महर्षि दयानंद सरस्वती का वेद-विषयक दृष्टिकोण
महर्षि दयानंद सरस्वती का वेद-विषयक दृष्टिकोण
आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती (१८२५-१८८३) ने वर्तमान युग में वेदों के संबंध में कई मूलभूत वातों की ओर संसार का ध्यान आकर्षित किया है। जैसे कि -
१. ऋक्, यजुः, साम और अथर्व - ये चार मंत्र संहिताएं ही ‘वेद’ हैं। इन चार मंत्र संहिताएं ही ईश्वर-प्रणीत अथवा अपौरुषेय ज्ञान-पुस्तकें हैं। इन चार के अतिरिक्त जो भी पुस्तकें हैं - मान्य या अमान्य, वे सब मनुष्यों द्वारा रचित अर्थात् पौरुषेय हैं।
२. वेदों में ज्ञान, विज्ञान, कर्म और उपासना - ये चार विषयों का अथवा ईश्वर, जीव और प्रकृति (तथा प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि) के संबंध में निर्भ्रान्त ज्ञान वर्णित है। वेद-ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपने जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
३. वेदों में किसी राजा, प्रजा, देश, व्यक्ति आदि का बिलकुल इतिहास नहीं है। वेदों तो सृष्टि के आरंभ में प्रकाशित हुए हैं। उनमें किसी मनुष्य का इतिहास नहीं है। मनुष्यों ने वेदाविर्भाव के पश्चात् अपनी आवश्यकता अनुसार व्यक्तिओं, देशों, पर्वतों, नदियों तथा समुद्रों आदि के नाम वेदों के शब्दों के आधार पर निश्चित किए हैं। वेदों के शब्दों के आधार पर नाम रखने की यह परंपरा आज पर्यंत चली आ रही है। परंतु इससे वेदों में इन नामों वाले व्यक्तियों का इतिहास वर्णित है, ऐसा मान लेना तो बिलकुल ही अयोग्य समझा जाएगा। वेदों में मानवीय अनित्य इतिहास का नितान्त अभाव है। हां, सृष्टि की रचना कैसे होती है, प्रथम क्या बनता है, बाद में क्या बनता है, इसका चक्र कैसे चलता है, किन नियमों से सृष्टि चलती है, इत्यादि प्रश्नों के वैज्ञानिक समाधान के रूप में सृष्टि का नित्य इतिहास तो वेदों में है, परंतु उनमें किसी प्रकार का अनित्य मानवीय इतिहास बिल्कुल नहीं है। समस्त वैदिक साहित्य इस बात को प्रमाणित करता है कि वेदों में किसी भी देश, समाज या व्यक्ति का इतिहास नहीं है। इसलिए वे लोग जो वेदों में मानवीय इतिहास की कड़ियाँ या संकेत ढूंढने में विश्वास रखते हैं और इसी हेतु से कार्यरत हैं, वे वास्तव में वेदों के यथार्थ स्वरूप को समझने में भारी भूल कर रहे हैं।
४. वेदों में तीन पदार्थों को अनादि, अनुत्पन्न, नित्य स्वीकार किए गए हैं - ईश्वर, जीव और प्रकृति। इन तीनों पदार्थ की सत्ता सदैव बनी ही रहती है। इसलिए उनका कभी भी अभाव नहीं होता है। ये तीनों सत्ताएं अनादि हैं, वे कभी भी उत्पन्न नहीं होतीं हैं। ये तीनों तो बस ऐसे ही सदा से हैं और आगे भी सदैव बनी रहेंगी। ये तीनों सत्ताएं अनादि - अनंत काल से अपना अस्तित्व रखती आयी हैं और अनंत काल तक ऐसे ही विद्यमान रहने वाली हैं। उनका कभी भी अभाव होने वाला नहीं है। इसके अतिरिक्त, ये तीनों सत्ताएं एक में से दूसरी ऐसे परिवर्तित भी कभी नहीं होती हैं। अर्थात् ईश्वर कभी जीव या प्रकृति नहीं बनता है; जीव कभी ईश्वर या प्रकृति नहीं बनता है; और प्रकृति कभी ईश्वर या जीव नहीं बनती है। ये तीनों सत्ताएं अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर एक-दूसरे से सदैव भिन्न ही बनी रहती हैं; कभी भी अभिन्न - समान - एक नहीं हो जातीं। ईश्वर और जीव चेतन हैं, जबकि प्रकृति जड़ है। ईश्वर जीवों के कल्याण के लिए - उनकों उन्नति का - मोक्ष-प्राप्ति का अवसर प्रदान करने के लिए प्रकृति में से सृष्टि बनाता है। यह सृष्टि आज पर्यंत अनंत बार बनी-बिगड़ी है, और भविष्य में भी अनंत बार बनने-बिगड़ने वाली है। सृष्टि-प्रलय का यह क्रम भी अनंत है।
५. वेदों में मनुष्य के चरम विकास एवं उन्नति के लिए अपेक्षित समस्त ज्ञान वर्णित है। वेदों में सर्व प्रकार का ज्ञान-विज्ञान निहित है। वेदों में ईश्वर-प्राप्ति अथवा मोक्ष-प्राप्ति को मानव जीवन का चरम लक्ष्य बताया गया है। वेदों का प्रधान विषय यही अध्यात्म विज्ञान है। वेदों में भौतिक जीवन के प्रति भी अनादर के भाव नहीं हैं, उसके उत्कर्ष के लिए भी पर्याप्त सामग्री वेदों में उपलब्ध है; फिर भी आध्यात्मिक ऐश्वर्य की तुलना में भौतिक ऐश्वर्य को गौण जरूर बताया गया है।
६. वेद जगत् को वास्तविक एवं सप्रयोजन मानते हैं। जगत् को स्वप्नवत् मिथ्या मानते हुए अपने शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए बिल्कुल कामना या यत्न ही न करना - इस प्रकार के निराशावादी चिंतन का वेदों में अभाव है। वेद हमें ज्ञान-कर्म-उपासनामय कर्मठ जीवन के पाठ पढ़ाते हैं।
७. वेदों में विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया गया है। एक ही सच्चिदानंद-स्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, अनंत, सर्वशक्तिमान, चेतन ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का ज्ञान कराने के लिए वेदों में उसकी अनेकानेक नामों से स्तुति - यथार्थ वर्णन किया गया है। इसलिए वेदों में ईश्वर के लिए प्रयुक्त इन्द्र, वरुण, प्रजापति, सविता, विधाता, अग्नि, गणपति इत्यादि नामों को देखकर ऐसा निष्कर्ष निकाल लेना कि वेदों में तो अनेक ईश्वर की स्तुति है, वेदों तो बहुदेवतावादी हैं, एक गंभीर भूल ही मानी जाएगी। वेद एक ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने की शिक्षा देते हैं।
८. वेद मानवोपयोगी समस्त विद्याओं के मूल हैं। वेदों में मानव जीवन के सभी अंगो के विषय में - व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के विषय में ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। वेदों में भौतिक विज्ञान के रहस्य भी उपलब्ध हैं, परंतु वेदों में ये सब विद्याएं मूलवत् अर्थात् बीज या सूत्र रूप में वर्णित हैं। वेदों में किसी ‘शास्त्र’ के रूप में अमुक विद्या या विज्ञान-शाखा का सांगोपांग विस्तार या विशद विवेचन प्रस्तुत नहीं किया गया है। परंतु वेदों में से भौतिक जगत् विषयक संकेतों को ठीक से समझ कर उनके अवलंबन से सृष्टि का गहन वैज्ञानिक अध्ययन करके मनुष्य भौतिक जगत् की भी अनेक सच्चाइयों का अन्वेषण कर सकते हैं।
