मदनलाल धींगरा


मदनलाल धींगरा



भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन अनेक क्रांतिकारियों के संघर्षों, त्यागमय कार्यों तथा साहसिक गतिविधियों की अमर गाथा है, परन्तु देश की आजा़दी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले इन महान क्रां‍तिकारियों का उल्लेख करने में आधुनिक इतिहासकारों ने अत्यधिक कृपणता दिखाई है। हमें ये सिखाया गया है कि आज़ादी तो एक दल विशेष और एक परिवार विशेष की कुर्बानियों का ही परिणाम है पर हमें कभी ये नहीं भूलना चाहिए कि आज़ादी कुछ नेताओं द्वारा किये गए आग्रहों, प्रार्थनाओं और प्रत्यावेदनों से नहीं बल्कि हजारों हजार नाम-अनाम बलिदानियों और उनके परिवारों द्वारा बहाए गए रक्त और आँसुओं का परिणाम है, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा की गयी प्रत्येक बर्बरता को हँसते हँसते सहा और मातृभूमि के लिए कारावास, संपत्ति जब्ती, काला पानी और यहाँ तक कि मृत्यु को भी सहर्ष अंगीकार किया।


सच तो यह है कि आज़ादी हमें अंग्रेजों से भीख में नहीं मिली बल्कि क्रांतिकारियों द्वारा अनवरत किये गए उन सशस्त्र संघर्षों के परिणामस्वरूप प्राप्त हुयी है, जिसकी चरम परिणिति 1946 के नौसेना विद्रोह के रूप में दिखाई देती है। यह संघर्ष ना केवल भारतमाता की सरजमीन पर लगातार चला बल्कि विदेशी धरती पर भी भारत के रणबांकुरों ने अंग्रेज सरकार की नींद हराम कर दी। श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मैडम भीखाजी कामा, बैरिस्टर सरदार सिंह राणा, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, सरदार अजीतसिंह, लाला हरदयाल, रासबिहारी बोस, राजा महेंद्र प्रताप और चम्पकरमण पिल्लई, ये वो नाम हैं जिन्होनें विदेशों में भारत की आज़ादी की अलख जगाने के लिए स्वयं को तिल तिल कर गला दिया और अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया। बलिदानियों की इसी आकाशगंगा का एक चमकता नक्षत्र हैं मदनलाल धींगरा, जिन्होंने अपने वीरत्व और सर्वोच्च बलिदान से हुतात्माओं की अमर श्रृंखला में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा लिया।


मदनलाल धींगरा का जन्म पंजाब की आध्यात्मिक नगरी अमृतसर में 18 सितम्बर 1883 में एक बड़े जमींदार परिवार से सम्बंधित प्रसिद्द नेत्र विशेषज्ञ व अमृतसर के सिविल सर्जन रायसाहिब दित्तामल धींगरा के पुत्र के रूप में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेजी सरकार में इस उच्च पद तक पहुँचने वाले वे प्रथम भारतीय थे। यूँ तो अमृतसर सदैव ही स्वतंत्रता संघर्ष के क्षेत्र में आगे रहा है पर दुर्भाग्य से मदनलाल धींगरा का परिवार इसका अपवाद था और अपनी राजभक्ति के लिए सब जगह जाना जाता था। अंग्रेजों ने दित्तामल की सेवाभक्ति से प्रसन्न होकर इनको रायसाहब की उपाधि प्रदान की थी और इस राजभक्ति का ही परिणाम था कि जी.टी.रोड पर कटरा शेरसिंह में रायसाहिब के पास छ: बंगले थे और अमृतसर में इनके कुल 21 मकान थे। डॉ. दित्तामल के 7 संताने थी–6 पुत्र और एक पुत्री, जिसमें मदनलाल धींगरा छठी संतान थे। मदनलाल के सभी बड़े भाई मेधावी और उच्च शिक्षा प्राप्त थे तथा अंग्रेज सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर थे। उनमें से दो तो डाक्टर और बार-एट-लॉ थे। एक भाई बिहारी लाल धींगरा पूर्व जींद एस्टेट के प्रधानमंत्री भी रहे थे। आश्चर्य होता है कि ऐसा कौन सा नशा था जिसके वश होकर एक ऐसे धनाढ्य, वैभवसंपन्न और राजभक्त परिवार में जन्म ले कर भी मदनलाल ने एक अलग ही राह पकड़ी और स्वयं को आज़ादी का लड़ाई का सेनानी बना दिया।


ये बात तो सभी जानते हैं कि नशे का असर मनुष्य पर एक निश्चित समय तक रहता है और हर नशा कुछ समय बाद उतर जाता है। परन्तु एक ऐसा नशा भी है कि जिसपर इसका असर हो जाए, फिर ये मृत्यु के साथ ही उतरता है। ये नशा है स्वतंत्रता का नशा, स्वाधीनता का नशा, स्वावलम्बन का नशा, आजादी का नशा। इसी नशे का असर था कि महाराणा प्रताप ने घास की रोटियाँ खाना मंजूर किया पर अकबर के सामने झुकना नहीं, झांसी की रानी ने अपने प्राण गंवा दिए पर अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके, वीर शिवाजी आजीवन पहाडियों की खाक छानते रहे पर औरंगजेब के सामने शीश झुकाना मंजूर नहीं किया। यही वो नशा था जिसके प्रभाव में भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव फांसी चढ गए,खुदीराम बोस और हेमू कालानी ने किशोर अवस्था में ही मौत को गले लगा लिया और चटगाँव के बलिदानियों ने अपने रक्त से आत्मबलिदान की नयी इबारत लिख डाली। ऐसे अनेकों वीरों और वीरांगनाओं से इतिहास भरा पडा है,जिन्होने आजादी के नशे में अपने प्राणों की आहुति देने में किंचित मात्र संकोच नहीं किया। यही नशा मदनलाल धींगरा पर ऐसा चढा कि उन्होने अपने पिता के वैभव को लात मारकर, अपने शानदार कैरियर को बलि चढ़ा कर बलिदानी पथ पर चलना स्वीकार किया, पर गुलामी की कालिख को नहीं।


