गंवईसुख बनाम अपसांस्कृतिक बाजारवाद

गंवईसुख बनाम अपसांस्कृतिक बाजारवाद


       पिछले दिनों एक मजेदार खबर पढ़ने को मिली। खबर पढ़कर एक बार खबर की विश्वसनीयता पर यकीन नहीं हुआ, लेकिन जब इसके पीछे के कारणों को पढ़ा तो लगा, खबर की सच्चाई पर शक करना ठीक नहीं है। खबर के मुताबिक अमरीकी लोग शहरों की अपेक्षा गांवों में रहना अधिक पसंद करने लगे हैं। इसका कारण गांव की आबोहवा, शांति, सौहार्द और स्वतंत्रता के साथ जीने का अलौकिक मजा बताया गया था। मैं सोचने लगा, भारत में तो इसके ठीक उल्टा हो रहा है। लोग गांवों से पलायन करके कस्बों या शहरों में बसना अधिक पसंद करने लगे हैं । अमेरिका में हो रहे इस बदलाव की वजहें ऐसी नहीं है कि वह अविश्वनीय लगे। क्योंकि अमेरिका ऐसा देश है जहां सुख-सुविधाओं की अपेक्षा अब लोग शांति, आंतरिक सुख और प्रदूषण रहित माहौल को पसंद करने वाले लाखों में हैं। जबकि अभी तक यही माना जाता रहा है कि शहर की सुख-सुविधाओं और आय के बेहतर साधनों को छोड़ लोग गांव में नहीं रहना चाहते। गौरतलब है भारत में गांव पिछड़ेपन की निशानी है तो अमेरिका में शांति और आनन्द के धाम । यही नहीं अनेक विकसित देशों के सरकारी और प्राइवेट मुलाजिम भी गांवों में रहना अधिक पसंद करने लगे हैं। यानि विकास का प्रतीक विकसित देशों में शहर नहीं गांव होते जा रहे हैं


       भारत के गांवों में न तो सरकारी डाक्टर अपनी सेवा देना चाहते है और न ही ग्राम सेवक । दोनों को शहर वक। दोनों को शहर छोडना अत्यंत कष्टकर लगता है। केन्द्र सरकार ने पहली नियुक्ति के तहत डाक्टरों को कुछ साल तक गांवों में सेवा देना अनिवार्य तो कर दिया है लेकिन अब भी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। आज गांवों की स्थिति अत्यन्त शोचनीय बन गई है। जो गांव भारत के गौरव, पहचान और अस्मिता के प्रतीक हुआ करते थे वे भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के प्रभाव के चलते-चलते अपने गौरव और पहचान खोते जा रहे हैं। ग्राम्य संस्कृति, कला, शिक्षा, व्यवहार और आचारविचार की जो अहमियत कभी हुआ करती थी, वह अब बाजारीकरण और शहरीकरण के चपेट में आकर अपनी अहमियत खो चुके हैं और जो बचे हैं वे भी खोते जा रहे हैं।


गांवों की लोक संस्कृति, लोक कलाओं, लोक शिक्षा, लोक धर्म और लोकभाषा कभी भारत की पहचान हुआ करते थे। इनकी अहमियत शहरों और नगरी संस्कृति में पले-बढे लोग भी किया करते थे। गांधी. बिनोबा लोहिया, जेपी, लालबहादुर शास्त्री व चौधरी चरण सिंह जैसे स्वदेशी के हिमायती महापुरुषों ने गांवों के बढ़ने में ही भारत के बढ़ने के सूत्र देखे थे। इसलिए गांधी और रही है कितनी पूरी करती है। एक कार्यकाल बीतने के बाद भी गांव, गंगा, गाय और गौवंश की हिफाजत करने के सारे वादे अभी वादे ही बने हुए हैं। एनडीए सरकार से बहुत उम्मीदें हैं। मोदी एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उन्होंने गांव, गरीबी, गाय, गंगा और गौवंश की समस्या को बहुत पास से देखा है। गांव की बदहालीको जोसमझता है वही गांव और गांव की सभी प्रकार की प्रवृत्तियों को समझ सकता है। इसलिए मोदी अधिक कारगर ढंग से गांव की समस्या को समझ सकते हैं। लेकिन अभी जितनी योजनाएँ गांव, गंगा और गौवंश की हिफाजत के लिए बनाई गई है, उस पर अभी कोई ठोस कार्य होता नजर नहीं आ रहा है। लोहिया गांवों के कुटीर उद्योग, ग्राम्य-शिक्षा, ग्राम्य-संस्कृति, शाकाहार-संस्कृति और ग्राम्य-कलाओं को संरक्षित करके आगे बढ़ाने के लिए सबसे जरूरी मानते थे। लेकिन यह त्रासदी कहेंगे या विडम्बना । गांधी का नाम लेकर कांग्रेस ने और लोहिया का नाम लेकर लोहियावादियों ने इनके किसी एक भी विचार मॉडल को नहीं अपनाया। सभी पार्टियां गांवों की बात तो करती है लेकिन गांवों की पहचान को संरक्षित करने, गांवों का विकास करने और गांव की अस्मिता की रक्षा करने के महत्वपूर्ण कार्य को अमलीजामा पहनाने से परहेज करती रही है । आज भी गांव विकास के प्राथमिकता की सूची में नहीं है। शहर की छांव तले जितने भी गांव हुआ करते थे वे सभी शहर के हिस्से हो गए हैं और वहां भी एक बड़ा बाजार खड़ा हो गया है। नाम तो आज भी इनका वही पुराना गांव का ही है लेकिन वहां गांव दूर-दूर तक नहीं है।


नई मोदी सरकार गांव, गाय, गंगा और गौवंश की हिफाजत में इनके संरक्षण की बात कही थी। मोदी प्रधानमंत्री है। देखना यह है कि जो वह गाय, गंगा और गौवंश की रक्षा के लिए विशेष कदम उठाने की बात कह


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