम्बन्धी कुछ उपदेश दिए और इसके बाद मैंने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा । इससे तख्ता ही पलट गया । सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नवीन पृष्ठ खोल दिया। मैंने उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना आरम्भ कर दिया। शाम को भोजन करना छोड़ दिया, चटपटी या खट्टी चीजों के साथ भोजन में नमक का भी त्याग कर दिया। ब्रह्यचर्य व्रत के पालन तथा नियमित व्यायाम से मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया और सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे।”
आर्य समाज के सिद्धान्तों का रामप्रसाद पर बड़ा गहरा प्रभाव हुआ था, जिस कारण उनकी कभी-कभी अपने मूर्तिपूजक पिता से गर्मागर्म बहस भी हो जाती। आर्य समाज के युवा अनुयायियों ने आपस में सलाह-मशविरा करके 'आर्य कुमार-सभा' की स्थापना की। उन्होंने सभायें कीं व जुलूस निकाले। पुलिस को यह चिन्ता सताने लगी कि कहीं इसके फलस्वरूप हिन्दुओं और मुसलमानों में दंगा न हो जाये, इसलिए सरकार ने सभाओं-जुलूसों पर रोक लगा दी। आर्य समाज के ज्येष्ठ नेता भी युवकों से नाराज हो गये और उन्होंने कुमार-सभा को अपने दफ्तर से बाहर निकाल दिया। कुछ समय तक तो कुमार-सभा सक्रिय रही, मगर बाद में उसकी गतिविधियाँ मंद पड़ने लगीं। यद्यपि कुमार-सभा का काम कुछ ही महीने चला मगर इतने कम समय में ही उसके सत्कार्यो की प्रसिद्धि शाहजहाँपुर में और उसके बाहर भी फैल गई।
इसी बीच आर्य समाज के एक नेता स्वामी सोमदेवजी शाहजहाँपुर आये और अपना स्वास्थ सुधारने के लिये कुछ समय तक वहाँ रहे। रक्त की कमी से उनका शरीर बड़ा कमजोर हो गया था। रामप्रसाद ने स्वामी सोमदेवजी की लगन के साथ सेवा की। स्वामी सोमदेवजी महान देशभक्त और विद्वान थे। साथ ही वे योगविद्या में भी कुशल थे। उन्होंने रामप्रसाद को धर्म और राजनीति पर शिक्षा दी तथा कुछ पुस्तकें पढ़ने का सुझाब भी दिया। उनके मार्गदर्शन से धर्म और राजनीति के विषय में रामप्रसाद के विचार बडे स्पष्ट हो गये। सन् 1916 में भाई परमानंदजी को 'लाहौर षडयंत्र प्रकरण' फाँसी की सजा दी गई। उन्होंने 'तवारीखे हिन्द' नामक एक पुस्तक लिखी थी। रामप्रसाद ने वह पुस्तक पढी और इस पुस्तक से तथा स्वयं परमानन्द जी वे बडे प्रभावित हुए।
जब उन्होंने परमानंदजी को मृत्युदंड दिये जाने का समाचार सुना, तो उनका खून खौल उठा और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि गोरी ब्रिटिश सरकार से वे इस अन्याय का बदला जरूर लेंगे। उन्होंने इस प्रतिज्ञा की जानकारी गुरू सोमदेवजी को भी दी। गुरूजी ने कहा “प्रतिज्ञा करना आसान है मगर उसे पूर्ण करना बहुत कठिन है।” गुरूजी के चरण छूकर रामप्रसाद ने कहा “यदि इन चरणों की मुझ पर कृपा रही तो मैं अवश्य प्रतिज्ञा पूर्ण करूँगा। कोई भी शक्ति मुझे रोक नहीं सकेगी।” रामप्रसाद के क्रांतिकारी जीवन की यहीं से शुरूवात हुई। यद्यपि भाई परमानंद की फांसी की सज़ा को बाद में महामना मदनमोहन मालवीय तथा देशबंधु एण्ड्र्यूज के प्रयत्नों से आजन्म कारावास में बदल दिया गया, किन्तु रामप्रसाद बिस्मिल जीवन पर्यन्त अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे। इस प्रतिज्ञा के बाद उनका एक नया जीवन प्रारम्भ हुआ। पहले वह एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार के पुत्र थे, इसके बाद वह आर्यसमाज से प्रभावित हुए और एक सच्चे सात्त्विक आर्यसमाजी बने तथा इस प्रतिज्ञा के बाद उनका जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित हो गया।
