पौरुष का पर्याय
पौरुष का पर्याय
वह तेज पुंज, वैदिक विचारधारा के संरक्षण हेतु सतत जागरूक प्रहरी, धर्माघात करने वालों के हृदयों को जिनकी वाणी पाञ्चजन्य की ध्वनि सम विदीर्ण करती रही सहसा ही हमारे मध्य नहीं रहा . “ऊर्जा के स्त्रोत” अमर धर्मवीर को हमसे विमुख हुए २ वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन वह रिक्त स्थान यथावत है उसकी पूर्ति वर्तमान परिस्तिथियों में दुष्कर प्रतीत हो रही है एवं इस वास्तविकता का निरन्तर भान कराती है.
शिवाजी की भूमि पर स्वात्रंत्र प्रेमी ऋषि भक्त पण्डित भीमसेन जी के घर जन्मा यह बालक कपिल कणादि जैमिनी से दयानन्द पर्यंत ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी सोम का पान कर , शश्त्र शाश्त्रों से सुसज्ज्ति धर्म पर स्व एवं परकीयों द्वारा हो रहे आघातों से आकुल ह्रदय लिय वह धर्मरक्षक योद्धा इस समर भूमि में सर्वस्व न्योछावर कर अम्रत्व्य को प्राप्त हो गया .
उनका जीवन, कर्म क्षेत्र, घर्म क्षेत्र, समर क्षेत्र में अधर्मियों के कृत्यों से पीड़ित होने के उपरान्त अंगद सम धर्म पथ पर अटल रहने का उद्धरण प्रदर्शित करता हुआ अनंत काल तक युवकों को प्रेरणा देता हुआ कीर्ति पुंज है उनका जीवन दर्शन अगणित ऐसी घटनाओं से शोभित है जो धर्म पथगामियों को सदा ही प्रेरित करता रहेगा.
आरोप पत्र या अभिनन्दन पत्र: भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि विदेशियों की विजय पताका फहराने में सहायक स्वजन ही थे बिना उसके इस धर्म भूमि पर परकीयों के वर्चस्व का ध्वज कैसे गगन चूम सकता था !
हमने ही स्वयं की तलवारों से स्व बान्धवों के रक्त का पान कर इस मातृभूमि को विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया . भला आर्य समाज इस रोग से ग्रसित होने से कहाँ रह सकता था ? लाला मूलराज आदि के द्वारा बोया गया यह परजीवी पौधा, मानस पुत्रों को जन्म देता रहा और वैदिक धर्म के प्रचार में अभिनव प्रयोग कर अनेकों बाधाएं पग पग पर वैदिक धर्म के दीवानों के रास्ते में खडी की गयी.
धर्मवीर जी का जीवन इससे अछुता नहीं था . आचार्य रामचंद्र जी ने ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है की अधिकारियों ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण दयानन्द कॉलेज अजमेर से आपकी सेवाओं को निलम्बित कर दिया . आपके विरुद्ध जो आरोप पत्र जारी किया गया वह भी वास्तव में आपके कार्यों के महत्व का , आपके दृढ चरित्र का एक प्रमाण पत्र है . उसमें आरोप लगाया लगाया था – १. आप परोपकारिणी सभा का कार्य करते हें .२ आप परोपकारी पत्रिका का संपादन करते हैं ३. आप आर्य समाज का प्रचार करते हैं . इस पत्र को पढ़कर अचम्भित होना स्वाभाविक ही है कि ये अभिनन्दन पत्र है या आरोप पत्र !
धर्मवीर जी परिस्थियों से घबराने का नाम नहीं है धर्मवीर वह ज्वाला है जो तम आवृत जग के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करती रही. क्या ये यातनाएं धर्मवीर को पथ से विचलित कर सकती थी ? क्या ये यातनाएं वेदनाएं उनके साहस को चूर चूर करने में सक्षम थीं ? वह ऋषि भक्ति के लिए समर्पित योद्धा विश्व के वैभव लालसाओं का त्याग कर चुका था . ऋषि दयानन्द ही उसके लिए सर्वस्व था .
जीत की हार : श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य धर्मवीर जी की जीवनी में एक घटना का उल्लेख किया है कि जब प्राचार्य वाब्ले धर्मवीर जी को अपमानित करने व कुचलने पर तुला हुआ था उन्ही दिनों उसने अहंकार में आकर धर्मवीर जी से कहा “ मैं यदि तुम्हें निकाल दूँ तो सुप्रीम कोर्ट भी तुम्हें नहीं रखवा सकता “
जितने भरपूर अहंकार में पाचार्य वाब्ले ने धर्मवीर जी को धमकी देकर डराया और उनका मनोबल गिराना चाहा उतने ही अटल ईश्वर – विश्वास तथा आत्मबल से आपने उसे तत्काल उत्तर दिया “ मैं मनुष्य को भगवान् नहीं मानता और अजमेर को सकल सृष्टि नहीं मानता “
प्रखर ऋषिभक्ति: धर्मवीर जी महाराणा प्रताप के साहस अभिमन्यु के महान पौरुष की प्रतिमूर्ति थे .भला वह इन वज्र सम विपदाओं से कहाँ विचलित हो सकते थे . ऋषि मार्ग के पथिक का समझौता वादी व्यक्तित्व न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों वे स्वयं विपदाओं को आमन्त्रित कर रहे हों . ये जग उन्हीं धर्मवीरों का गायन करता है जो विपदाओं की परवाह किये बिना प्राण हथेली पर लिए रण भूमि में अर्जुन के गांडीव की तरह गुंजायमान हो रिपु दल के हृदयों को विदीर्ण कर विजय रस का पान करते हैं .