९. वेदों में यज्ञ, संस्कार आदि कर्मकांड का भी यथोचित वर्णन किया गया है। वेदों में वेदार्थ आधारित सार्थक एवं वैज्ञानिक कर्मकांड को समुचित स्थान दिया गया है। वेदों में ‘यज्ञ’ शब्द को अत्यंत विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, जिसकी अर्थ-परिघि में उन सभी प्रकार के उत्तम कर्मों का समावेश हो जाता है, जो किसी सद्भावना से प्रेरित होकर किए जाते हैं और जिनके द्वारा सुखों की वृद्धि और दुःखो तथा क्लेशों का शमन होता हैं। फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए वेद केवल द्रव्यमय यज्ञों या कर्मकांड के लिए ही प्रवृत्त नहीं हुए हैं। वेद ज्ञान के - सत्य विद्याओं के ग्रंथ हैं; ये याज्ञिक कर्मकांड के ही या मानवीय अनित्य इतिहास के ग्रंथ नहीं हैं। कर्मकांड में भी जो विनियोग होता है वह मंत्र के अर्थ के आधीन होना अपेक्षित है।
१०. वेद और सृष्टि दोनों ईश्वरीय हैं। जैसे वेद ईश्वर-प्रणीत हैं, ईश्वरीय ज्ञान के ग्रंथ हैं, वैसे ही यह सृष्टि अथवा जगत् भी वही ईश्वर द्वारा रचित एवं संचालित है। इसलिए इन दोनों में अर्थात् वेद तथा सृष्टि में अ-विरोध है, दोनों में पूरी संगति है, पक्का समन्वय है। सृष्टि विषयक जो बातें वेदों में वर्णित हैं, वही बातें हमें सृष्टि में उपस्थित व कार्यरत दिखाई पड़ती हैं। इसलिए वेद सर्वथा वैज्ञानिक हैं। वेदों में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो सृष्टिक्रम के विरुद्ध हो या जिसका सृष्टि-विज्ञान से मेल न बैठता हो। इस तरह वेदों की रचना बुद्धिपूर्वक - ज्ञान-विज्ञानपूर्वक है, जो उनका ईश्वरीय होना सिद्ध करता है।
११. वेदों में मानव समाज का ब्राह्मण आदि चार वर्णों में विभाजन किया गया है; परंतु इस विभाजन का आधार व्यक्ति का जन्म नहीं, बल्कि उसके गुण-कर्म-स्वभाव हैं। जन्म आधारित जाति प्रथा न केवल वेदबाह्य है, बल्कि वेद-विरुद्ध भी है।
१२. वेदों को यथार्थ रूप में समझने के लिए ब्राह्मण-ग्रंथ, वेदांग, उपांग, उपवेद, प्रमुख – मौलिक उपनिषद् तथा मनुस्मृति आदि पुरातन वैदिक ग्रंथो का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। पाणिनि मुनि कृत अष्टाध्यायी, पतंजलि मुनि कृत महाभाष्य तथा यास्क मुनि कृत निरुक्त तथा निघंटु के अध्ययन से वेदों की भाषा तथा वेदों के अर्थ समझने में अनन्य सहायता प्राप्त हो सकती है।
१३. वेदों की शिक्षाएं - उपदेश सर्वथा उदात्त, सार्वभौम, सर्वजनोपयोगी और प्राणीमात्र के लिए हितकारी हैं। वेद मानवमात्र का ही नहीं, जीवमात्र का हित करने वाली बातों का उपदेश करते हैं। वेदों में जिसे संकीर्ण, एकांगी या सांप्रदायिक कहा जा सके ऐसा कुछ भी नहीं है। सभी का कल्याण और सर्वविध उन्नति कराने वाली सुभद्र बातों को प्रकाशित करने वाले वेद वैश्विक धर्म के प्रतिनिधि हैं। वेदों में उन समस्त विषयों का उल्लेख पाया जाता है, जिनका स्वीकार व आचरण कर कोई भी देश, समाज या व्यक्ति उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है और सभी लोग विश्व, देश, समाज या परिवार में सुख एवं शांतिपूर्वक रहकर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। मनुष्यों को आज पर्यंत जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यता अनुभव हुई है और भविष्य में उन्हें जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यकता अनुभव होगी, उन सब सत्य विद्याओं का बीज रूप में समावेश वेदों में हुआ है।
