इब्राहीम खान गार्दी


इब्राहीम खान गार्दी



अपनी मादर-ए-वतन को अपने मजहब से बड़ा समझने वाले वीर सेनानी इब्राहीम खान 'गार्दी' हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणाश्रोत हैं, जिसके लिए बाकी सब कुछ बाद में आता है और वतन पहले। इब्राहीम खान के पूर्वज, ऐसा माना जाता है कि, उस हिन्दू भील जाति से सम्बन्ध रखते थे, जो अपनी ही तरह की कुछ अन्य उपजातियों यथा वंजारा, पारधी, कोली, जोगी आदि के साथ दक्षिण भारत के तेलंगाना क्षेत्र में बुरहानपुर से लेकर हैदराबाद तक निवास करती थी। इन जनजातियों के एक बड़े भाग ने औरंगजेब के दक्षिण अभियान के समय इस्लाम स्वीकार कर लिया था और वो महाराष्ट्र के मराठवाडा क्षेत्र के हैदराबाद और तेलंगाना से सटे इलाकों में रहने लगे थे। गार्दी के नाम से पहचानी जाने वाले वर्ग की इन उपजातियों के लोग वीर योद्धा माने जाते थे जो अपने स्वामी के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर रहते थे। इन्हीं में से एक थे इब्राहीम गार्दी जो अपने रणकौशल, वीरता और स्वामीभक्ति के लिए एक मिसाल थे।


एक फ्रांसीसी कमांडर के सानिध्य में युद्ध कौशल में दक्षता प्राप्त करने वाले, तोपखाना विशेषज्ञ इब्राहीम खान का सैनिक जीवन हैदराबाद के निजाम की सेना में नौकरी पाने से प्रारम्भ हुआ था पर यहाँ रहते हुए उन्हें सीमित संसाधनों और निजाम की नीतियों के कारण कभी अधिक कुछ करने का अवसर नहीं मिला। निजाम और मराठों के बीच हुए एक युद्ध में इब्राहीम खान गार्दी के ऊपर मराठों ने विजय प्राप्त कर ली पर इब्राहीम खान की वीरता और युद्धकौशल के चर्चे सुन चुके मराठाओं ने उन्हें मारने के स्थान पर पेशवा की सेना में शामिल कर लिया और उनके जिम्मे 10000 सैनिकों की एक बटालियन सौंप दी जिसमें तोपखाना, संगीनधारी, धनुर्धारी, घुड़सवार, पैदल सेना आदि सभी शामिल थे, जो निजाम के यहाँ की उनकी 2000 संख्या वाली टुकड़ी की तुलना में बहुत बड़ी थी। उस समय संसार की सबसे बड़ी और शक्तिशाली सेनाओं में से एक मराठा सेना की इतनी बड़ी और अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित टुकड़ी का सेनानायक बनना इब्राहीम गार्दी के लिए अत्यधिक सम्मान की बात थी क्योंकि इतने उच्च पद तक पहुँचने वाले वे गार्दी समुदाय के पहले व्यक्ति थे।


