भारत में गुरुकुल परम्परा


सायं प्रातश्चरेद् भैक्षं गुरवे तन्निवेदयेत्।


भुञ्जीत यद्यनुज्ञातो नो चेदुपवसेत् क्वचित्॥


 


याज्ञवल्क्यस्मृति में भी कहा गया है


"ब्राह्मणक्षत्रियविशां भैक्षचर्या यथाक्रमम्॥"


गुरुकुल में रहकर अनेक स्थानों के विद्यार्थी अध्ययन करते थे तथा अपने वर्णानुसार मर्यादाओं का पालन करते थे। गुरु की सेवा में शिष्य पूर्ण रूप से समर्पित रहकर अध्ययन करता हुआ आशीर्वाद व योग्यता प्राप्त करता था। उज्जयिनी में सान्दीपनी के आश्रम में अध्ययन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण गुरु की सेवा जंगल से काष्ठादि लाकर करते थे और अन्त में गुरु के लिए दक्षिणा रूप में उनके मृत पुत्र को यमराज के यहां से लाकर सौंपते हुए गुरुदेव से कीर्ति और वेदज्ञान-प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त कियागुरुकुल में रहता हुआ विद्यार्थी अपने माता-पिता की अपेक्षा गुरुदेव से अधिक प्यार, दुलार, हितादि को प्राप्त करता था। गुरु शिष्य को मुक्ति प्राप्त करने तक की विद्या प्रदान करता था। ‘सा विद्या या विमुक्तये' के अनुसार विद्या से मुक्ति प्राप्त होती थी। गुरु द्वारा पढ़ाई जाने वाली विद्या का अधिकारी कोई शिष्ट शिष्य ही होता था। क्योंकि श्रेष्ठ का आचरण अन्यों के लिए अनुकरणीय होता है। जैसा कि श्रीमद्भागवद गीता में भगवान श्रीकष्ण ने कहा


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।


स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तत।


प्राचीन भारत गुरुकुल शिक्षा से ही व्यवस्थित संस्कृति की पहचान वाला देश था और तभी यह सोने की चिडिया कहलाकर अपनी धनाढयता सिद्ध करता था। वर्तमान समय में गुरुजनों के प्रति उपेक्षा के भाव ने संस्कृति का रूप क्षत-विक्षत-सा कर दिया है। -


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