कुछ दिनों के बाद गुरू सोमदेवजी का देहान्त हो गया। तब रामप्रसाद नवीं कक्षा में थे। शाहजहाँपुर सेवा-समिति में वे एक उत्साही स्वयंसेवक की भाँति काम कर रहे थे। कुमार सभा के टूट जाने पर भी उसका शहर की जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ चुका था। लखनऊ में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन के साथ ही 'अखिल भारतीय कुमार सभा' का भी वार्षिक सम्मेलन होने वाला था। राम प्रसाद इसमें भाग लेने के इच्छुक थे। इसमें भाग लेने पर कांग्रेस का अधिवेशन देखने का भी अवसर मिल जाता। उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने घर वालों के सामने रखी, किन्तु उनके पिताजी तथा दादाजी इससे सहमत नहीं हुए। दोनों ने इसका प्रबल विरोध किया, केवल उनकी माताजी ने ही उन्हे वहाँ भेजने का समर्थन किया। उन्होंने पुत्र को वहाँ जाने के लिए खर्चा भी दिया, जिसके कारण उन्हें पति की डाँट-फटकार का भी सामना करना पड़ा। राम प्रसाद लखनऊ गए तथा अखिल भारतीय कुमार सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में लाहौर तथा शाहजहाँपुर की कुमार सभाओं को ही सबसे अधिक पुरस्कार प्राप्त हुए। देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने इस समाचार को प्रकाशित किया था।
उस समय काँग्रेस में दो गुट थे। एक गुट में उदावादी नेता थे जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सीधी कार्रवाई के विरोधी थे और ब्रिटिश सरकार के समक्ष भारत की कठिनाइयाँ रखकर न्याय प्राप्त करने के पक्ष में थे। उनकी यह धारणा भी थी कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग बना रहे। दूसरा गुट 'गर्मदल' के नाम से विख्यात था, जिसके नेता ब्रिटिश सरकार से लड़कर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति के पक्षधर थे। इस गुट के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी थे। तिलक भी लखनऊ अधिवेशन में भाग लेनेवाले थे, इसलिये उग्रवादी गरम दल की विचारधारा के युवक कार्यकर्ता बड़ी संख्या में वहाँ आये थे। स्वागत समिति में उदारवादियों का बहुमत था, इसीलिये तिलकजी के स्वागत का उन्होंने कोई खास इन्तजाम नहीं किया था। कुछ गिने-चुने लोग उन्हें लेने के लिये स्टेशन जानेवाले थे।
उधर युवकों की इच्छा थी कि स्टेशन से ही तिलकजी को जुलूस के साथ नगर में घुमाते हुए ले जाया जाये। वे बड़ी संख्या में स्टेशन पर एकत्र हुए थे। एम. ए. का एक छात्र उनका नेतृत्व कर रहा था। जैसे ही तिलकजी गाड़ी से नीचे उतरे, स्वागत समिति के कार्यकर्ताओं ने उन्हें घेर लिया और बाहर खड़ी कार तक उनको ले गये। एम. ए. का वह छात्र तथा रामप्रसाद फौरन आगे बढे और कार के सामने जाकर बैठ गये। यदि यह कार चलेगी तो हमारे शरीर के ऊपर से, उन्होंने ऐलान कर दिया था। स्वागत समिति के कायकर्ताओं तथा स्वयं तिलकजी ने उन्हें मनाने की कोशिश की मगर ये टस से मस न हुए। उनके मित्रों ने कहीं से एक बग्घी का इंतजाम किया था। उसके घोडे खोल दिये गये और युवक स्वयं बग्घी खींचने वाले थे। आखिर तिलकजी को बग्घी में बैठना पड़ा। उनका भव्य जुलूस निकाला गया और पूरे रास्ते में उनपर फूलों की वर्षा की गई।
काँग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में रामप्रसाद 'गुप्त समिति' के कुछ सदस्यों से मिले, जो क्रांतिकारी गतिविधियों में बडे महत्व की भूमिका निभा रही थी। एक वर्ष पूर्व ही रामप्रसाद में क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति उमड़ पड़ी थी और इस मुलाकात ने उनकी भावनाओं को आधार दे दिया। शीघ्र ही वे क्रांतिकारियों की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन गये। समिति के पास धन की कमी थी और शस्त्रास्त्र खरीदने के लिये उसे काफी धन चाहिये था। रामप्रसाद ने सुझाव दिया कि वे क्रांतिकारियों के विषय में लिखी गई पुस्तकें बेचेंगे, जिससे उन्हें धन तो मिलेगा