मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं


       हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि मानव शरीर की रचना की तुलना मांसाहारी पशुओं की शरीर रचना से करने पर यह भली-भांति पता चलता है कि भगवान् ने मनुष्य का शरीर मांस खाने के लिये नहीं बनाया । इस अध्याय में यह सिद्ध किया जायेगा कि शरीर ही नहीं, किन्तु मनुष्य का स्वभाव भी मांस खाने का नहीं है ।


       संसार में प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जितने भी मांसाहारी जीव हैं, चाहे वे स्थलचर, जलचर अथवा नभचर हों, वे सभी अपने शिकार अन्य जीव को बिना चबाये ही निगल जाते हैं और उसे पचा लेते हैं । जैसे जल में रहने वाली मछलियां, मेंडक आदि अपने से छोटी तथा निर्बल मछली आदि को पूरी की पूरी निगल जाते हैं । उनकी हड्डी पसली, चमड़ी आदि कुछ भी शेष नहीं छोड़ते । इसी प्रकार भूमि पर रहने वाले मांसाहारी पशु, पक्षी अपने से छोटे तथा निर्बल प्राणियों को सभी निगल ही जाते हैं, यह प्रतिदिन देखने में आता है । किन्तु जो बड़े मांसाहारी जीव जन्तु शेर, चीता, भेड़िया आदि हैं, जब वे अपने शिकार मृग आदि पर आक्रमण करते हैं तो पहले उसकी ग्रीवा (गर्दन) तोड़कर उसका रक्त चूस जाते हैं और वह प्राणी मर जाता है । तब उस मरने वाले पशु का खून ठण्डा होकर शरीर में जम जाता है तो सिंह आदि उसको खुरच कर खा जाते हैं । यहां तक कि शरीर की पतली-पतली हड्डी पसली को भी चट कर जाते हैं । बहुत मोटी हड्डियां ही बचती हैं । इसी प्रकार बिल्ली भी चूहे को नोच-नोच कर सारे को अपने पेट में पहुंचा देती है । सभी मांसाहारी जीवों में यही दृष्टिगोचर होता है, जब वे दूसरे प्राणी को खाते हैं तो उनका खून भी कहीं गिरा हुवा नहीं मिलता । इसी प्रकार घास, फूस, हरा वा सूखा चारा खाने वाले गाय आदि पशु अपना भोजन प्रायः सारा का सारा निगल जाते हैं । पुनः अवकाश मिलने पर उसकी जुगाली करके चबाकर हजम कर लेते हैं, अपने भोजन को व्यर्थ नहीं होने देते । इसी प्रकार जो मांसाहारी पेड़ हैं वे अपने शिकार अन्य जीव को सम्पूर्ण खा कर पचा लेते हैं, केवल उनकी हड्डियां पीछे पड़ी रह जाती हैं । इस प्रकार के पेड़ अफ्रीका आदि में देखने में आते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि कोई भी मांसाहारी जन्तु यहां तक कि पेड़ पौधे भी अपने भोजन के भाग को व्यर्थ नहीं जाने देते । परमात्मा ने इनका स्वभाव इस प्रकार का बनाया है ।अब आप मांसाहारी मनुष्यों को देखें । अपने खाने के लिये ये जिन जीवों को मारते हैं उनका रक्त, चमड़ा, हड्डियां, मल आदि शरीर का तीन-चौथाई भाग छोड़ देते हैं, वे इसे नहीं खाते । वह व्यर्थ नष्ट होता है । अर्थात् एक मन जीवित जन्तु का मांस केवल १० सेर बनता है । यदि मनुष्य का स्वाभाविक भोजन मांस होता तो वह भी अन्य प्राणियों के समान सारे के सारे को चट कर जाता । भगवान की सृष्टि में यह भूल कैसे हो सकती थी कि वह अन्य सारे मांस खानेवाले जीवों को अपनेशिकार को सारा का सारा खानेवाला बनाता किन्तु मनुष्य एक वा दो मन में से केवल दस वा बीस सेर ही खाता और शेष को व्यर्थ नष्ट होने के लिये छोड़ देता ।