घुमक्कड़ प्रवृत्ति के मदनलाल अपने भाइयों की तरह ही पढने में तेज थे और विज्ञान में उनकी विशेष रुचि थी अत: उन्होंने विज्ञान विषय से अमृतसर से मैट्रिक तथा लाहौर से इन्टर की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। उस समय अमृतसर में लाला लाजपतराय तथा भगतसिंह के चाचा अजीतसिंह ने पगडी संभाल जट्टा नामक आन्दोलन चला रखा था,जिसने युवकों को भारत की स्वतंत्रता के लिए तथा अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध सचेत किया। मदनलाल धींगरा ने इस आन्दोलन में भाग लेना प्रारंभ कर दिया, पर ज्यों ही उनके घरवालों को इसका पता चला, उन्होंने इस पर रोक लगाना शुरु कर दिया। जब मदनलाल ने घर वालों की नहीं सुनी तो पिताजी के अत्यन्त लाडले होते हुए भी इन्हे अंग्रेजों की बगावत के कारण घर से निकाल दिया गया। मदनलाल ने तांगा चलाने वाले एक दोस्त के साथ उसके घर पर रहना शुरु कर दिया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध घोडागाडी वालों का एक संगठन तैयार किया, जिसमें उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। इनके बडे भाई बिहारीलाल धींगरा बम्बई में रहते थे। जब घरवालों ने उनसे मदनलाल की शिकायत की तो उन्होने मदनलाल को अमृतसर से बम्बई बुलवाया। बडी मुश्किल से और दोस्तो के समझाने पर मदनलाल बडे भाई बिहारीलाल के यहां बम्बई पंहुचे। बिहारीलाल जी ने उन्हें मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढाई के लिए लन्दन भेजने का फैसला किया। उनका सोचना था कि मदनलाल जब घर क्या देश से दूर अंग्रेजों में ही जाकर रहेगा तो देशभक्ति और स्वतंत्रता का भूत इसके सिर से उतर जाएगा। सन 1906 में मदनलाल इंग्लैण्ड पंहुच गए।


इंग्लैण्ड पहुंचकर मदनलाल ने 1906-09 के दौरान लन्दन के उसी यूनिवर्सिटी कालेज में इन्जीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की, जिसमें 1856 से 1866 तक दादाभाई नौरोजी गुजराती के प्रोफ़ेसर रहे थे और 1878-1880 के मध्य रविंद्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजी साहित्य की शिक्षा प्राप्त की थी। यूँ तो मदनलाल भारत में रहते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध काम कर चुके थे और ब्रिटिश सरकार के परम शत्रु थे पर इंग्लैण्ड पहुंचकर कुछ समय के लिए वो अपने उद्देश्य से भटक से गए। पैसा अथाह था और जीवन का कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं था इसलिए लन्दन की चकाचौंध में मौजमस्ती ही इनका और इनके अनेकों साथियों का एकमात्र लक्ष्य बन गया। पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। अपने एक साथी के कारण उनका इंडिया हाउस में आना जाना शुरू हो गया, जहाँ वे श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा वीर सावरकर सरीखे भारतीय क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आये।


यहाँ इंडिया हाउस के बारे में जान लेना भी समीचीन होगा। लन्दन में अंग्रेज भारतीय छात्रों को किराये पर मकान उपलब्ध नहीं कराते थे, अत:प्रखर राष्ट्रवादी श्याम जी कृष्ण वर्मा ने भारतीय छात्रों के रहने के लिए 1905 में लन्दन के 65, क्रामवेल अवेन्यू पर एक घर खरीद कर उसे इंडिया हाउस नाम दिया, जिसका उदघाटन 1 जुलाई 1905 को भारत की आज़ादी के घोर समर्थक और सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन के अध्यक्ष हेनरी मायर्स हायंडमैन ने एक बड़े कार्यक्रम में किया था, जिसमें दादाभाई नौरोजी, लाला लाजपत राय, मैडम कामा, 'जस्टिस' नामक समाचार पत्र के हैरी क्वेल्च और 'पाजिटिविस्ट रिव्यू' के मिस्टर स्वीनी भी उपस्थित थे। शीघ्र ही इंडिया हॉउस प्रबुद्ध भारतीयों के बीच एक जानामाना नाम हो गया और इसकी चर्चा चहुँ ओर होने लगी। 1905 में ही तिलक ने अपने पत्र 'केसरी' के सम्पादकीय में लन्दन में श्यामजी की गतिविधियों और इंडिया हाउस के बारे में एक प्रशंसापूर्ण लेख लिखा और उनके द्वारा विदेश में पढने के इच्छुक भारतीय छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्तियों की जानकारी प्रदान की। पुणे में रह रहे विनायक दामोदर सावरकर ने इसे पढने के बाद 'शिवाजी' नामक छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किया और तिलक की अनुशंसा पर उन्हें शीघ्र ही ये प्राप्त भी गयी।