अपनी वीरता, युद्धकौशल एवं निष्ठा के चलते इब्राहीम गार्दी ना केवल पेशवा के बल्कि उनके चचेरे भाई और मराठा सेना के प्रधान सेनापति सदाशिवराव भाऊ के भी अत्यंत निकट एवं विश्वस्त हो गए। पेशवा एवं भाऊ के साथ गार्दी की इसी निकटता के चलते अन्य मराठा सरदार ईर्ष्या की आग में जलने लगे और वो इस बात को अपना अपमान मानने लगे कि विभिन्न युद्धों की रणनीति बनाते समय भाऊ गार्दी से तो सुझाव लेते ही हैं पर उनके सुझावों को अंतिम रूप से मानने से पहले भी गार्दी से मंत्रणा करते हैं। परिणाम ये हुआ कि ये सब मराठा सरदार गार्दी द्वारा सुझाई गयी रणनीतियों को नुकसान पहुंचाने के लिए काम करने लगे, जिसका भीषण दुष्परिणाम देखने को मिला पानीपत के तृतीय युद्ध में, जिसमें इन स्वार्थी मराठा सरदारों की क्षुद्र सोच के चलते मराठा साम्राज्य को इतना नुक्सान उठाना पड़ा जिससे वो कभी उबर ही नहीं सका और जिसका अंतिम परिणाम मराठों की पराजय और अंग्रेजों की विजय के रूप में सामने आया जिसके बाद इस देश पर अंग्रेजों के पूर्णरूपेण शासन करने का मार्ग प्रशस्त हो गया। अहमदशाह अब्दाली के भारत पर हमले को विफल करने के लिए जब मराठों ने इस देश की सभी शक्तियों को एकजुट करने का प्रयास किया तो उसमें अनेकों हिन्दू राजा रजवाड़े तो मराठों को नीचा और स्वयं को ऊंचा समझने के कारण शामिल नहीं हुए और अधिकांश मुस्लिम शासक इस सोच के साथ मराठों से दूर रहे कि मराठे हिन्दू हैं और उन्हें अपने स्वधर्मी अब्दाली का साथ देना चाहिए। अब्दाली ने भी यहाँ के मुस्लिम शासकों की इस सोच का खूब लाभ उठाया और अपने हमले को हिन्दू मराठों के विरूद्ध मुस्लिमों के युद्ध के रूप में प्रचारित किया। पर इस सब के बीच भी इब्राहीम खान गार्दी जैसे व्यक्ति कभी इस तरह के दुष्प्रचार में नहीं आये क्योंकि उनका स्पष्ट मानना था कि वतन पहले, मजहब बाद में, जबकि उनको अपने पक्ष में करने के लिए अब्दाली ने हर तरह के प्रलोभन दिए।


मराठाओं और एक विदेशी आक्रान्ता के बीच हुए पानीपत के तृतीय युद्ध में भाऊ ने इब्राहीम खान के साथ मिलकर एक बड़ी उच्च कोटि की रणनीति बनायी परन्तु ईर्ष्यालु मराठा सरदारों ने या तो रणनीति के अनुरूप काम नहीं किया या वो युद्धक्षेत्र को ही छोड़ गए जिससे भाऊ की सारी रणनीति धरी रह गयी और परिणाम ये हुआ कि पूरी मराठा सेना गाज़र मूली की तरह काट दी गयी, पेशवा के पुत्र विश्वासराव एवं भाऊ समेत सभी सेनानायक खेत रहे और मराठों की एक पूरी पीढ़ी ख़त्म हो गयी। परन्तु इस सबके बीच भी गार्दी ने वीरता का असाधारण उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने साथ आने के प्रस्ताव को ठुकराने वाले गार्दी से अब्दाली भीषण बदला लेना चाहता था इसलिए सबसे ज्यादा तीव्र आक्रमण उसने उसी तरफ किया जिधर गार्दी अपने नियंत्रण वाली टुकड़ी के साथ डटा था। गार्दी की बटालियन को छिन्न भिन्न करने के अफगानियों के सभी प्रारम्भिक हमले बेकार गए अफगान सेना के लगभग 12000 एवं दुर्रानी सेना के लगभग 45000 सिपाहियों को गार्दी के जाबांजों ने यमलोक का रास्ता दिखा दिया। पर धीरे धीरे अफगानों की विशाल फ़ौज के सामने गार्दी की बटालियन कमजोर पड़ने लगी, उसके बंदूकची एक एक कर मारे जाने लगे और कुछ अँधेरे का फायदा उठा कर भाग निकले, पर अफगान सेना गार्दी को पकड़ने में असफल रही। वो 14 जनवरी 1761 का दिन था, जब अफगान सेना का साथ दे रहे अवध के नबाव शुजाउद्दौला की सेना ने उस समय वीरता की प्रतिमूर्ति इब्राहीम खान गार्दी को पकड लिया जब वो बुरी तरह घायल हो जाने के कारण युद्ध करने में असमर्थ हो गया। रोहेलखंड का शासक और अब्दाली का साथी नबाबुद्दौला हिन्दू मराठों का साथ देने के आरोप में गार्दी को भयंकर यातनाएं देना चाहता था इसलिए उसने अब्दाली के कान भर कर गार्दी को अवध के नबाव के शिविर से अब्दाली के यहाँ मंगवा लिया और फिर गार्दी को अब्दाली के सामने प्रस्तुत किया गया। इस पूरी घटना को प्रख्यात लेखक वृन्दावनलाल वर्मा के शब्दों में पढ़ना सर्वथा अलग अनुभूति देता है और इब्राहीम खान गार्दी के चरित्र को हमारी आँखों के सामने पूरी तरह स्पष्ट कर देता है। इस प्रसंग को वृन्दावनलाल वर्मा के शब्दों में देने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पा रहा हूँ।