       यथार्थ में बात यह है कि मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं । वह हड्ड़ी आदि को चबा नहीं सकता । निगल कर उसे हजम नहीं कर सकता । उसके शरीर की रचना और स्वभाव के यह सर्वथा विरुद्ध है । इसके दांत मांस को नहीं काट सकते । इसके गले वा मुख का द्वार इतना भीड़ा (तंग) होता है कि किसी बड़े जीव को तो क्या, वह सामान्य छोटे जन्तुओं को भी नहीं निगल सकता । कच्चा मांस खाना और उसे पचाना तो इसके स्वभाव वा प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है । जंगली मनुष्यों को छोड़ कर संसार में सभी मांसाहारी मनुष्य मांस के टुकड़ों को छोटा-छोटा करके उसे स्वादिष्ट बनाकर खाते हैं । न कच्चा मांस खा सकते हैं, न चबा ही सकते हैं । हजम करने की बात तो कोसों दूर की है क्योंकि यह मांस का भोजन मानव का स्वाभाविक आहार नहीं है ।


       स्थलचर मांसाहारी शेर, चीता, भेड़िया आदि पशुओं के बहुत बड़े समूह देखने में नहीं आते । वे बड़े-बड़े जंगलों में भी थोड़ी-थोड़ी संख्या में ही मिलते हैं । शेरों के लहंडे नहीं के अनुसार इनके बड़े झुंड नहीं होते । जिन पशुओं को ये हिंस्र पशु खाते हैं, वे मृगादि जंगलों में बड़ी भारी संख्या में होते हैं ।


       केवल जलचर तो इसके अपवाद हैं किन्तु वहां एक बात इससे भी भिन्न है वह यह कि जल में रहने वाले सभी बड़े जीव छोटे जीवों को खा जाते हैं । वहां मांसाहारी जीवों तथा उनके भक्ष्य (शिकार) की पृथक्-पृथक् श्रेणी नहीं । यदि बड़ी मछली वा कोई अन्य जल का बड़ा प्राणी मर जाये तो उसे सब छोटे जन्तु चट कर जाते हैं । वहां भक्षक और भक्ष्य पृथक् नहीं हैं ।


       किन्तु पृथ्वी पर रहने वाले जन्तुओं में इससे भिन्नता देखने में आती है । घास आदि पर निर्वाह करने वाले भेड़, बकरी, गाय, भैंस, मृग, बारहसिंगा आदि पृथक् हैं, वे मांस नहीं खाते । मांस खाने वाले शेर, चीते और भेड़िये आदि की श्रेणी इनसे पृथक् है, जो उपर्युक्त पशुओं की हिंसा करके मांस ही खाते हैं ।


       मांस तथा अन्न दोनों को खाने वाली बिल्ली, कुत्ते तथा पक्षी पृथक् हैं । मनुष्यों में यह भी देखने में आता है कि पर्याप्त मनुष्य ऐसे हैं जो अन्न, फल, घी, दूध, शाक, सब्जी इत्यादि को खाकर ही अपना निर्वाह करते हैं । वे माँस, मछली, अण्डा आदि को स्पर्श भी नहीं करते और इस पृथ्वी पर ऐसे दानवों की भी कोई न्यूनता नहीं है जो अन्न, फल, शाकादि के अतिरिक्त मांस, मछली, अण्डा आदि भी खाते हैं । यदि मनुष्य का स्वाभाविक भोजन मांस ही हो तो मांसाहारियों को केवल मांस ही खाना चाहिये था, वे अन्नादि क्यों खाते ?


