मैडम भीखाजी कामा

मैडम भीखाजी कामा



विदेशों में रहकर अपने देश की आज़ादी के लिए अलख जगाने वाली और अपना पूरा जीवन देश के नाम समर्पित करने वाली मैडम भीखाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर 1861 में मुंबई के उस सम्पन्न पारसी परिवार में सोराबजी फ्रामजी पटेल और नानजीबाई के यहाँ हुआ था जहाँ स्त्री शिक्षा और राष्ट्र की स्वाधीनता के प्रति सम्मान का अटूट भाव था| 24 वर्ष की आयु मे उनका विवाह एक धनी मानी परिवार के उन रुस्तमजी कामा के साथ हुआ जो एक जाने माने बैरिस्टर और ब्रिटिश सरकार के प्रबल समर्थक थे| उन्हें और उनके परिवार को भीखाजी का देश प्रेम और समाजसेवा करना स्वीकार नहीं था और इसी वैचारिक मतभेद के कारण कुछ साल बाद दोनों अलग हो गए|


वर्ष 1896 में मुम्बई में प्लेग फैलने के बाद भीकाजी ने इसके मरीजों की इस तरह अनवरत सेवा की कि उनकी तुलना फ्लोरेंस नाइटिंगेल से की जाने लगी। बाद में वह खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गई और उन्हें आराम और आगे के इलाज के लिए यूरोप जाने की सलाह दी गई थी। वर्ष 1902 में वह इसी सिलसिले में लंदन गईं और इसी दौरान उनका दादाभाई नौरोजी से मिलना हुआ और धीरे धीरे उनका राजनीतिक जीवन शुरु हो गया| धीरे धीरे कई देशभक्त लोगों से मिलना हुआ और प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय और वीर सावरकार जैसे लोग उनके साथी बने|


लन्दन में रहते उन्होंने फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, स्विटज़रलैंड आदि देशो के नेताओं से मिलकर इंग्लैंड के खिलाफ प्रबल जनमत तैयार किया पर अपने क्रांतिकारी भाषणों के कारण उन्हे लंदन छोड़ कर पेरिस जाना पड़ा जो उन दिनों क्रांतिकारियों का गढ़ था| फ्रांसीसी अखबारों में उनका चित्र जोन ऑफ आर्क के साथ आया जो इस तथ्य की भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी कि श्रीमती कामा का यूरोप के राष्ट्रीय तथा लोकतांत्रिक समाज में विशिष्ट स्थान था।


18 अगस्त 1907 में जर्मनी के स्टूटगार्ड नगर में आयोजित अंतराष्टीय सोशलिस्ट कांग्रेस समाजवादियों के अधिवेशन में भीखाजी कामा जी ने ओजस्वी भाषण दिया और सारे संसार को भारतीयों की दुर्दशा से अवगत कराया| अपने भाषण में उन्होंने कहा – भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का होना सभी भारतीयों के लिए बहुत अपमान की बात है| भारत में ब्रिटिश शासन का बने रहना भारत के लिए सर्वनाश का सूचक है| उन्होंने कहा कि विश्व के सभी स्वतन्त्रता प्रेमियों को भारत की स्वाधीनता में जरुर सहयोग देना चाहिए|


इस सम्मेलन में २२ अगस्त को उन्होंने वीर सावरकर के साथ मिलकर बनाए गए भारतीय झण्डे को पहली बार विदेशी धरती पर फहराया और बाद में इसी ध्वज में परिवर्तन करके भारत का राष्ट्रीय झण्डा बनाया गया| वो अपने वन्दे मातरम नाम के समाचार पत्र में ब्रिटिश सरकार की नीतियों पर जम कर प्रहार करतीं| ब्रिटिश सरकार ने उनकी शासन विरोधी गतिविधियों की कारण उनके भारत आने पर रोक लगा दी जिस कारण वह 35 वर्ष तक पेरिस में रहीं और वहीँ से रहते हुए तन मन धन से अपनी मातृभूमि की सेवा करती रहीं| उनके जीवन के अंतिम दिनों में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत आने के लिए स्वीकृति दे दी| वर्ष 1935 में उन्हें मुंबई लाया गया और यहाँ आने के एक वर्ष बाद 13 अगस्त 1936 को उनका स्वर्गवास हो गया|कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि|


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