सावरकर 15 जून 1906 को वकालत पढने के नाम पर लन्दन पहुंचे, पर उनके इरादे कुछ और ही थे। वो वहां रहकर ब्रिटिश शासन की शक्ति को तो समझना ही चाहते थे, अंग्रेजों को उनके घर में ही चुनौती देना चाहते थे। 1907 में ब्रिटेन में लगभग 700 भारतीय छात्र अध्ययनरत थे, जिनमें से 380 तो लंदन में ही थे। सावरकर इन सभी को तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जोड़ना ही चाहते थे, साथ ही अन्य देशों के क्रांतिकारियों से भी संपर्क स्थापित कर बम बनाने के नए तरीकों को सीखना चाहते थे और एकजुट संघर्ष कर साम्राज्यवादी शासकों को उखाड़ फेंकना चाहते थे। इंडिया हाउस में सावरकर का आना इस जगह के साथ साथ भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए भी मील का पत्थर सिद्ध हुआ। सावरकर ने इस जगह को क्रान्ति का गढ़ बना दिया और उनके लेखों, भाषणों और विचारों ने लन्दन में रह रहे भारतीय छात्रों को तो झकझोरा ही, स्वतंत्रता प्रेमी अंग्रेजों को भी हिला कर रख दिया।


अपने एक साथी के कारण मदनलाल का भी इंडिया हाउस में आना जाना शुरू हो गया, जहाँ वे श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा वीर सावरकर जैसी क्रान्ति की जीती जागती पाठशालाओं के सम्पर्क में आये और उनके मन में देश पर मर मिटने का जज्बा दिन पर दिन प्रबल होता चला गया। इंडिया हाउस में लाला लाजपतराय के दिए गए व्याख्यान के इन वाक्यों, “युवकों आपका लहू गर्म है, राष्ट्र रूपी वृक्ष आपके लहू की मांग करता है” ने उन्हें अत्याधिक प्रभावित किया और उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। जब ब्रिटिश सरकार भारत में अनेक क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दे रही थी तब विरोध स्वरूप एक दिन शहीदों की स्मृति में लिखित एक पट्टी लगाकर ये अपनी कक्षा में पहुंचे गए और कालेज के अधिकारियों के कहने पर भी उन्होंने पट्टी नहीं हटायी। उनके मन में देश को स्वतंत्र कराने की तड़प बढती गयी और वीर सावरकर की प्रेरणा से उन्होंने स्वयं को पूरी तरह राष्ट्रयज्ञ में समर्पित कर दिया।


मदनलाल के अन्दर की आग, उनकी प्रचण्ड देशभक्ति ने सावरकर को बहुत प्रभावित किया और उन्होंने मदनलाल को ना केवल अभिनव भारत मण्डल का सदस्य बनवाया बल्कि हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। शीघ्र ही मदनलाल सावरकर के अत्यंत निकट आ गए और इंडिया हॉउस में रहते हुए पूरी तरह उनके एवं राष्ट्र के लिए समर्पित हो गए। इसी बीच 11 अगस्त 1908 को भारत में खुदीराम बोस और उसके बाद कन्हाई दत्त, सतिन्दर पाल और कांशी राम जैसे क्रांतिवीरों को फांसी की सजा दिये जाने से भारतीय छात्रों के मन में बहुत रोष बढ़ गया। वीरेंद्र कुमार घोष के अलीपुर केस और विनायक सावरकर के भाई गणेश सावरकर की जोशीली कविताओं पर अंग्रेजो द्वारा उनकी संपत्ति जब्त कर उन्हें आजीवन काले पानी की सजा देने से रोष बढ़ता जा रहा था और लन्दन में रह रहे भारतीय युवक संगठित होकर अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ करने को उतावले हो रहे थे।


विनायक सावरकर ने तो 20 जून 1909 की एक सभा में घोषित भी कर दिया था कि अब सरकार ने दमन और आतंक का सहारा ले लिया है इसलिए हम भी उसको वैसे ही जवाब देंगे। मदनलाल ने वीर सावरकर से पूंछा कि क्या अपनी मातृभूमि के लिए प्राण देने का यह सही वक्त है ? इस पर उन्हें सावरकर द्वारा दिया गया वो प्रसिद्द उत्तर मिला, जो आज भी हमारा मार्गदर्शन करता है–“अगर तुम सर्वोच्च बलिदान के लिए तैयार हो और तुम्हारे मन ने अंतिम मुक्ति के बारे में सोच लिया है तो निश्चित रूप से अपने राष्ट्र के लिए प्राण देने का यह सही समय है।” मदनलाल की परीक्षा लेने के लिए सावरकर ने धींगरा से वार्ता के दौरान हाथ जमीन पर रखने को कहा और धींगरा के द्वारा हाथ जमीन पर रखते ही एक सूजा हाथ में भोंक दिया। खून की धार बह निकली पर धींगरा के मुंह से एक शब्द न निकला। सावरकर ने सूजा निकाल लिया और इस परीक्षा में उत्तीर्ण धींगरा को गले से लगा लिया। दोनों के आंखों से प्रेम के आंसू बहने लगे।


