परिवार कल्याण के लिए माता-पिता व बुजुर्गों का दायित्व


बच्चे और युवा हमारे देश भारत के भविष्य हैं और वे आपकी आशा हैंउनको अपने परिवार, कल्याण तथा देश भारत के मान-सम्मान और आदर हेतु प्रारंभ से ही संस्कारवान् बनायें। स्वयं उदाहरण बनकर उनमें अच्छी-अच्छी आदतें डालें जो मानव को उचित-अनुचित का ज्ञान कराकर उसे सहज, मानवीय, आदर्श मानव बनकर आधुनिक समयानुकूल आचरण करने की प्रेरणा देंकभी-कभी हम, हम दो और हमारे दो के सिद्धांत के अनुसार उसे ही परिवार मान लेते हैं जिससे देश में एकल परिवार और मां-बाप से अलग रहने की प्रवृति पनप रही है। पर उसके लिए उत्तरदायी हम ही हैं। भारतीय ताय संस्कति में मनुष्य दैवी शक्ति है।


           जन्म लेने वाला प्रत्येक बालक अपनी तरह के संस्कार लेकर आता है। पर उन्हें नई दिशा देकर उपयोगी और परिपक्व बनाने का उत्तरदायित्व उस बालक का नहीं, माता-पिता, वरिष्ठजनों, परिवार और समाज का होता है। युवक तभी भटकते हैं, जब उन्हें वरिष्ठों से समुचित दिशा नहीं मिलती। हमें बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए, जिससे उनका चरित्र बने, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके व समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी हो। अतः अच्छी प्रकार की शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य निर्माण ही है। सारे संस्कारों व प्रशिक्षणों का अंतिम ध्येय मनुष्य का विकास करना ही है। विज्ञान ने मनष्य को मशीनें देकर उसकी उत्पादन क्षमता को बढ़ा दिया और कार्य को सहज बना दिया है परन्तु दूसरी ओर मनुष्य का हृदय - मशीन की तरह कठोर हो गया है। मन से दया, करूणा, सहृदयता और देशभक्ति की भावना उठ गई है। विज्ञान ने मनुष्य को बुद्धि का विकास तो दिया परन्तु बुद्धि की दिव्यता छीन ली है। उसने मनुष्य को बिजली और अणु शक्ति तो दी है परन्तु उससे आत्मिक शक्ति और देशभक्ति ले ली है।


          - स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, 'जो ज्ञान और संस्कार साधारण व्यक्ति को जीवन संग्राम में समर्थ नहीं बना सकता, जो मनुष्य में चरित्र-बल, परहित भावना, नैतिकता तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकता, वह भी क्या कोई ज्ञान (शिक्षा) हैज्ञान अन्तर्निहित है, वह बाहर से नहीं प्राप्त होता, संस्कारों से आता है।


          - महात्मा गांधी ने कहा था 'ज्ञान का अंतिम म लक्ष्य चरित्र निर्माण है और अच्छे चरित्र का आधार संस्कारयुक्त शिक्षा है, जो मनुष्य को देशभक्त बनाती है। संसार में कौन माता-पिता नहीं चाहेंगे कि उनके बच्चे सभ्य समाज की एक कड़ी बने, महान् देशभक्त बनें, उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप बनकर उनका तथा स्वयं का नाम उज्ज्वल करे। परन्तु आज के माता-पिता बच्चों को केवल धन-दौलत से सम्पन्न तो देखना चाहते हैं पर मानव नहीं बनाना चाहते, उनमें मानव मूल्य नहीं भरना चाहते। फिर यह सब कैसे होगा? इसके लिए बच्चों के सामने स्वयं अपने से बड़ों का के सामने स्वयं अपने से बड़ों का आदर और अभिवादन करें। इसके लिए माता-पिता क परिश्रम तथा अथक प्रयास व लगन के साथ बच्चे की नींव मजबूत बनानी होगी। उसमें परोपकार, शालीनता, प्रेम, संस्कार भरने होगें। दादा-दादी माता-पिता परिवार के ऐसे सदस्य होते हैं जिनके सम्पर्क में बच्चा सबसे अधिक रहता है। बचपन से लेकर ठीक से होश संभालने तक वह माता के ही पास रहता है।


                         जब बच्चा शिशु होता है, उसमें उचित संस्कार ठीक ढंग से लालन-पालन करते समय डालें। बच्चों में ऐसी भावना भरनी चाहिए कि वे अपने से बड़ों का सम्मान करें, उनसे शिष्टाचार के साथ बातें कर सकें। सादगी अपने आप में एक बहुत बड़ा गुण है। बच्चों को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए। बच्चों के पहनावे का विशेष ध्यान रखना चाहिए।


              भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर इसकी प्रतिमूर्ति थे। उनका उदाहरण हमें ' बच्चों को देना चाहिए। बच्चों में अनुशासन और आज्ञा पालन की प्रवृत्ति के विकास को उत्सुक माता-पिता, दादा-दादी, जब अनुशासन संबंधी आदेश-निर्देश रौब दिखाकर या दबाव डालते हुए देते हैं, उस समय उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि यह व्यवहार बच्चों और युवकों में विरोध-विद्रोह की भावना जगाएगा। यदि प्रारंभिक उपेक्षा के क्रम में बच्चे ने अनसुनी कर दी, तब तो उनमें अनुशासनहीनता के बीज शुरु से अंकुरित हो उठते हैं, जो भविष्य में घातक बनते हैं और अनादर करने की प्रवृत्ति आती है। बच्चों को आवश्यक रूप में बार-बार टोकना भी ठीक नहीं, क्योंकि बच्चे स्वभावतः चंचल होते है हैंबच्चों की सहज अनुकरण बुद्धि को सदा ध्यान में में रखना चाहिए। माता-पिता को भी बच्चों के सामने परस्पर शालीनता का व्यवहार करना चाहिए। कच्चे लोहे को पिघलाकर इस्पात ढालने की अपनी विधा होती है। पेटोलियम से मोबील आयल निकालते हैं। बच्चे के कंसस्कार वे चाहे कितने ही जन्मों से जड पकडे हए हों, उन्हें भी सुधारा और संवारा जाना बिल्कल आसान बात है, यदि हम ता. क्योंकि बच्चे को मनोवैज्ञानिक ढंग से शिक्षा व दिशा और वातावरण दे सकें। उदाहरणत: यदि बच् गाने एवं संगीत की प्रवृत्ति है तो उसे प्रेरणाप्रद राष्ट्रीय गीत गाने की, भजनों, कहानियों, नाटक और अच्छे गीत सिखाने की जिम्मेदारी बच्चों के पता और संबंधियों की हो इससे अभिवादनशीलता आती है। जिन बच्चों में आरंभ से माता-पिता वरिष्ठ जनों द्वारा सेवा की भावना का स्वस्थ विकास कर दिया जाता है, वे आगे चलकर अपने सेवा-भाव से समाज में प्रतिष्ठा के पात्र बन जाते हैं और समाज के आदर्श हो जाते हैं। राष्ट्रभक्ति सेवा-पथ से चलकर हजारों ऐसे व्यक्ति उन्नति के महान् शिखरों पर पहुंचे हैं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, भारत रत्न, मदन मोहन मालवीय, सुभाष चन्द्र बोस, दीनदयाल उपाध्याय, वीर सावरकर और लाल बहादुर शास्त्री, विनोबा भावे इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिन्होंने देशभक्ति की भावना सभी में जाग्रत की, अपने परिवार का कल्याण कर विश्व में परिवार का नाम अमर किया है। - महेश चन्द्र शर्मा


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