ही, क्रांतिकारियों के विचारों का प्रसार भी होगा। उन्होंने अपनी माँ से कर्ज के रूप में ४०० रूपये लिये और एक पुस्तक 'अमरीका ने आजादी कैसे पाई?' प्रकाशित की। इसी बीच गेंदालाल दीक्षित नामक एक क्रांतिकारी नेता को ग्वालियर में बन्दी बना लिया गया था। रामप्रसाद अधिक से अधिक नागरिकों को इस गिरफ्तारी की जानकारी देकर, गेंदालाल के प्रति सहानुभूति जगाने के इच्छुक थे। उन्होंने एक पर्चा प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था 'मेरे देशवासियों को एक सन्देश'| पुस्तकों के इस व्यापार में रामप्रसाद ने न केवल अपनी माँ से लिया हुआ कर्ज लौटाया, बल्कि उन्हें दो सौ रूपयों का लाभ भी हो गया। तत्कालीन संयुक्त प्रांत सरकार ने इन दोनों पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया।
पुस्तकें छापने से क्रांतिकारियों को धन मिला और उन्होंने शस्त्र खरीद लिये। रामप्रसाद ने ग्वालियर में घूमते हुए एक रिवाल्वर खरीदा और इससे उत्साहित होकर कुछ ही समय बाद वे फिर से ग्वालियर गये और कुछ पिस्तौलें और चाकू खरीदे। धीरे धीरे उन्हें शस्त्रों के बारे में काफी जानकारी हो गयी कि कौन सा शस्त्र पुराना है और कौन सा नया। हर हथियार की कीमत भी उन्हें मालूम हो गई थी। उनके प्रयासों से राइफलों, रिवाल्वरों, कारतूसों, चाकू-छूरियों सहित अनेक शस्त्र क्रांतिकारियों ने जमा कर लिये। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अधिवेशन दिल्ली में होने वाला था। रामप्रसाद ने सोचा कि 'अमरीका को आजादी कैसे मिली', शीर्षक पुस्तक बेचने का यह अच्छा मौका है। शाहजहाँपुर सेवा समिति की ओर से अधिवेशन के लिये एम्बुलेंस दल के रूप में क्रांतिकारी गये ताकि दिल्ली में घूमने-फिरने में उन्हें तकलीफ न हो। संयुक्त प्रान्त सरकार पुस्तक पर पाबन्दी लगा चुकी थी। इसी बात का प्रचार करते हुए, शाहजहाँपुर के युवकों ने पुस्तक बेचना आरम्भ किया। वे कहते थे-“अमरीका को आजादी कैसे मिली ? संयुक्त प्रान्त सरकार ने जिस पुस्तक पर रोक लगा दी है-उसे पढ़िये।”
खुफिया पुलिस के ध्यान में तुरन्त यह बात आ गई। उन्होंने काँग्रेस के शिविर को घेर लिया और पुस्तकों की बिक्री करने वाले युवकों की खोज करने लगी। रामप्रसाद को फौरन उसकी गंध मिल गई और अपनी त्वरित बुद्धि से रामप्रसाद ने पुस्तकों की सभी प्रतियाँ बचा लीं और बाद में सब बेच डाली गई। जब रामप्रसाद दिल्ली से शाहजहाँपुर लौटे तो उन्हें पता चला कि पुलिस उनको तथा उनके दोस्तों को खोज रही है। रामप्रसाद को इस विषय में सब कुछ पता चल गया तो वे अपने तीन दोस्तों के साथ शाहजहाँपुर छोड़कर रवाना हो गये। कुछ दिन यहाँ-वहाँ घूमकर ये लोग प्रयाग पहुँचे और फिर अपनी माँ के पास चले गये। उनकी माँ ने सुझाव दिया कि वे ग्वालियर रियासत में अपने सम्बन्धियों के यहाँ चले जायें। पर राम प्रसाद ने वर्तमान नोएडा के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर (रामपुर जहाँगीर) में शरण ली और कई महीने यहाँ के निर्जन जंगलों में घूमते हुए गाँव के गुर्जर लोगों की गाय भैंस चराईं।
इसका बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा के द्वितीय खण्ड : स्वदेश प्रेम (उपशीर्षक – पलायनावस्था) में किया है। यहीं रहकर उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास बोल्शेविकों की करतूत लिखा। वस्तुतः यह उपन्यास मूलरूप से बांग्ला भाषा में लिखित पुस्तक निहिलिस्ट-रहस्य का हिन्दी – अनुवाद है जिसकी भाषा और शैली दोनों ही बड़ी रोचक हैं। अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बांग्ला पुस्तक यौगिक साधन का हिन्दी – अनुवाद भी उन्होंने भूमिगत रहते हुए ही किया था। यमुना किनारे की खादर जमीन उन दिनों पुलिस से बचने के लिये सुरक्षित समझी जाती थी अत: बिस्मिल ने उस निरापद स्थान का भरपूर उपयोग किया। वर्तमान समय में यह गाँव चूँकि ग्रेटर नोएडा के बीटा वन सेक्टर के अन्तर्गत आता है अत: उत्तर प्रदेश सरकार ने रामपुर जागीर गाँव के वन विभाग की जमीन पर उनकी स्मृति में अमर शहीद पं० राम प्रसाद बिस्मिल उद्यान विकसित कर दिया है, जिसकी देखरेख ग्रेटर नोएडा प्रशासन के वित्त-पोषण से प्रदेश का वन विभाग करता है।