अहमदशाह अब्दाली के सामने इब्राहीम गार्दी को लाया गया।
अहमदशाह ने पूछा तुम निजाम के यहाँ नौकरी छोड़कर मराठों के यहाँ क्यों गए।
उत्तर मिला, क्योंकि निज़ाम के रवैये को मैंने अपने उसूलों के खिलाफ पाया।
तुम्हारे उसूल! तुमने मुसलमान होकर फिरंगी जबान पढ़ी, मराठों की नौकरी की। तुमको शर्म आनी चाहिए और अपने कामों के लिए तौबा करनी चाहिए।
घावों की परवाह ना करते हुए इब्राहीम बोला, 'तोबा और शर्म! क्या कहते हो अफगान शाह? आपके देश में अपने मुल्क की मोहब्बत और खून देने वालों को क्या तौबा करनी पड़ती है? क्या उसके लिए सर नीचा करना पड़ता है?'
'तुम जानते हो कि किसके सामने हो और किससे बातें कर रहे हो?' अहमदशाह ने गुस्से में पूछा।
'जानता हूँ, और नहीं भी जानता होऊंगा तो जान जाऊँगा। पर यकीन है कि आप खुदा के फ़रिश्ते नहीं हैं।'
'मैं इतनी बड़ी फतह के बाद गुस्से को नहीं आने देना चाहता। ताज्जुब है, मुसलमान होकर तुमने जिन्दगी को इस तरह बिगाड़ा।'
'तब आप ये जानते ही नहीं कि मुसलमान किसको कहते हैं। अपने मुल्क को बर्बाद करने वाले विदेशियों का साथ दे, वह कभी भी मुसलमान नहीं।'
'क्यों कुफ्र बकता है? तोबा कर, नहीं तो टुकड़े टुकड़े कर दिये जायेंगे।'
'मेरे इस तन के टुकड़े हो जाने से रूह के टुकड़े तो होंगे नहीं।' इब्राहीम ने दृढ स्वर में कहा।
घायल इब्राहीम के ठन्डे स्वर से अब्दाली की क्रूरता कुंठित हुयी। एक क्षण सोचने के बाद बोला, 'अच्छा हम तुमको तोबा करने के लिए वक़्त देते हैं। तोबा कर लो तो हम तुमको छोड़ देंगे। अपनी फ़ौज में अच्छी नौकरी भी देंगे। तुम फिरंगी तरीके पर हमारी फ़ौज के कुछ दस्ते तैयार करो।'
कराह को दबाये हुए इब्राहीम के होठों पर एक रीनी-झीनी हंसी आ गयी। इब्राहीम अब अब्दाली के खिलवाड़ को समाप्त करना चाहता था।
उसने कहा, 'अगर छूट पाऊं तो पूना में ही फिर पलटनें तैयार करूँ और फिर इसी पानीपत के मैदान पर उन अरमानों को निकालूँ, जिनको निकाल नहीं पाया और जो मेरे कलेजे में धधक रहे हैं।'
'अब समझ में आ गया–तुम असल में बुतपरस्त हो।' अब्दाली ने विषैली फुंकार से कहा।
'जरूर हूँ, लेकिन मैं ऐसे बुत को पूजता हूँ जो दिल में बसा हुआ हो और ख्याल में मीठा हो। जिन बुतों को बहुत से हिन्दू लोग पूजते हैं और आप लोग भी, मैं उनको नहीं पूजता।'
'हम लोग भी! खबरदार!!'