एक दिन इण्डिया हाउस में कई छात्रों के बीच किसी ने यह रहस्य उदघाटित किया कि ब्रिटिश शासन की ओर से हम भारतीयों की सुख सुविधा का ध्यान रखने के लिए यहाँ नियुक्त कर्जन वायली नामक अधिकारी वास्तव में एक जासूस है, जो हमारे बीच घुल मिलकर असल में हमारे भेद लेता है। उसका उद्देश्य हमारा हित नहीं,बल्कि हमें किसी षड्यंत्र में फँसाना है और यही कारण है कि वह अपने व्यवहार में एक सामान्य अंग्रेज से कहीं अधिक सरल, मृदुभाषी और भोला जान पड़ता है लेकिन सच्चाई यह है कि वह एक भयंकर सांप है और किसी भी समय हम सब को एक साथ डस सकता है। छात्रों को रोमांच हो आया–“अच्छा…ऐसी योजना है उसकी, ऐसा षड्यंत्र रच रहा है वह? ठीक है देखेंगे उसे भी, कहते हुए एक युवक मुट्ठियाँ भींच कर, होंठ चबाते हुए एक द्रढ़ निश्चय के साथ उठ खडा हुआ। उसने हवा में मुक्का तानते हुए साथियों से कहा–“निश्चित रहो, हमें डसने से पहले ही वायली को कुचल दिया जायेगा।” ये और कोई नहीं, मदनलाल धींगरा थे।


कर्जन वायली ब्रिटिश शासन का एक अत्यंत उच्च अधिकारी था और कई महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए 1901 में तत्कालीन भारत सचिव के सहायक सैनिक अधिकारी (aide-de-camp) के पद तक पहुंचा था। वह भारतीय क्रांतिकारियों के लंदन स्थित केन्द्र “इंडिया हाउस” पर निगरानी रखने वाला प्रमुख अधिकारी था और भारतीयों को पीड़ित और प्रताड़ित करने के लिए कुख्यात था। इंडिया हाउस की गतिविधियों की जानकारी करने के लिए उसने कीर्तिकर नामक एक भारतीय को इंडिया हाउस में अपना जासूस बना कर भेजा हुआ था, जो स्वयं को दन्त चिकित्सा का विद्यार्थी बताता था। सावरकर की तीक्ष्ण नज़रों से वो बहुत दिनों तक बच नहीं पाया और पकडे जाने पर उसने सावरकर के सामने वायली की सारी योजना खोल कर रख दी कि किस तरह से वो इंडिया हाउस की जासूसी करा रहा है और किस तरह से वो भारतीयों को प्रताड़ित करने की योजनायें बना रहा है। जब यह निश्चित हो गया कि वायली को मारा जाना है तो सावरकर ने धींगरा को निशाना लगाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने और वायली की गतिविधियों के बारे में जानकारी करने को कहा ताकि कोई कमी ना रह जाये जैसे की पहले के एक दो अवसरों पर रह गयी थी, जब मदनलाल ने दो बार लार्ड कर्जन को और एक बार बंगाल के भूतपूर्व गवर्नर ब्रैम्फील्ड फुलर को मारने का प्रयास किया था।


वायली को मारने की अपनी योजना को धार देने के लिए मदनलाल भारतीय छात्रों को क्रान्ति पथ से दूर रखने और उन्हें भटकाने के लिए वायली द्वारा बनायीं गयी नेशनल इंडिया एसोसिएशन में 1908 में शामिल हो गए और स्वयं को सावरकर और अन्य क्रांतिकारियों से दूर दिखाने लगे। जल्द जी उन्होंने इस संगठन की सचिव एम्मा जोसेफाइन बेक का इस हद तक विश्वास हासिल कर लिया कि संगठन के विभिन्न कार्यक्रमों के आने वाले अतिथियों की सूची और उनके आने जाने के समय तक की जानकारी उन्हें हासिल होने लगी। सावरकर से और अधिक दूरी और असहमति दिखाने के लिए उन्होंने 1909 में इंडिया हाउस छोड़ दिया और 108, लेडबरी रोड में मिसेज हैरिस के मकान में रहने लगे। हालाँकि योजना से अनभिज्ञ भारतीय छात्रों द्वारा उन्हें सावरकर और इंडिया हाउस को त्यागने पर गद्दार और देशद्रोही तक कहा गया पर सावरकर जानते थे कि उनका रणबांकुरा वो करने जा रहा है, जो ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख देगा। मदनलाल ने वायली की हत्या से पूर्व एक रिवाल्वर का लाइसेंस लिया और एक रायफल शूटिंग रेंज में दाखिला भी लिया। शूटिंग रेंज के मालिक की कोर्ट में दी गयी गवाही के अनुसार, मदनलाल निशानेबाजी में इतने पारंगत हो चुके थे कि 18 फुट की दूरी से लक्ष्य पर 12 निशाने लगा लेते थे।


आखिर वह दिन भी आ गया, जब वायली को अपने कर्मों का हिसाब देना था। 1 जुलाई, 1909 ई. को नेशनल इण्डियन ऐसोसिएशन के वार्षिक सम्मलन में सर कर्जन वायली को भी “ऐट होम” पर बुलाया गया था। भोजन के पश्चात इम्पीरियल इन्स्टीट्यूट के जहांगीर हाल में एक संगीत कार्यक्रम का आयोजन था लेकिन जैसे ही कर्जन वायली वापस जाने के लिए सीढ़ियों से उतरा, मदनलाल उसकी तरफ लपके। वायली ने समझा कि यह युवक मुझे से मिलने को आतुर हो रहा है और वो मदनलाल की और मुस्कुराते हुए बढ़ा। कारण संभवतः ये रहा होगा कि भारत में कर्जन वायली मदनलाल के घर भी आया था और उसकी डा.दित्तामल धींगरा से अच्छी जान पहचान थी। किन्तु उस छदम मुस्कान को देखकर और उसके पीछे छिपी क्रूरता का अनुभव करके मदनलाल के तन बदन में आग लग गई। तैयार तो वह पहले से ही थे और वायली को सामने पाते ही उन्होंने जेब से रिवाल्वर निकाल कर निशाना साधा और निकट आकर पांच शाट उस पर खाली कर दिए। कर्जन वायली वहीं ढेर हो गया। कावसजी लाल काका नामक एक पारसी डाक्टर ने मदनलाल को पकडने की कोशिश की तो धींगरा ने छठी तथा सातवीं गोली उस पारसी डाक्टर को मार कर उसे भी वहीं ढेर कर दिया।


