मनुष्य बनो

मनुष्य बनो



       वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए!


       एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उसे भेड़ की गर्दन पर फेर दिया। भेड़ की आत्मा दुःखी होकर उसे धिक्कारने लगी, "तूने मुझे भेड़िये से तो बचाया, परन्तु स्वयं मुझे खा रहा है तू भी तो भेड़िया ही निकला तुझमें और भेड़िये में केवल इतना ही अन्तर है कि तू शक्ल से तो मनुष्य है, परन्तु स्वभाव का है भेड़िया"।


       इसी तरह इत्यादि सम्प्रदाय भी यही कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि हम स्वयं से ही अनभिज्ञ हैं कि हम क्या हैं? यदि आपसे पूछा जाता है कि आप क्या हैं? तो आपका उत्तर होता है- हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आदि लेकिन अगर आपसे पूछा जाए कि इससे भी पूर्व क्या आप मनुष्य हो? तो उत्तर देंगे हां। पुनः पूछें- क्या मनुष्य कहलाने वाली सारे गुण आप में है? थोड़ा रुककर बोल तो देंगे हां लेकिन वास्तविकता यह नहीं होती। आज मानव दानव बन रहा है, मनुष्य ही मनुष्य का वैरी हो रहा है, हम बड़े गर्व से समाज को उपदेश देते हैं कि मैं ये हूँ तो तुम भी ये बनो क्योंकि यह अच्छा धर्म है इत्यादि लेकिन कोई यह उपदेश नहीं करता कि आप मनुष्य बनो अथवा मानव धर्म अपनाओ।


      मनुष्य का अर्थ यह नहीं कि पृथ्वी पर मनुष्य योनि में जन्म लिए, पैसा कमाया, सेवाओं का लाभ लिया और अन्त समय में अपना कमाया धन बांटकर या पीढ़ियों के विकास में लगाकर सभी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए अपितु मनुष्य तो वह होता है जो संघर्षशील हो, पुरुषार्थयुक्त हो, शिखा रखने वाला, नियमित यज्ञ करनेवाला व यज्ञोपवीत धारण करने वाला हो, वीर हो, संयमी हो, दयावान हो, पवित्र चरित्रों वाला हो, मननशील हो, धैर्यवान हो इत्यादि। कोई धर्म-ग्रन्थ यह उपदेश नहीं करता कि मनुष्य बनो लेकिन ईश्वरीय ज्ञान वेद भगवान् ही समस्त मानव जाति के कल्याण हेतु यह आदेश देते हैं-


तन्तुं तन्वन्नजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मत: पथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।।


       भावार्थः- प्रभु के आदेश को सुनकर देव एक दूसरे को सन्देश देते हुए कहते हैं कि कर्मतन्तु का विस्तार करता हुआ तू हदयान्तरिक्ष के प्रकाशक उस प्रभु के प्रेरणा के अनुसार चल। गत मन्त्रों में प्रभु ने पंचजना: शब्द से सम्बोधन करते हुए यही प्रेरणा दी है कि (क) तुम पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश इन पांच भुतों का ठीक से विकास करने वाले होवो। (ख) पांचों कार्मेन्द्रियों की शक्ति का विकास ठीक प्रकार से हों, (ड) हृदय, मन बुद्धि, चित्त व अहंकार रूप अन्तः करण पच्चक की शक्ति का भी विकास करो। प्रभु इस प्रकार की प्रेरणाएं हृदयस्थरूपेण सदा दे रहे हैं। हमे उस प्रेरणा को सुनना चाहिए और उसके अनुसार जीवन को बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रभु की प्रेरणा को सुनना ही उस प्रकाशक प्रभु के अनुकूल चलता है। इस प्रकार प्रभु की प्रेरणा को सुनने के द्वारा ज्योतिर्मय मार्गों का, देवयान का रक्षण कर। अन प्रकाशमय मार्गों पर चलने से कभी कष्ट नहीं होता। ये प्रकाशमय मार्ग बुद्धिपूर्वक कर्मों से सम्पादित होते हैं। इस मार्गों में ज्ञान व क्रम का समन्वय होता है। स्तोताओं के कर्मों को (उल्बण) अति के बिना करो। प्रभु के स्तोता किसी भी क्रम में अति नहीं करते। ये आहार-विहार में, सब कर्मों में सोने व जागने में सदया नपी-तुली क्रियाओं वालें होते है। प्रभु का स्तोता सदा मध्यमार्ग पर चलता है, किसी भी पक्ष में न झुकता हुआ पक्षपातरहित न्याय्य क्रियाओंवाला होता हैं। तू सदा विचारशील हो। बिना विचारे क्रियाओं का करनेवाला न हो। अविवेक ही तो सब आपत्तियों का कारण होता है। इस प्रोर विचारपूर्वक कर्म करने के द्वारा तू उस देव की ओर चलने वाले व्यक्ति को उत्पन्न कर। तु अपने देव के रूप में विकसित करने वाला हो। मनुष्य से तू देव बन जाये।


        स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं- "मनुष्य उसी को कहना जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे।"


       वेद में एक मन्त्र में लिखा है- "वीर भोग्या वसुन्धरा" अर्थात् ईश्वर ने यह भूमि वीर पुरुषों के भोग्यार्थ हेतु बनाई है कापुरुषों के नहीं। हम मनुष्य भी बने तो आर्य मनुष्य बने दस्यु नहीं।


न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्पमारोहति नास्तमेति।
न दुर्गतोअस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरार्या:।।
न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्ट:।
दत्त्वा न पश्चात् कुरुतेअनुतापं स कथ्यते सत्पुरुषार्यशील:।। 


      "जो शान्त हुए वैर को नहीं चमकाता, घमण्ड में कभी नहीं आता, तेज से हीन नहीं होता और विपदाएँ झेलता हुआ भी अकार्य नहीं करता है उसको, केवल उसी को, आर्यपुरुष आर्यशील कहते हैं। जो अपने सुख(ऐश्वर्य)में फूल नहीं जाता, दूसरे के दुःख में जो प्रसन्न नहीं होता, दान करके पीछे पछताता नहीं, वह सत्यपुरुष आर्यशील कहलाता है।


      यही गुण मनुष्य में हों,तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकरी हो सकता है। अतः अज्ञानी/दस्यु मनुष्यों के बनाये इन भ्रमजालों से निकलकर पहले स्वयं को मनुष्य बनाइए।


 


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