बिस्मिल की एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी स्थान पर अधिक दिनों तक ठहरते न थे। कुछ दिन रामपुर जागीर में रहकर अपनी सगी बहन शास्त्री देवी के गाँव कोसमा जिला मैनपुरी में भी रहे। मजे की बात यह कि उनकी अपनी बहन तक उन्हें पहचान न पायीं। कोसमा से चलकर बाह पहुँचे कुछ दिन बाह रहे फिर वहाँ से पिनहट, आगरा होते हुए ग्वालियर रियासत स्थित अपने दादा के गाँव बरबई (जिला मुरैना मध्य प्रदेश) चले गये और वहाँ किसान के भेस में रहकर कुछ दिनों हल भी चलाया। जब अपने घर वाले ही उन्हें न पहचान पाये तो बेचारी पुलिस की क्या मजाल! पलायनावस्था में रहते हुए उन्होंने १९१८ में प्रकाशित अँग्रेजी पुस्तक दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन का इतना अच्छा हिन्दी अनुवाद किया कि उनके सभी साथियों को यह पुस्तक बहुत पसन्द आयी। इस पुस्तक का नाम उन्होंने कैथेराइन रखा था। इतना ही नहीं, बिस्मिल ने सुशीलमाला सीरीज से कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित कीं थीं जिनमें मन की लहर / राम प्रसाद बिस्मिल नामक (कविताओं का संग्रह), कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी – कैथेराइन ब्रश्कोवस्की की संक्षिप्त जीवनी, स्वदेशी रंग व उपरोक्त बोल्शेविकों की करतूत नामक उपन्यास प्रमुख थे। स्वदेशी रंग के अतिरिक्त अन्य तीनों पुस्तकें आम पाठकों के लिये आजकल पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं। गणेश-शंकर विद्यार्थी के पत्र 'प्रभा' में भी रामप्रसाद की रचनायें छपती थीं। 1919 में जब प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ तब भारत सरकार ने राष्ट्रीय आँदोलनों तथा क्रांतिकारियों के प्रति अपनी नीति में बदलाव किया। राजनैतिक मुकदमे वापस लिये गये। बंदियों को छोड़ा जाने लगा। रामप्रसाद शाहजहाँपुर लौट आये।
बिस्मिल की वैचारिक क्षमता और चिंतन को विजय कुमार के छद्म नाम से दि रिवोल्यूशनरी शीर्षक से अँग्रेजी में प्रकाशित उनके दल की विचार-धारा के घोषणापत्र से भी भली-भाँति समझा जा सकता है। क्रान्तिकारी पार्टी की ओर से १ जनवरी १९२५ को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित एवं २८ से ३१ जनवरी १९२५ के बीच समूचे हिन्दुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित ४ पृष्ठ के इस पैम्फलेट “दि रिवोल्यूशनरी” में राम प्रसाद बिस्मिल ने साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गान्धी जी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न भी किया था कि जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक कहता है वह अँग्रेजों से खुलकर बात करने में डरता क्यों है? उन्होंने हिन्दुस्तान के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेषी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए उनकी क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल हो कर अँग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आवाहन किया था।