चारों तरफ भगदड़ मच गई पर मदनलाल शांत खड़े रहे और भागने का कोई प्रयास नहीं किया। अब तक कितने ही अँगरेज़ अधिकारियों और पुलिस के जवानों ने उन्हें घेर लिया था पर मदन लाल का उद्देश्य तो पूरा हो चुका था। उन्होंने उन्हें पकड़ने आये पुलिसवालों के छक्के छुड़ा दिए और उन्हें बहुत मुश्किल से गिरफ्तार किया जा सका। हाथापाई और कुश्ती में उनका चश्मा गिर गया तो सहज भाव से अविचलित स्वर में उन्होंने पुलिसवालों से कहा–ठहरो, कोई जल्दी नहीं है, में जरा चश्मा पहन लूँ, फिर मेरे हाथ बाँधो। उनकी निर्भीकता, उनकी साहसी मनोवृति और धीरज देखकर अंग्रेजो का दल स्तंभित रह गया। तलाशी में उनके पास से एक पर्चा मिला, जिसमे लिखा था कि मैंने जान बूझकर अंग्रेज़ की हत्या की है क्योंकि भारतीयों को जिस प्रकार अन्यायपूर्वक फाँसी और काले पानी का दंड दिया जा रहा है, उसके प्रति विरोध प्रदर्शन का यह भी एक ढंग है| उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उसके बाद उनका चिकित्सीय परीक्षण किया गया। मदनलाल धींगरा के अदालती अभिलेख (ट्रायल आफ मदनलाल धींगरा, पब्लिक रिकार्ड आफिस, लन्दन) से पता चलता है कि उस समय भी उनकी नब्ज सामान्य थी, उनमें कोई भी परेशानी या उत्तेजना न थी। इतना बड़ा कार्य इतनी सहजता से कर जाना अंग्रेज चिकित्सकों के लिए भी आश्चर्य का विषय था।


वायली हत्याकांड ने इंगलैंड ही नहीं, पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में हलचल मचा दी। विश्व के अख़बारों ने इस घटना को प्रमुखतः से प्रकाशित किया। 23 जुलाई 1909 को कोर्ट में मदनलाल के खिलाफ हत्या का ट्रायल शुरु हुआ। मदनलाल ने कहा कि मुझे कर्जन वायली को मारने का कोई दुख नहीं है,केवल कावसजीलाल काका की हत्या करने का मुझे दुख है। मुझे खुशी है कि मै अपने प्रिय भारत देश के लिए प्राणों का बलिदान कर रहा हूं। मेरे देश का अपमान मेरे ईश्वर का अपमान है। मुझे जैसे धन और बुद्धि से हीन व्यक्ति अपनी मातृभूमि को सिवा रक्त के और क्या दे सकते हैं। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि जब तक मेरी मातृभूमि को स्वतंत्रता न मिल जाये, मैं उसकी गोद में बार-बार जन्म लेकर उसी की सेवा में मरता रहूँ। मैं अपने बचाव में कुछ नहीं कहना चाहता सिवाय इसके कि मैंने जो किया ठीक किया। मेरा मानना है कि किसी ब्रिटिश कोर्ट को मुझे पकड़ने, कैद करने या फांसी देने का अधिकार नहीं है और इसीलिए ही मैंने अपने लिए बचाव का वकील नहीं लिया है। मेरा मानना है कि अगर जर्मन अंग्रेजों पर कब्ज़ा कर लें तो अंग्रेजों का जर्मनों के खिलाफ युद्ध करना राष्ट्रभक्ति है तो अपने केस में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना और भी ज्यादा न्यायोचित और देशभक्तिपूर्ण है! पिछले 50 सालों में अंग्रेजों ने लाखों लाख भारतीयों की हत्या की है और हर साल भारत से 100,000,000 पौंड धन लूटा है। मैं अंग्रेजों को अपने देशभक्त देशवासियों को फांसी देने और निर्वासित करने के लिए भी जिम्मेदार मानता हूँ, जिन्होंने वही किया था जो यहाँ अंग्रेज अपने देश के लोगों को करने की सलाह देते हैं। जिस तरह जर्मनों को इस देश (इंग्लॅण्ड ) पर कब्ज़ा करने का कोई अधिकार नहीं है उसी तरह अंग्रेजों को भी हमारे भारत पर कब्ज़ा करने का कोई हक़ नहीं है। इस तरह हमारी ओर से यह पूरी तरह न्यायोचित है कि हम उन अंग्रेजों को मारें जो हमारी पवित्र भूमि को अपवित्र कर रहे हैं। तुम श्वेत लोग अभी शक्तिशाली हो, अभी तुम्हारा समय है, आनेवाला समय हमारा होगा,जब हम भारतीय लोग हमारी इच्छानुसार कार्य करेंगे।