'हाँ, आप लोग भी। मरे हुए मराठा सिपाहियों के सिरों के ढेर, जो हर तम्बू के सामने आप लोगों ने लगाये हैं और जिनके सामने आपने पठान और रुहेले नाच नाचकर जश्न मना रहे हैं, वह सब क्या है? क्या वह बुतपरस्ती नहीं? हिन्दुओं की और आप लोगों की बुतपरस्ती में इतना फर्क जरूर है कि जिन बुतों को वो पूजते हैं उनसे खून नहीं बहता और ना बदबू आती है।'
'हूँ ! तुम बहुत बदजुबान हो। तुम्हारा भी वही हाल किया जायेगा, जो तुम्हारे भाऊ और विश्वासराव का किया गया।'
पीड़ित, चकित इब्राहीम के मुंह से निकल पड़ा–'क्यों? उनका क्या हुआ?'
उत्तर मिला–'मार दिया गया, सर काट लिया गया।'
इब्राहीम की बुझती आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उसने कम्पित-कुपित स्वर में कहा, भाऊ !! मेरे सेनापति। विश्वासराव!! मेरे मुल्क का नाज!!! मेरे सिपाहियों के हौसलों का ताज!!! ओफ!' इब्राहीम गिर पड़ा।
अहमदशाह उसके तड़पने पर प्रसन्न था। उसकी निर्ममता ने सोचा कि जीत लिया इसे अब।
इब्राहीम जरा उठकर भरभराते स्वर में बोला, 'पानी !'
अब्दाली कड़का, 'पहले तोबा कर।'
जहाँ के तहाँ पड़े इब्राहीम ने कहा, 'तोबा ! शहीद कहीं तोबा करता है? तोबा वो करें जो कैदियों, घायलों और निहत्थों तक का क़त्ल करते हैं।'
अब्दाली से नहीं सहा गया। इब्राहीम भी नहीं सह पा रहा था।
अब्दाली ने उसके टुकड़े टुकड़े करने वध करने की आज्ञा दे दी।
एक अंग कटने पर इब्राहीम की चीख में से निकला–'मेरे ईमान पर पहली नियाज।' दूसरे पर क्षीण चीख में से–'हम हिन्दू-मुसलामानों की मिटटी से ऐसे सूरमा पैदा होंगे, जो वहशियों और जालिमों का नामोनिशान मिटा देंगे।'
फिर अंत में मराठों के बिग्रेडियर जनरल इब्राहीम खान गार्दी के मुंह से केवल एक शब्द निकला–'अल्लाह !' जिसको फ़रिश्ते के पंखों और इतिहास के पन्नों ने सावधानी के साथ अपने आंसुओं में छिपा लिया।


इब्राहीम खान गार्दी की इस अप्रतिम स्वामिभक्ति, देशभक्ति, वीरता और जज्बे ने उन्हें अपने समकालीनों में सबसे अलग स्थान प्रदान किया और आज भी दक्षिण के कई क्षेत्रों में लोकगीतों और लोककथाओं के नायक के रूप में इब्राहीम खान गार्दी अमर हैं। कोटिशः नमन। काश इस देश में मुस्लिमों के रहनुमा बनने वाले लोग अपने युवाओं और बच्चों को गज़नी और गौरी के स्थान पर गार्दी जैसे नायक से परिचित करवाते तो आज इस देश का नक्शा ही कुछ और होता।




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