रामप्रसाद की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। एक बहन का विवाह करना था। इसकी बात तो दूर, रोज की जरूरतें पूरी करने में भी बड़ी कठिनाई सामने आ रही थी। इसीलिये रामप्रसाद ने परिवार की तरफ ध्यान दिया। सर्वप्रथम उन्होंने अपने प्रकाशन व्यवसाय के सहारे धन कमाने की कोशिश की, मगर उसमें उनको सफलता नहीं मिली। कुछ दोस्तों की सहायता से रामप्रसाद ने एक कारखाने में मैनेजर की नौकरी की। इस स्थायी आय से परिवार की हालत कुछ सुधरी। रामप्रसाद ने कुछ धन इकट्ठा किया और रेशम बुनाई कारखाना खोला। अथक परिश्रम से डेढ़ वर्ष के भीतर उनका कारखाना चल निकला। उसमें 3-4 हजार रूपये की पूँजी लगाई गई थी। उससे उन्हें करीब दो हजार रू. का लाभ हुआ। इसी अवधि में उन्होंने अपनी बहन का विवाह एक जमींदार से कर दिया। उनकी माँ की इच्छा थी कि वे भी विवाह कर लें पर उन्होंने कहा कि “जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा न हो जाऊँ, मैं विवाह नहीं करूँगा।”
1921 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन समाप्त किया तो क्रांतिकारी आन्दोलन को मजबूती मिली। 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' के नाम से बाकायदा एक क्रांतिकारी दल गठित किया गया। अपने व्यवसाय को सुदृढ़ बनाकर सारा कारोबार एक मित्र को सौंप देना रामप्रसाद क्रांतिकारी गतिविधियों में फिर से शामिल हो गये। क्रांतिकारी आन्दोलन को आम जनता से समर्थन प्राप्त था। कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी, किंतु अड़चन पैसों की थी। जो लोग आन्दोलन से जुडे थे, उन्हें खाने-पीने के साधन या वस्त्र जुटाकर देना भी बड़ा कठिन हो गया था। हथियार इकट्ठा करना और भी मुश्किल था। निराश युवक ऐसी हालत में अक्सर रामप्रसाद के पास आते और उनसे सलाह माँगते। 'पण्डित जी, अब हमें क्या करना चाहिये', उनका सवाल होता। रामप्रसाद इस दुरवस्था से बडे चिंतित रहा करते। पैसे के अभाव में वे खुद भी क्या कर सकते थे, इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने धन एकत्र करने पर ध्यान दिया।
क्रांतिकारियों की टोलियों ने और कोई रास्ता न देखकर एक-दो गांवों में डाके डालना शुरू कर दिया, पर उसमें भी सौ-दो सौ रूपये ही मिल पाते। रामप्रसाद को एक और चिन्ता सता रही थी कि आखिर जिनका माल लूटा जाता है, वे कौन हैं? हमारे ही तो भाई-बंधु हैं न? ये ग्रामीण भी तो भारतमाता की ही सन्तानें हैं। क्रांतिकारियों का डाके डालने के पीछे देश को आजाद कराने का मकसद था मगर खुद अपने भाइयों को हैरान करके पैसा जमा करना कहाँ तक न्यायपूर्ण है? इन्हीं विचारों में खोये रामप्रसाद एक दिन रेल से यात्रा कर रहे थे। वे शाहजहाँपुर से लखनऊ जा रहे थे। हर स्टेशन पर जब गाड़ी ठहरती तो वे उतरकर प्लेटफार्म पर टहलते। उन्होंने देखा कि हर एक स्टेशन पर स्टेशन मास्टर रूपयों से भरा थैला लाते और गाड़ी के डिब्बे में रख देते। धन की सुरक्षा के लिये विशेष रक्षक भी तैनात नहीं थे। रामप्रसाद को पता चला कि वह आठ डाऊन गाड़ी थी। बस, यह दृश्य देखकर ही रामप्रसाद के मन में क्रांतिकारी आन्दोलन के लिये धन जमा करने की योजना बन गई और यही बना इतिहास प्रसिद्द काकोरी कांड की आधारशिला।
वह 9 अगस्त 1925 की शाम थी, जब आठ डाऊन रेलगाड़ी लखनऊ के पास के एक छोटे से स्टेशन काकोरी के निकट से गुजर रही थी। रामप्रसाद और उनके नौ क्रांतिकारी साथियों ने जंजीर खींचकर गाड़ी रोक दी। उन्होंने सरकारी धन लूट लिया जोकि गाड़ी के डिब्बे में रखा था। अचानक चली गोली से एक यात्री की मृत्यु हो गई, इसके अलावा कहीं खून-खराबा नहीं हुआ। इस सुनियोजित डकैती से सरकार भौंचक रह गई। एक माह तक प्रारंभिक छानबीन के बाद सरकार ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये जाल फैलाने की पूरी तैयारी कर ली। डाका डालने वाले दस क्रांतिकारियों को ही नहीं अपितु हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के अन्य नेताओं के नाम पर भी वारण्ट जारी कर दिये गये। चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर शेष वे सभी क्रांतिकारी पकड़ लिये गये, जिन्होंने रेल लूटी थी। डेढ़ वर्ष तक मुकदमा चला, जिस दौरान हुए एक किस्से को बताने से मैं स्वयं को नहीं रोक पा रहा हूँ।