अनेक अंग्रेज अधिकारियों तथा भारतीय अंग्रेज भक्तों द्वारा, जिनमें उनका अपना परिवार भी सम्मिलित था, धींगरा के इस कार्य की तीव्र आलोचना तथा भर्त्सना की गई। भारत मंत्री लार्ड मार्ले ने इस घटना को भयानक तथा धींगरा के कृत्य को नीचतापूर्ण तथा कायरतापूर्ण कहा। भारत के वायसराय लार्ड मिन्टो ने धींगरा को पागल तथा उसके कार्य को अति घृणापूर्ण बतलाया। मदनलाल धींगरा के परिवार के लोगों ने भी इस घटना से बड़ा लज्जित तथा हीन महसूस किया। रायसाहिब दित्तामल ने तो धींगरा को अपना पुत्र मानने तक से इनकार कर दिया। उन्होंने तार द्वारा कर्जन वायली की हत्या पर दु:ख प्रकट करते हुए कहा कि मदनलाल धींगरा में बचपन से ही झक्कीपन था और ऐसे बागी, विद्रोही और हत्यारे आदमी को मैं अपना पुत्र मानने से इंकार करता हूँ। धींगरा के दो राजभक्त भाइयों ने भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किए। मदनलाल का एक भाई भजनलाल उस समय वकालत पढने के लिए लन्दन में ही था। वायली को मारने की घटना के चार दिन बाद मदनलाल की निंदा करने के लिए हुयी एक सभा में वो भी शामिल हुआ। इसे जानकार मदनलाल ने उससे मिलने से मना कर दिया, जब वह ब्रिक्सटन जेल में मदनलाल से मिलने आया। मदनलाल को फांसी मिलने के बाद डाक्टर बिहारीलाल को छोड़ कर उनके सभी भाइयों ने अपने नाम के आगे से धींगरा शब्द ही हटा दिया ताकि लोग उन्हें किसी भी तरह से मदनलाल से जुड़ा हुआ न पा सकें। इन सब ने अपना सरनेम लाल बताना शुरू कर दिया, जो उनके नाम में पहले से ही शामिल था। इतिहास में किसी क्रांतिवीर के साथ उसके परिवारवालों ने शायद ही ऐसा व्यवहार किया होगा, जैसा मदनलाल के परिवारवालों ने उनके साथ किया।


इंग्लैण्ड तथा भारत में स्थान-स्थान पर सर कर्जन वायली की स्मृति में शोक में सभाएं हुई। 5 जुलाई 1909 को कैक्सटन हाल में सर कर्जन वायली के प्रति सहानुभूति तथा संवेदना प्रकट करने के लिए भारतीयों की एक सभा हुई, जिसमें सर आगा खां ने कर्जन वायली की हत्या को एक राष्ट्रीय विपत्ति बताया। सर भावनगरी द्वारा रखे गए एक प्रस्ताव द्वारा धींगरा को “पागल” तथा उनके कार्य को “धर्मान्ध कृत्य” कहा गया, जिसका अमीर अली से समर्थन किया। सर आगा खान ने प्रस्ताव को मत के लिए रखा और अधिकांश लोगों द्वारा इसके समर्थन में हाथ खड़ा किये जाने पर इसे सर्वसम्मति से पास करार दिया। परन्तु यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित नहीं हो सका क्योंकि सभा में उपस्थित क्रान्ति की पाठशाला स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने इसका कडा प्रतिकार किया। उन्होंने कहा नहीं सर्वसम्मति से नहीं, मैं विनायक सावरकर इसका विरोध करता हूँ। फिर क्या था, बवाल मच गया। भावनगरी तो सावरकर को पकड़ कर बाहर निकाल देना चाहते थे पर आगा खान ने उन्हें ऐसा करने से रोका। चिढ़ कर पामर नामक एक अंग्रेज ने सावरकर के मुंह पर यह कहते हुए घूंसा मारा कि ले अंग्रेजी घूंसे का मजा, जिसके जवाब में एक तमिल नौजवान एम पी टी आचार्य ने उस अंग्रेज के सर पर ये कहते हुए लाठी मार दी कि ले भारतीय लाठी का मजा। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने ये कहते हुए सभा का बहिष्कार कर दिया कि सावरकर को अपनी बात कहने का अधिकार था और उन पर हमला करना नितांत गलत था। शोर शराबे और हंगामें के कारण बैठक समाप्त हो गई और प्रस्ताव धरा का धरा रह गया। उसी रात्रि आठ बजे भारतीयों की एक और सभा न्यू रिफार्मर्स क्लब (लन्दन) में हुई, जिसमें सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने हिंसा तथा हत्या के कार्यों का विरोध करते हुए यहाँ तक कह दिया कि हत्यारा (धींगरा) पंजाब का है न कि बंगाल का।


5 जुलाई को लाहौर में भी होने वाले कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की स्वागत समिति ने धींगरा के कृत्य की तीव्र भर्त्सना की तथा इस कार्य को “भीरुतापूर्ण तथा विवेकशून्य पूर्ण” कहा। महात्मा गाँधी के राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने धींगरा के कृत्य को भारत के नाम को कलुषित करने वाला बताया। गांधीजी ने भी मदनलाल के इस साहसी कार्य की आलोचना की–“कर्जन वायली की हत्या के समर्थन में यह कहा जाता है कि अगर जर्मनी इंग्लैंड पर हमला करता तो अंग्रेज हर जर्मन की हत्या करते, इसी तरह यह भी हर भारतीय का अधिकार है कि वो किसी भी अंग्रेज को मारे। यह तुलना भ्रमजनक है। अगर जर्मनी इंग्लैंड पर हमला करता तो अंग्रेज हर जर्मन की हत्या नहीं करते, वह सिर्फ उन्ही जर्मनों को मारते जो हमलावर हैं न कि उन्हें जो कि असंदिग्ध हैं या अतिथि हैं।”