१४. वेद ईश्वरीय ज्ञान है। अतः उन पर मानवमात्र का समान मौलिक अधिकार है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अन्य किसी को उसके वेदाधिकार से वंचित कर सके।
१५. मनुष्य के आत्मा में अपना जीवस्थ स्वाभाविक ज्ञान तो होता ही है, परंतु वह इतना अल्प होता है कि केवल उससे वह उन्नति नहीं कर सकता है। उन्नति तो होती है - नैमित्तिक ज्ञान से जिसे अर्जित या प्राप्त किया जाता है। वेद ईश्वर-प्रदत्त नैमित्तिक ज्ञान है। वह सर्वज्ञ ईश्वर का ज्ञान होने से निर्भ्रांत है और इसीलिए ‘परम-प्रमाण’ अथवा ‘स्वतः-प्रमाण’ है। वह सूर्य अथवा प्रदीप के समान स्वयं प्रमाणरूप है। उसके प्रमाण होने के लिए अन्य ग्रंथों की अपेक्षा नहीं होती है। चार वेदों के अतिरिक्त समस्त वैदिक अथवा वेदानुकूल साहित्य अति महत्त्वपूर्ण होते हुए भी मानवीय - पौरुषेय होने के कारण परत-प्रमाण है। इन ग्रंथों में जो कुछ वेदानुकूल है वह प्रमाण और ग्राह्य है, और जो कुछ वेदविरुद्ध है वह अप्रमाण और अग्राह्य है।
१६. वेदों के समस्त शब्द यौगिक या योगरूढ हैं, इसलिए वे आख्यातज हैं; रूढ या यदृच्छारूप नहीं हैं। इसलिए वैदिक शब्दों का तात्पर्य जानने के लिए व्याकरणशास्त्र के अनुसार यथायोग्य धातु-प्रत्यय संबंध पूर्वक अर्थ समझने का प्रयत्न करना चाहिए। धातुएं अनेकार्थक होने से मंत्र भी अनेकार्थक होते हैं और उनके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अर्थ किए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में - प्रकरण आदि का विचार करके वेदमंत्रों के पारमार्थिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार के अर्थ करने का प्रयास करना चाहिए।
१७. पिछली दो शताब्दियों में पश्चिम के अनेक विद्वानों ने वेदों पर कार्य किया है और तत्संबंधी ग्रंथ आदि भी लिखे हैं, जिनमें मेक्समूलर, मोनियर विलियम्स, ग्रिफिथ इत्यादि के नाम प्रसिद्ध हैं। ये पाश्चात्य विद्वान् वेदों को वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं कर सके हैं; क्योंकि एक तो वे वेद तथा वेदार्थ की पुरातन आर्ष परंपरा से अपरिचित थे और दूसरा यह कि वे लोग अपने ईसाई मत के प्रति आग्रह रखते थे और विकासवाद को अंतिम सत्य मानकर चलते थे। इसलिए पाश्चात्यों का वेद विषयक कार्य प्रायः वेदों की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने वाला ही सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार सायण, महीधर आदि मध्ययुगीन भारतीय पंडित भी अपनी कुछ गंभीर मिथ्या धारणाओं के कारण वेदों को यथार्थ रूप में व्याख्यायित करने में असफल रहे हैं।
१८. वेदों में सत्य में श्रद्धा और असत्य में अश्रद्धा रखने की प्रेरणा दी गई है। वेद हमें विद्या की वृद्धि और अविद्या का नाश करने के लिए तथा वैज्ञानिक चिंतन को जाग्रत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, अद्वैतवाद, पयगंबरवाद, मृतक-श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्म आधारित जातिप्रथा, चमत्कारवाद, नास्तिकवाद इत्यादि वेदविरुद्ध होने से खंडनीय एवं त्याज्य हैं।