लखनऊ में चल रहे काकोरी काण्ड के मुक़दमे में पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील थे, जो साथ-साथ उर्दू के एक उम्दा शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए “मुल्जिमान” की जगह “मुलाजिम” शब्द बोल दिया। फिर क्या था पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी:–
“मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है,
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं।
पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से,
कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।”
उनके कहने का मतलब स्पष्ट था कि मुलाजिम बिस्मिल नहीं, मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं, मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज? इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप वहां से खिसक लिये और फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं। ऐसे हाजिरजबाब थे बिस्मिल!
प्रिवी कौन्सिल से अपील रद्द होने के बाद फाँसी लगने की तिथि 19 दिसम्बर 1927 की सूचना गोरखपुर जेल में बिस्मिल को दे दी गयी थी किन्तु वे इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा, जिसे उन्होंने निज जीवन की एक छटा नाम दिया था, पूरी करने में दिन-रात डटे रहे,एक क्षण को भी न सुस्ताये और न सोये। उन्हें यह पूर्वाभास हो गया था कि बेरहम और बेहया ब्रिटिश सरकार उन्हें पूरी तरह से मिटा कर ही दम लेगी। तभी तो उन्होंने आत्मकथा में एक जगह उर्दू का यह शेर लिखा था –
“क्या हि लज्जत है कि रग-रग से ये आती है सदा,
दम न ले तलवार जब तक जान 'बिस्मिल' में रहे।”
जब बिस्मिल को प्रिवी कौन्सिल से अपील खारिज हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने अपनी एक गजल लिखकर गोरखपुर जेल से बाहर भिजवायी जिसका मत्ला (मुखड़ा) यह था –
“मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या!
दिल की बरवादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या!!”
जैसा उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा भी,और उनकी यह तड़प भी थी कि कहीं से कोई उन्हें एक रिवॉल्वर जेल में भेज देता तो फिर सारी दुनिया यह देखती कि वे क्या-क्या करते? उनकी सारी हसरतें उनके साथ ही मिट गयीं। हाँ, मरने से पूर्व अपनी आत्मकथा के रूप में वे एक ऐसी धरोहर हमें अवश्य सौंप गये जिसे आत्मसात् करके हिन्दुस्तान ही नहीं, सारी दुनिया में लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत की जा सकती हैं। यद्यपि उनकी यह अद्भुत आत्मकथा आज इण्टरनेट पर मूल रूप से हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है तथापि ये जानना आवश्यक है कि यह सब कैसे सम्भव हो सका।
जेल में बिस्मिल पर बड़ी सख्त नजर रखी जाती थी। इसके बाद भी उन्होंने न केवल किताब लिखी बल्कि बड़ी चतुराई से उसे जेल से बाहर भी भेज दिया। उन्होंने रजिस्टर जैसी मोटी किताबें प्राप्त कीं और एक-एक करके तीन हिस्सों में उसे सफलता के साथ जेल से बाहर भेजा। 17 दिसम्बर को किताब के आखिरी पन्ने लिखे गये और जैसा कि प्रारंभ में बताया गया है कि उनके माता पिता के साथ क्रांतिकारी शिव वर्मा भी उनसे मिलने एक विशेष प्रयोजन से आये थे, उन्हीं शिव वर्मा के माध्यम से वह भी बाहर भेज दिये गये। अब यह आत्मकथा किसके पास पहले पहुँची और किसके पास बाद में, इस पर बहस करना व्यर्थ होगा। बहरहाल इतना सत्य है कि यह आत्मकथा उस समय के ब्रिटिश शासन काल में जितनी बार प्रकाशित हुई, उतनी बार जब्त हुई।