परन्तु देश-विदेश के क्रांतिकारियों तथा स्वतंत्रता प्रेमियों ने धींगरा के कार्य की प्रशंसा की। वारीन्द्र चन्द चट्टोपाध्याय ने सावरकर द्वारा प्रस्ताव के विरोध का समर्थन किया। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने एक पत्र द्वारा धींगरा के कार्य का समर्थन किया। अंग्रेजों में विक्टर ग्रेसन (संसद के सदस्य) ने इस काम को उचित ठहराया और आयरलैंड के स्वतंत्रता सेनानियों ने मदनलाल को क्रान्ति का दूत कहा। आयरलैंड की शायद ही कोई दीवार हो जिस पर “Ireland Honours Dhingra” नामक शीर्षक से उनके अंतिम वक्तव्य के पोस्टर न लगे हों। डब्ल्यू टी स्टीड जैसे अंग्रेजों ने मदनलाल की देशभक्ति से प्रभावित होकर उनके लिए क्षमा की मांग की, जबकि भारतमंत्री मार्ले की परिषद् के कई सदस्यों ने भारतीयों में उत्तेजना की किसी सम्भावना को ख़त्म करने के लिए फाँसी के स्थान पर आजीवन कारावास देने की सिफारिश की। पर मार्ले मदनलाल को फाँसी की सजा दिए जाने पर अड़ा हुआ था ताकि औरों को भी सबक मिल सके।


ब्रिटिश कवि, लेखक और कूटनीतिक अधिकारी विलफ्रिड स्कैवान ब्लंट ने अपनी डायरी में 24 July 1909 को लिखा कि किसी भी ईसाई ने कभी भी न्यायाधीश का सामना इतनी हिम्मत और इतनी गरिमा के साथ नहीं किया होगा, जैसा मदनलाल ने। अगर भारत ऐसे 500 बाँकुरे और पैदा कर सके तो उसे आज़ादी पाने से कोई नहीं रोक सकता। भाग्यवश धींगरा की फांसी के लिए निश्चित हुयी तिथि को ही ब्लंट का 69वां जन्मदिन था। उसने लिखा कि अंग्रेजी सरकार ने उसके जन्मदिन के दिन ही धींगरा जैसे वीर को फाँसी देकर उसे भी अमर कर दिया है क्योंकि आने वाली पीढियां इस दिन को शहीद दिवस के रूप में याद करेंगी। धींगरा के बलिदान ने ब्रिटिश कैबिनेट के भी कुछ सदस्यों के मन में उनके लिए सम्मान की भावना उत्पन्न की, जैसा चर्चिल के ब्लंट को लिखे एक पत्र से स्पष्ट होता है, जिसका उल्लेख ब्लंट ने अपनी डायरी में 3 October 1909 की एंट्री में किया है। इसके अनुसार चर्चिल ने ब्लंट को लिखे पत्र में बताया कि कैबिनेट की बैठक में धींगरा को लेकर भी काफी चर्चा हुयी। लायड जार्ज ने धींगरा के एक देशभक्त के रूप में दिखाए गए दृष्टिकोण के प्रति अपार सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहा कि वो आज से दो हजार सालों बाद भी उसी तरह याद किया जायेगा, जैसा हम अपने बलिदानियों को करते हैं, जिसका चर्चिल ने भी समर्थन किया। इस पत्र में चर्चिल ने धींगरा के अंतिम वक्तव्य को कोट करते हुए इसे देशभक्ति के नाम पर कभी भी दिया गया सबसे प्रभावी और बेहतरीन वक्तव्य कहा।


मदनलाल धींगरा ने लन्दन की अदालत में अपने बचाव के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। दुर्भाग्यवश उनके मुकदमें के समय न कोई मित्र था न कोई रिश्तेदार और न कोई अन्य भारतीय। इस महान क्रांतिकारी को 17 अगस्त, 1909 को पेंटोनविले जेल में फांसी दे दी गई। कहा जाता है कि फांसी से पूर्व जब उनसे अंतिम इच्छा पूछी गई तो इन्होंने एक चेहरा देखने वाले शीशे की मांग की। अंग्रेज अधिकारी को आश्चर्य हुआ, पर शीशा लाया गया। मदनलाल धींगरा ने अपना चेहरा देखा, वेशभूषा ठीक की, टाई ठीक ढंग से बांधी और फांसी के लिए ऐसे चले जैसे क्रांतिकारियों की बैठक में जा रहे हों। मदनलाल धींगरा के वक्तव्य को भी सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा था, परन्तु ज्ञानचंद्र वर्मा के प्रयासों से पेरिस में रह रहे सरदार सिंह राणा ने इसे एक पोस्टकार्ड पर धींगरा के चित्र के साथ प्रकाशित कराया। इसमें वन्देमातरम के नीचे 17 August 1909 (धींगरा का बलिदान दिवस) लिखा था और उसके नीचे लिखा था–देशभक्त मदनलाल धींगरा की पवित्र और प्रेरणास्पद स्मृति में जिन्होंने देश के लिए अपना बलिदान कर दिया। राना ने इसकी प्रतियाँ लन्दन में सावरकर को भेजीं, जिन्होंने इन्हें एक बड़ी मात्रा में प्रकाशित करा भारत भेजा। सरकार ने इस वक्तव्य को प्रतिबंधित कर दिया परन्तु आयरिश तथा अमरीका के पत्रों में यह प्रकाशित हुआ।


