"क्या इस धरती पर हिन्दू होना पाप है?"

"क्या इस धरती पर हिन्दू होना पाप है?"


 


सुरेश पंडिता रात के दो बजे एकाएक नींद से उठकर बैठ गया। उसको सपने में श्रीनगर के समीप गांव में अपना घर, खलियान, सेब के बाग, डल झील में शिकारे की सवारी, बर्फ से ढके पहाड़ और सोहाना मौसम दिख रहा था। उसने देखा कि तभी एक गोली चली जो उसके पिताजी का सीना चीरते हुए उन्हें सदा के लिए शांत कर गई। उसकी माँ जो घर के आंगन में सफाई कर रही थी एकाएक उसे बचाने घर के अंदर भागी तो एक सीधी गोली उसकी पीठ में  आकर धस गई। बालक सुरेश कुछ समझ पाता इससे पहले उनकी दुकान पर काम करने वाले एक बूढ़े चाचा उसे पिछले दरवाजे से लेकर खेतों में जा छुपे। उनके घर पर आतंकवादी हमला हुआ था। उनके घर में आग लगा दी गई। जैसे ही आग  लपटे आसमान छूने लगी। सुरेश की आँख खुल गई। पूरा बदन पसीने से तरबतर। यह सपना सुरेश पिछले दशक में न जाने कितनी बार देख चूका था। पर रह-रहकर वह फिर याद आ जाता। उसने अपने अतीत को याद किया जब 1989 में आतंकवादियों ने उन्हें कश्मीर से भाग जाने की धमकी दी थी। स्थानीय मस्जिद के लाउडस्पीकर से अजान के बदले धमकी दी गई कि कश्मीरी हिन्दुओं यहाँ से भाग जाओ और अपने स्त्रियों को हमारे लिए छोड़ जाओ। उसके पिता घर के मंदिर में गीता और क़ुरान शरीफ एक साथ रखते थे। वो किसी रोजे या ईद पर मुसलमानों के घर जाकर मेलमिलाप करना कभी नहीं भूलते थे। उनका कहना था कि हम यहाँ सदियों से एक साथ भाई भाई बनकर रहते आये हैं। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता पर पूरा विश्वास था। उन्होंने उस धमकी को नजरअंदाज किया था। परिणाम सुरेश का घर, माता-पिता, श्रीनगर सब सदा के लिए बिछुड़ गए। सुरेश का बचपन पहले जम्मू के टेंट फिर दिल्ली की कश्मीरी कॉलोनी में बदतर हालात में निकला। वहां रहने वाले हर कश्मीरी पंडित की जुबान पर लगभग यही कहानी थी। सुरेश जैसे तैसे बड़ा होकर सेना में शामिल हो गया। अपनी ड्यूटी वो बखूबी निभाता था। 


    सन 2002 में सुरेश की ड्यूटी बंगलादेश बॉर्डर पर लगी थी। उसे सख्त हिदायत दी गई कि किसी को बॉर्डर के पार न जाने दे। एक दिन रात में उसने झाड़ियों में कुछ हलचल देखी।  हवाई फायर कर उसने सचेत किया। उस दिशा में गोलीयां भी चलाई मगर एक छोटी नहर के साथ की सुखी जमीन का फायदा उठाकर कुछ लोग भारत की सरहद में शामिल हो गए। सुरेश उनके पीछे दौड़ा मगर अँधेरे का फायदा उठाकर वे भाग गए। तलाशी के दौरान सुरेश को चार सोने के कंगन एक पोटली में बंधे मिले। उन्हीं घुसपैठियों के थे जो गिर गए थे। सुरेश ने उठाकर वह अपनी जेब में रख लिए। सोचा कल कोई इसे लेने आएगा तो उसे पकड़ लूंगा। मगर कोई न आया। वह कंगन सुरेश कई बार निकालकर देखता। सोचना की किसके होंगे। उसके मन में अनेक ख्याल आते। मगर यह कोई निर्णय नहीं ले पाया। 