       यथार्थ बात यह है कि वे कुसंग वा कुशिक्षा के कारण मांस खाने लगते हैं । खाते-खाते उनका अभ्यास पक जाता है, फिर अच्छी शिक्षा और सत्संग मिल जाये तो वे छोड़ भी देते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि माँस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है । नहीं तो कोई भी मनुष्य मांस को खाये बिना जीवित नहीं रह सकता था । जैसे मांसाहारी पशु संख्या में थोड़े होते हैं किन्तु मनुष्य तो अरबों की संख्या में इस पृथ्वी पर रहता है । उसके लिए कितने पशु-पक्षी मांस पूर्त्यर्थ प्रतिदिन चाहियें ? इतनी भारी संख्या में दुःख देने वाले मनुष्य रूपी मांसाहारी पशुओं के झुंड भगवान् क्या उत्पन्न कर सकता है ? कभी नहीं ! इसीलिये तो मनुष्य फल-फूल शाक-सब्जी अन्न आदि खाता है, केवल मांस पर निर्वाह नहीं करता, क्योंकि मांस मानव का स्वाभाविक भोजन नहीं ।


      मनुष्य का यदि स्वाभाविक भोजन मांस होता तो प्रत्येक मांसाहारी मनुष्य मांसाहारी पशुओं शेर, चीते के समान अपने शिकार को आप स्वयं मारकर खाता जो असम्भव है । क्योंकि इस महान् पाप को गिने-चुने हुये अभ्यस्त कसाई बूचड़ करते हैं । यदि प्रत्येक मांसाहारी मनुष्य को स्वयं जीव मार कर मांस खाना पड़े तो अधिक से अधिक बल्कि ७५ प्रतिशत मनुष्य मांस खाना छोड़ दें । क्योंकि जब कोई प्राणी मारा जाता है तो वह तड़फता है, पीड़ा से बिलबिलाता है । उस भयंकर दृश्य को सुहृद व्यक्ति देख भी नहीं सकता, मारना तो दूर की बात है । क्योंकि मनुष्य के स्वभाव में प्रेम, दया, सहृदयता, सहानुभूति और परसेवा है । दूसरे को सताना, तड़पा-तड़पाकर मारना यह साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं । इस प्रकार वध होते भयंकर दृश्य को देखकर ही आधे से अधिक मांसाहारी मनुष्य भी बेसुध (बेहोश) होकर पृथ्वी पर गिर पड़ेंगे । किसी प्राणी की मृत्यु इतनी दुःखदायी नहीं होती जितना कि मनुष्य के हाथों कत्ल होना दुःखदायी होता है । मनुष्य तो सब प्राणियों में श्रेष्ठ है । जीव इससे प्रेम करते हैं और यह जीवों से प्रेम करता है । लोग तो शेर, चीतों तक को प्रेम से वश में करके पाल लेते हैं । उपगृहमंत्री श्री विद्याचरण शुक्ल के यहां मैंने एक सिंह का पाला हुआ बच्चा स्वतन्त्र रूप से खुला बैंच पर बैठे देखा । चिड़ियाघरों में शेर शेरनी अपने भोजन देने वाले से प्रेम करने लगते हैं । लखनऊ के चिड़ियाघर में एक शेरनी के छोटे चार बच्चे थे । उनको भोजन करानेवाला सेवक पिंजरे में हाथ डालकर शेरनी के उन बच्चों को हाथ से स्पर्श करके प्रेम करते मैंने कई बार देखा । शेरनी पास में खड़ी रहती थी, वह कुछ भी नहीं कहती थी । इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्य का स्वाभाविक गुण प्रेम है । कसाई जो बकरे आदि पशुओं को मारने के लिए पालता है, वह जब उन पशुवों को मारने के लिये वधशाला में ले जाता है, तब वे उसके प्रेम के वशीभूत हो उसके पीछे पीछे चले जाते हैं । वे नहीं जानते कि उनके साथ क्या होने वाला है । वे अपने उस बधक स्वामी पर विश्वास करते हैं । उसके प्रेम में धोखा है, इसका उन्हें कुछ भी सन्देह नहीं है । वे धोखे में आकर मारे जाते हैं । और यह सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य उनके साथ विश्वासघात करने में कुछ भी शंका लज्जा नहीं करता ।