लन्दन के प्रमुख पत्र डेली न्यूज (16 अगस्त, 1909) ने भी मदनलाल धींगरा के प्रेरक वक्तव्य को प्रकाशित किया था, जिसमें उन्होंने खुला संघर्ष संभव न होने की स्थिति में गुरिल्ला पद्धति अपनाने को कहा था। उन्होंने राष्ट्र की पूजा को राम की पूजा तथा राष्ट्र सेवा को कृष्ण की भक्ति कहा। 'चुनौती' शीर्षक से जारी अपने इस अंतिम वक्तव्य में मदनलाल ने कहा था कि प्रत्येक भारतीय के लिए एक चुनौती है कि वह यह भलीभांति सीख ले कि मृत्यु का वरण कैसे किया जाता है। समस्त शिक्षा दीक्षा तभी फलीभूत होगी, जबकि हम भारतवासी अपने प्राणों की आहुति मातृभूमि पर चढा़ दें। मैं अपने प्राणों की आहूति अथवा अपने जीवन का बलिदान इसीलिए दे रहा हूं कि मेरे शहीद होने से मेरे देश का मस्तक ऊंचा हो जाएगा। मदनलाल धींगरा ने अंतिम इच्छा में कहा, “ईश्वर से मेरी केवल यही प्रार्थना है कि मैं उसी मां के उदर से पुनर्जन्म लेकर इसी पवित्र आदर्श के लिए अपना जीवन न्योछावर करता रहूं, जब तक कि उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती तथा मातृभूमि स्वतंत्र नहीं होती।


मदनलाल धींगरा के बलिदान पर मैडम ऐनी बेसेंट ने कहा था कि आज के दौर को मदनलाल जैसे शहीदों की और वीर क्रांतिकारियों की बहुत आवश्यकता है। प्रख्यात क्रांतिकारी वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्या्य ने मदनलाल की स्मृति में एक मासिक पत्रिका मदन तलवार के नाम से शुरू की थी, जिसे मैडम भीखाजी कामा ने बर्लिन से बाकायदा प्रकाशित किया। यह पत्रिका वर्षो तक विदेशों में सक्रिय क्रांतिकारियों की मुख्य पत्रिका बनी रही। मदनलाल की शहादत कदाचित व्यर्थ नहीं गई। उनकी शूरवीरता का आने वाले इतिहास में निर्वाह करते हुए एवं उनसे जबरदस्त प्रेरणा लेते हुए पंजाब में सरदार करतारसिंह सराबा सक्रिय हुए। उनके साथ मिलकर उत्तर भारत में रासबिहारी बोस ने आजा़दी की जंग का परचम बुलंद रखा। रासबिहारी बोस के नेतृत्व में वायसरॉय के काफिले पर दिल्ली के चॉंदनी चौक में बम फेंका गया। बाद के दौर में रासबिहारी बोस ने आजा़द हिंद फौ़ज़ के निर्माण में सक्रिय किरदार निभाया और अंततोगत्वा उसकी कमान नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सौंप दी। मदनलाल से बेहद प्रभावित क्रांतिकारी करतारसिंह सराबा को प्रथम लाहौर षड्यंत्र केस में सजा ए मौत दे दी गई। करतारसिंह सराबा की शहादत से प्रेरित होकर भगतसिंह और उनके साथियों ने संपूर्ण भारत में ब्रिटिश राज को हिलाकर रख दिया।


पर दुर्भाग्य! इतने सारे भारतीय क्रांतिकारियों को प्रभावित करने वाले मदनलाल धींगरा को इतिहास की निर्मम उपेक्षा का शिकार होना पडा़। उनका अंतिम संस्कार भी अंग्रेजी सरकार ने किया था क्योंकि उनके राजभक्त परिवार ने उनसे सभी सम्बन्ध समाप्त करने की घोषणा कर दी थी और उनके शव को सौंपने के सावरकर के अनुरोध को ब्रिटिश अधिकारियों ने ठुकरा दिया। हिन्दू रीति से उनका अंतिम संस्कार करने की उनकी अंतिम इच्छा को दरकिनार करते हुए ब्रिटिश सरकार ने उनके शव को एक ताबूत में बंद कर जेल परिसर में ही दफना दिया गया। उनकी शहादत से मिली प्रेरणा के बाद असंख्य बलिदानियों द्वारा किये गए संघर्षों के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता तो मिल गयी पर कृतघ्न देश ने उन्हें भुला दिया। उनकी मृत्यु के 67 वर्ष बाद 13 दिसम्बर, 1976 को इस 22 वर्षीय हुतात्मा की अस्थियां तब भारत लाई गई, जब शहीद उधम सिंह की अस्थियों की तलाश करते हुए जेल अधिकारियों को संयोगवश उनकी अस्थियों के बारे में पता लगा। 13 दिसम्बर से 20 दिसम्बर तक पंजाब के विभिन्न नगरों में भारतीयों ने उन्हें श्रद्धांजलि भेंट की तथा 25 दिसम्बर को वे अस्थियां हरिद्वार में विसर्जित कर दी गईं। तत्कालीन दस्तावेजों से पता चलता है कि ब्रिटिश सरकार उनकी राख तथा अस्थियों को भारत भेजने को तैयार नहीं थी क्योंकि सरकार को डर था कि कहीं उसकी राख को अपने माथे पर लगाकर भारत के युवकों में अनेक मदनलाल धींगरा पैदा न हो जाएं। धन्य हैं मदनलाल धींगरा और धन्य है उनका अमर बलिदान। माँ भारती के इस अमर सेनानी को शत शत नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।




Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

वर-वधू को आशीर्वाद (गीत)