आचार्य धर्मवीर जी की इस विशेषता से कोई अभागा ही हो जो परिचित न हो . वैदिक धर्म पर यदि कहीं भी प्रहार होता था तो उनकी आत्मा कम्पायमान हो उठती थी, उनका ह्रदय वेदना से भर उठता था और कभी ऐसा न हुआ कि वैदिक धर्म पर प्रहार हुआ हो और धर्म रक्षक धर्मवीर की लेखनी न चली हो .
ऐसी ही घटना का “ धौलपुर सत्यागृह शताब्दी यात्रा “ के समय सभा के मंत्री श्री ॐ मुनि जी ने वर्णण किया कि एक दर्शनाचार्य ने ऋषी दयानन्द अब अप्रसान्गिक हो गए हैं, यदि अधिक लोगों को आकर्षित करना है तो ऋषि दयानंद का नाम मंच से न लिया जाये ऐसा कहने का दुस्साहस किया . इस घटना को दो और सज्जनों ने शब्द भेद, यथा “ऋषि दयानंद का नाम बदनाम हो गया है अतः प्रचार को संकुचित न करने के लिए इस नाम को प्रयोग न किया जाये” , के साथ सुनाया .
जिस धर्मवीर का रोम रोम ऋषि भक्ति के रंग में रंगा हुआ था जो ऋषि दयानन्द के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रतिपल सहर्ष तैयार था वह भला कहाँ ये सुन के चुप रह सकता था . ऋषि के लिए स्वजनों ने ऐसे शब्द सुनते ही उनके ह्रदय में प्रबल प्रचण्ड धधकती हुयी ज्वाला जाग्रत होना स्वाभाविक ही था. धर्मवीर जी ने काल सम तुरन्त ध्वनियंत्र को लेकर सिंह गर्जना करते हुए कहा कि आपने जो शब्द अभी बोले हैं क्या वो दोहरा सकते हो ? सभा में सन्नाटा छा गया ! इस धधकती हुयी ज्वाला का सामना कौन करे . दर्शनाचार्य को माफी मांगनी पडी.
धर्म पर प्रतिवाद विश्व के किसी भी कौने में हो , चाहे वो ईसाईयों का “ पवित्र ह्रदय “ पत्रिका , जमाअते इस्लामी के “ कांति “ मासिक का पुनर्जन्म खंड विशेषांक , रामपाल का ऋषि के प्रति विष वमन या स्वजनों का द्रोहराग धर्मवीर जी की लौह लेखनी सदैव उद्वेग से आवेश से इनका प्रतिकार करती रही . श्रद्धेय राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखित “ अमर धर्मवीर “ में ऐसे अंकों उद्धरण उन्होंने दिए हैं. धर्मवीर जी विधर्मियों दारा धर्म पर कुत्सित प्रहार का बिना प्रतिकार लिए कहा चैन से बैठने वाले थे . धार्मिक गर्व पर अरि का प्रहार हो और जब तक प्राण हैं गौरव मर्दन कैसे हो सकता है .धर्मवीर जी भीम की गदा, अर्जुन के गांडीव, हिमगिरि सदृश्य रक्षक बन सदैव खड़े हो जाते थे. उस धीरता की प्रतिमा कोमल दृदय देव का पौरुष, क्षत्रित्व सदा जागृत रह मानो धर्म की रक्षार्थ प्रज्वलित ज्वाला लिए न केवल अम्बर को गुंजायमान कर रहा था अपितु अनेकों आर्य वीरों को सुप्तता से जगाने धर्म के प्रति सजग होने की प्रेरणा का निमित्त था.
धर्म पर प्रहार होने की स्तिथी में आर्य लोग केवल परोपकारिणी प्रत्रिका की तरह ही आशा लिए निहारते थे. उन्हें आभास था यह वो धर्मवीर पौरुष है जो किसी लोभ के वश मूक नहीं रह सकते यह वह नेता कथित योगी नहीं जो दिन रात निमग्न योगचिंतनादि में ही लीन रहे. अपितु वो तो वह वीर योद्धा है जिसकी तलवार कभी म्यान में नहीं सोती वह तो हर दुषाशन के लिए भीम का प्रतिशोध है हर हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह का प्रतिशोध है वह तो लेखराम जैसी धर्म धुन का धुनी है जो यज्ञ वेदी पर धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व समर्पित करने के लिए सदैव उद्धत है .
वैदिक सिद्धातों पर निष्कंप निष्ठायुक्त , ऋषि की वाटिका के पुष्पों के रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण का प्रण लिए ,स्वधर्मियों के अन्यायों से त्रसित वह विप्र, समर्पण का प्रतिकार करता हुआ , वज्र सम धर्म के मार्ग पर अविचल जीवन व्यतीत कर वर्तमान और भावी पीढी के लिए ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत कर गया जो अनेक धर्म रक्षकों के पथ को अंतरिक्ष में ध्रुव के सम द्वीपित करता रहेगा .
धर्मवीर प्रतिपल युवकों में गौरवमयी आर्यत्व चैतन्य भरने का प्रयास सतत करते रहते थे. उनका स्नेह उनका समर्पण युवकों को सदैव आकर्षित करता था. वह प्रतिभा के धनी गहन शोध, ऋषि भक्ति, देशभक्ति के पर्याय थे उनका जीवन स्वयं में एक दर्शन है. आज आवश्यकता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें उन धुन के धुनी बनें .