       स्नेह, सेवा, सहानुभूति और परोपकार सब धर्मों का चरम लक्ष्य है । इस तक पहुंचना ही सब मनुष्यों का कर्त्तव्य है । क्योंकि जो मनुष्य स्वयं जीता है और दुःख में औरों से यह आशा करता है कि और मेरी सेवा करें तो उसका अपना कर्त्तव्य भी तो दूसरे प्राणियों की सेवा करना तथा उन्हें जीवित रहने देना है । हम किसी को जीवन नहीं दे सकते तो हमें किसी का जीवन लेने का क्या अधिकार है ?


      मांस खाने से तथा हिंसा करने से मनुष्य का हृदय निर्दयी और कठोर हो जाता है, जैसे कसाई को दया नहीं आती । सहानुभूति, प्रेम के लिये दूसरे के दुःख में दुखी होने वाला कोमल, संवेदनशील हृदय चाहिये । मांसाहारी का हृदय कठोर, निर्दयी हो जाता है । निर्दयता मनुष्य का स्वाभाविक गुण नहीं । इसलिये मांस खाने वालों की अपेक्षा मारनेवाले कसाई बहुत कम संख्या में होते हैं । एक हजार मांसाहारी लोगों के पीछे एक बूचड़ कसाई होता है जो जीवों का वध करता है । इसीलिये मांसाहारी लोगों को यह ज्ञान नहीं होता कि वे जो मांस खा रहे हैं, उसकी प्राप्ति के लिये कितना दुष्कृत्य, निर्दयतापूर्ण और बीभत्स अत्याचार किया गया है । बलवान् पशुओं का हृदय वध होने, चमड़ा उतारने, पेट से सब आंत आदि निकाल देने के पश्चात् भी बहुत देर तक धड़कता रहता है । वध होने के भयंकर दृश्य को बहुत थोड़े लोग देख सकते वा सहन कर सकते हैं । इसे देख लें तो आधे से अधिक मांस खाना छोड़ जायें । इसलिये मांस खाना और बात है तथा जीवों का वध करना और बात है । जब मांस बाजार में बिकता है तो वह मृत शरीर का मांस मिट्टी के रूप में ही दीखता है । खानेवालों के सन्मुख वधशाला का कष्ट अथवा संवेदना का दृश्य प्रस्तुत नहीं करता । नहीं तो मांसाहारी मांस खाना छोड़ देवें । कसाई का हृदय अत्यन्त कठोर और मृतप्रायः हो जाता है । वह मनुष्य को समय पड़ने पर मारने में देर नहीं लगाता । मांसाहारी भी शनैः शनैः निर्दयी हो जाता है । मानव तथा उसके गुण उससे विदा हो जाते हैं । इसलिये इस बुद्धिमान् प्राणी मनुष्य को केवल अपनी इन्द्रियों के सुख के लिये अथवा उदरपूर्ति के लिये अपने स्वाभाविक गुणों दया, प्रेम, सहानुभूति को तिलांजलि देकर निर्दोष जीवों का वध करना महापाप है । अतः मांसाहार से सर्वथा दूर रहना चाहिये । जो भोजन का कार्य अन्न, फल, फूल, शाक, सब्जी से पूर्ण हो सकता है और जो सुलभ, सस्ता, स्वास्थ्यप्रद तथा गुणकारी है उसके लिये व्यर्थ में अन्य प्राणियों को सताना, उनके प्राण ले लेना इस सर्वश्रेष्ठ कहे जानेवाले मनुष्य को कैसे शोभा देता है ? यह तो इसकी नृशंसता, निर्दयता और भयंकर अत्याचार का जीता जागता प्रत्यक्ष प्रमाण है ।


        अतः इस अस्वाभाविक आहार मांस का मानव को सर्वथा तथा सर्वदा के लिये परित्याग कर देना चाहिये ।


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