गणेशशंकर विद्यार्थी जी के प्रताप प्रेस कानपुर से काकोरी के शहीद नामक पुस्तक के अन्दर जो आत्मकथा प्रकाशित हुई थी उसे ब्रिटिश सरकार ने न केवल जब्त किया अपितु अँग्रेजी भाषा में अनुवाद करवाकर समूचे हिन्दुस्तान की खुफिया पुलिस व जिला कलेक्टर्स को सरकारी टिप्पणियों के साथ भेजा भी था कि इसमें जो कुछ राम प्रसाद बिस्मिल ने लिखा है वह एक दम सत्य नहीं है। उसने सरकार पर जो आरोप लगाये गये हैं वे निराधार हैं। कोई भी हिन्दुस्तानी, जो सरकारी सेवा में है, इसे सच न माने। इस सरकारी टिप्पणी से इस बात का खुलासा अपने आप हो जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने बिस्मिल को इतना खतरनाक षड्यन्त्रकारी समझ लिया था कि उनकी आत्मकथा से उसे सरकारी तन्त्र में बगावत फैल जाने का भय हो गया था।
वर्तमान में यू० पी० के सी० आई० डी० हेडक्वार्टर, लखनऊ के गोपनीय विभाग में मूल आत्मकथा का अँग्रेजी अनुवाद आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। बिस्मिल की जो आत्मकथा काकोरी षड्यन्त्र के नाम से वर्तमान पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में तत्कालीन पुस्तक प्रकाशक भजनलाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस,सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान) से पहली बार सन 1927 में बिस्मिल को फाँसी दिये जाने के कुछ दिनों बाद ही प्रकाशित कर दी थी वह भी सरफरोशी की तमन्ना ग्रन्थावली के भाग- तीन में अविकल रूप से सुसम्पादित होकर सन् 1997 में आ चुकी है। यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ आर्यसमाजी लोगों ने इसे पुन: प्रकाशित कराया। इस पुस्तक में रामप्रसाद ने अपने बारे में बडे विस्तार से सब कुछ लिखा है। उसमें अपने पूर्वजों, बचपन की मधुर और दिलचस्प घटनाओं, आर्य समाज में प्रवेश, पुलिस को छकाकर यहाँ-वहाँ भागना, क्रांतिकारी आन्दोलन में अपने अनुभव, साथियों से मतभेद आदि का विवरण इस कृति में है। पुस्तक में इस अमर शहीद की माता के दुर्लभ चित्र, दादी, शिक्षक और गहरे दोस्तों के चित्र भी है। पुस्तक बहुत ही सुन्दर शैली में लिखी है तथा कुछ घटनायें पढ़कर तो आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं।
काकोरी कांड में रामप्रसाद, अशफाकुल्ला, रोशनसिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी चारों क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाई गई थी। देशभर में इन लोगों के प्राण बचाने के लिए व्यापक अभियान चलाया गया और सभी सभी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार से अपील की कि इन युवकों के साथ दया का बर्ताव किया जाये; मगर सरकार अपने फेसले पर अडिग रही। 18 दिसंबर 1927 को राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी दे दी गई। रामप्रसाद व अशफाकुल्ला 19 दिसम्बर को और दूसरे दिन रोशनसिंह फाँसी पर चढा दिये गये। फांसी के कुछ दिन पहिले उन्होंने अपने एक मित्र के पास एक पत्र भेजा था उसमें उन्होंने लिखा थाः 19 तारीख को जो कुछ होने वाला है उसके लिये मैं अच्छी तरह तैयार हूं। यह है ही क्या ? केवल शरीर का बदलना मात्र है । मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि तथा उसकी दीन सन्तति के लिये नये उत्साह और ओज के साथ काम करने के लिए शीघ्र ही फिर लौट आयेगी ।
19 दिसम्बर 1927 की प्रात: बिस्मिल नित्य की तरह चार बजे उठे। नित्यकर्म, स्नान आदि के बाद संध्या उपासना की। अपनी मां को पत्र लिखा और फिर महाप्रयाण बेला की प्रतिज्ञा करने लगे। नियत समय पर बुलाने वाले आ गए। 'वन्दे मातरम' तथा 'भारत माता की जय' का उद्घोष करते हुए बिस्मिल उनके साथ चल पड़े और बड़े मनोयोग से गाने लगे-