2006 में सुरेश की ड्यूटी बनारस में संकट मोचन मंदिर के समीप लग गई। बनारस के माहौल में सुरेश अपने आपको धार्मिक प्रवृति के अनुकूल बनाने में लगाने लगा। नित्य सुबह शाम मंदिर जाना उसकी दिनचर्या का भाग बन गया। सात मार्च को सुरेश संकट मोचन मंदिर आया था। तभी मंदिर के समीप एक जोर का बम धमाका हुआ। सैकड़ों हताहत हुए। अनेकों की लाशों के इतने टुकड़े हो गए कि पहचान में भी न आये। सुरेश हवा में उछल कर दूर जा गिरा और बेहोश हो गया। एक महीने के बाद उसकी आंख एक हस्पताल में खुली। उसे पता चला कि एक नर्स सीमा द्वारा लगातार उसकी एक महीने तक सेवा हुई जिससे उसके प्राण बच पाए। उसने सीमा को धन्यवाद दिया। मन ही मन आभार प्रकट किया। सहसा उसे लगा कि सीमा के प्रति उसके मन में अलग विचार आ रहे थे। पर वह चुप रहा। अस्पताल से छुट्टी के दिन उससे रहा नहीं गया। वह जीवन में अकेला था। उसे एक जीवन साथी की आवश्यकता थी। सीमा उसे जीवन संगनी बनने के लिए सही लगी। उसने सीमा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा और उसके सामने सोने के चार कंगन रख दिए। यह वही कंगन थे जो उसे बॉर्डर पर मिले थे। वर्षों से उसके पास सुरक्षित थे। वह कंगन देखते ही सीमा फुट फुट कर रोने लगी। सुरेश ने उससे इतनी जोर से रोने का कारण पूछा। 


     सीमा ने पूछा आपको ये कंगन कहाँ मिले। सुरेश ने सब कुछ बता दिया कि उसे कैसे यह बंगलादेश सीमा पर मिले। सीमा ने रोते रोते बताया कि ये कंगन उसकी माँ ने उसके और उसकी बड़ी बहन के लिए बनवाये थे। उनका परिवार बंगलादेश का रहने वाला था। 2002 के गुजरात दंगों की आंच भारत देश की सीमा लाँघ कर उनके यहाँ पहुंच गई। स्थानीय चुनावों में मुस्लिम गुंडों ने हिन्दुओं के घरों पर हमला कर दिया ताकी वो वोट करने न जाये। अनेक हिन्दू लड़कियों की घरों से उठा लिया गया। उसकी बड़ी बहन ललिता भी उनमें एक थी। जिसकी लाश दो दिन बाद खेत में निवस्त्र मिली थी। ललिता के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था। उनका परिवार इतना डर गया कि उन्होंने तुरंत भारत आने का मन बना लिया। पिताजी ने एक दलाल को खोज निकाला जिसने घर की सभी जमापूंजी सीमा पार ले जाने के बदले मांग ली। मरते क्या न करते। जैसे तैसे रात को जीप में बैठकर सीमा से कुछ किलोमीटर पहले पहुंचे। फिर पैदल रात को पार करने लगे। तभी भारतीय सेना को उनकी आहत मिल गई। गोलियों की बौछार से जैसे तैसे बचते हुए भारतीय सीमा उन्होंने पार कर ली। उसी दौरान उसके हाथ से कंगनों की पोटली गिर गई। वहां से कोलकाता और उधर से बनारस अपने दूर के रिश्तेदारों के यहाँ पहुंचे थे। पिछले कुछ समय से सीमा ने गुजारे के लिए उस हस्पताल में नौकरी कर ली थी। 
 
                  यह आपबीती सुनकर सुरेश को रोना आ गया। उसकी और सीमा की आपबीती में कोई अंतर नहीं था। दोनों अपनी पूर्वजों की धरती से बेदखल हुए थे। दोनों को अपने परिवारों के सदस्यों, अपनी धन-संपत्ति, अपने मान को खोना पड़ा था। दोनों का एक ही शांतिप्रिय सम्प्रदाय ने शोषण किया था। दोनों एक ही बात सोच रहे थे कि  


                   "क्या इस धरती पर हिन्दू होना पाप है?"


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