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे।
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।
फांसी के तख्ते के पास पहुँचे। तख्ते पर चढ़ने से पहले उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की- I Wish the downfall of British Empire अर्थात 'मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूँ'| इसके बाद उन्होंने परमात्मा का स्मरण करते हुए निम्नलिखित वैदिक मंत्रों का पाठ किया- ऊं विश्वानि देव सावितर्दुरितानि परासुव।यद् भद्रं तन्न आ सुव। अर्थात ”हे परमात्मा! सभी अच्छाइयाँ हमें प्रदान करो और बुराइयों को हमसे दूर करो' इत्यादि मंत्रों का पाठ करते हुए वह फांसी के फंदे पर झूल गये।
जब रामप्रसाद को फाँसी दी जा रही थी तब जेल के आसपास कड़ा पहरा था। उसकी मृत्यु के बाद अधिकारियों ने उसका शव काल-कोठरी से बाहर निकाला। जेल के बाहर उसके माता-पिता ही नहीं अपितु सैकडों नर-नारी सजल नेत्रों के साथ खडे थे। गोरखपुर के नागरिकों ने भारत माँ के इस वीर सपूत के शव को फूलों से सजाया। एक बडे जुलूस की तरह उसकी शवयात्रा निकाली गयी। रास्ते में असंख्य नर-नारियों ने शव पर पुष्प बरसाये और इस तरह इस बलिदानी सपूत का अंतिम संस्कार किया गया। रामप्रसाद उन गिने-चुने शहीदों की श्रेणी में जा पहुँचे थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत का सपना साकार करने के लिये अपना जीवन बलिदान किया था और अपनी अंतिम सांस तक यही प्रयास किया कि किसी न किसी तरह यह देश आजाद हो।
रामप्रसाद बिस्मिल वीरों की भाँति जीये और वीरों की तरह ही उन्होंने मृत्यु को गले लगाया। उन्होंने अपने क्रांतिकारी कार्यों से तो ब्रिटिश सरकार की नाक में दम किया ही, अपनी क़लम के माध्यम से भी ब्रिटिश हुक़ूमत की आँख की किरकिरी बन गए। 'सरफ़रोशी की तमन्ना' जैसा अमर गीत लिखकर उन्होंने क्रांति की वो चिंगारी छेड़ी जिसने ज्वाला का रूप लेकर ब्रिटिश शासन के भवन को लाक्षागृह में परिवर्तित कर दिया। राम प्रसाद बिस्मिल ने 'बिस्मिल अज़ीमाबादी' के नाम से भी काफ़ी शाइरी की। रामप्रसाद का उपनाम 'बिस्मिल' था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे। इसी नाम से हिन्दी साहित्य जगत में वे एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि के रूप में विख्यात हुए। अपनी जीवनी के अन्त में उन्होंने कुछ चुनी हुई कविताऐं लिखीं है। उनकी कविता की एक-एक पंक्ति में देशभक्ति की भावना स्पष्ट झलकती है। उनकी एक कविता यहाँ प्रस्तुत करने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पा रहा हूँ।
यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्त्रों बार भी,
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान मैं लाउं कभी ।
हे ईश, भारतवर्ष में शतबार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ।।
मरते बिसमिल रोशन, लहरी, अशफाक, अत्याचार से,
होंगे पैदा सैकड़ों उनके रूधिर की धार से ।।
उनके प्रबल उद्योग से उद्धार होगा देश का,
तब नाश होगा सर्वथा दुख शोक के लवकेश का ।।
बिस्मिल ने कहा था–“यदि मातृभूमि के लिये मुझे हजार बार मौत को गले लगाना पड़ा तो भी मुझे दुख नहीं होगा। हे प्रभू ! मुझे भारत में सौ बार जन्म दो ! परन्तु मुझे यह वरदान भी दो कि हर बार मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में ही लगे।” यही प्रार्थना स्वतंत्र भारत के हर नागरिक के हृदय में बसी होती और उसकी ध्वनि हमारे कानों में गुंजित हो रही होती तो आज हम इस पतन का शिकार नहीं होते। इस अमर बलिदानी को शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|