आर्य जगत्
सं वर्चसा पयसा सं तनूभिः, अगन्महि मनसा सं शिवेन
त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायो, अनु माष्टुं तन्वो यद् विलिष्टम्।।
• [हम] (वर्चसा) ब्रह्मवर्चस से [और], (पयसा) दूध से, माधुर्य से, (सम् अगन्महि) संयुक्त हों, (तनूभिः) शरीरों से, (सम्) संयुक्त हों, (शिवेन मनसा) शिव मन से, (सम्) संयुक्त हों।, (सुदत्रः) शुभ दानी, (त्वष्टा) जगद्-रचयिता परमेश्वर, (रायः) [धन, चक्रवर्ती राज्य, सुख, आरोग्य आदि] ऐश्वर्यों को, (वि-दधातु) प्रदान करे, [और], (यत्) जो, (तन्व:) शरीर का, (विलिष्ट) त्रुटिपूर्ण अंग है, उसे, (अनु माष्टुं) परिमार्जित करे।
• हम चाहते हैं कि हम संसार में सर्वांग-सुन्दर बनकर रहें, षोडशकल चन्द्र के समान परिपूर्ण बनकर निवास करें। हमारे अन्दर ब्रह्मवर्चस हो, आत्मिक तेज हो, जिसके सम्बन्ध में कभी ऋषि विश्वामित्र ने कहा था कि ब्रह्म-तेज ही सच्चा बल है, अन्य बल उसके सम्मख निःसार है। वह ब्रह्म-तेज का ही बल है, जिसके द्वारा शरीर से दुर्बल होते हुए भी अनेक मानव कोटि-कोटि जनों को अपने चरणों में झकाते रहे हैं। साथ ही हमें ‘पयः' भी प्राप्त हो। पयस्' शब्द दूध का वाचक होता हुआ भी रस, माधुर्य, शान्ति, निर्मलता, निश्छलता, सात्त्विकता आदि का भी द्योतक है। हमें पीने के लिए गो-रस और हृदय में बसाने के लिए उक्त माधुर्य आदि गुण प्राप्त हों। हम शरीरों से भी पृष्ट हो हृदय में बसाने के लिए उक्त माधुर्य आदि गुण प्राप्त हों। हम शरीरों से भी पुष्ट हों। हमारे अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय रूपवाले पंच शरीरों का समुचित विकास हो। हमारा मन भी शिव हो, क्योंकि जब तक मन अशिवसंकल्पों से युक्त रहेगातब तक हमें किसी भी क्षेत्र में उत्कर्ष प्राप्त होना सम्भव नहीं है। मन को साधकर ही मनुष्य उन्नति की ओर अग्रसर होता है, और मन की जीत पर ही उसकी जीत निर्भर है, मन के हारने पर उसका हारना अवश्यम्भावी है। त्वष्टा' परमेश्वर सारे जगत् का तरखान है, शिल्पी है, जिसका हस्त-कौशल सम्पूर्ण विश्व में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। वह ‘सुदत्र' है, निरंतर सबको शुभ वस्तुओं का दान करता रहता है। वह हमें भी शुभ ऐश्वर्यों का-धन, चक्रवर्ती राज्य, सुख, आरोग्य आदि का दान करे। वह हमें भौतिक एवं आध्यात्मिक समस्त शुभ 'सम्पत्तियों का अधीश्वर बनादे। हमारे शरीर का कोई अंग यदि सदोष या त्रुटिपूर्ण हो गया है, तो वह कुशल शिल्पी उसे परिमार्जित, सुसंस्कृत एवं परिशद्ध कर दे। यदि हमारे नेत्रों की दष्टि शक्ति मन्द हो गई है अथवा दृष्टि-शक्ति मन्द हो गई है अथवा दृष्टि-शक्ति तीव्र होते हुए भी हम उसका उपयोग अभय दृश्यो को देखने में करते हैं, तो त्वष्टा प्रभु हमारी मन्द या अपवित्र नेत्र-शक्ति को शुद्ध कर दें। इसी प्रकार श्रोत्र, मुख, नासिका आदि अन्य अंगों को भी मांजकर तीव्र-शक्तिमय एवं पवित्र कर दे। हे कलाकार त्वष्टा प्रभु! , तुम हमारी तूलिका से रंग भरकर हमें सर्वांग-सुन्दर, सर्व-गुण-सम्पन्न और सर्व-शक्ति-समन्वित कर दो।
हरिद्वारकाप्रसाद -
• महात्मा आनन्द स्वामी
पिछले अंक में महात्मा आनन्द स्वामी जी ने कहा कि देश तथा संसार में अशान्ति का राज्य है। संसारी लोग जिस मार्ग पर अग्रसर है वह सर्वनाश की ओर ले जाने वाला है। ऐसे में मन को वश में रखना बहुत ज़रूरी है। एक कहानी के माध्यम से स्वामी जी ने दुःखी जनता को सुखी बनाने के लिए चार सकारों की बात कही। संध्या और स्वाध्याय नाम से पहले दो सकारों की विशद चर्चा की। आइए शेष दो सकारों की बात सुनें। अब आगे ...
तीसरा 'स' तीसरा 'स' सत्संग की ओर संकेत करता है। सत्संग एक ऐसी ज्ञान-गंगा है जहाँ पापी भी पार उतर जाते हैं क्योंकि सत्संग किसी पाप को रहने ही नहीं देता। एक भक्त ऊपर बैठा था, नीचे से सन्तरे बेचने वाले ने आवाज़ दी ‘ले लो अच्छे सन्तरे'। भक्त पुकार उठा, तू ठीक कहता है, अच्छे के संग से ही तरा जा सकता है, लोहा नाव के संग तर जाता है। पापी भी महात्माओं की संगति से अपने पाप धो लेते हैं। जैसे लोगों के पास आप बैठेंगे वैसे ही आप भी बनते जायेंगे - संगति से गुण ऊपजे, संगति से गुण जाय। जल-बिन्दु मुकता बने, जहर होत अहि खाय।। जल की बिन्दु तो एक ही है परन्तु सीप में गई तो मोती का रूप धारण कर लिया और सांप ने पिया तो हलाहत विष प बन गया। अतएव नीच की संगति कदापि न करनी चाहिए। सर्वदा अच्छे, नेक और पुण्यात्मा लोगों के पास बैठना । जहाँ हवन, यज्ञ, प्रभु-कीर्तन, समाज-सुधार, देशोद्धार की बातें हों वहाँ सौ काम छोड कर भी पहँच जाना । सत्संगति की महिमा गायन करते हुए कवि ने ठीक ही कहा है- तात, स्वर्ग-अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग। तुले न ताही सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग।। _ भक्तवद्भक्तों का संग निःसन्देह मनुष्य को कुन्दन बना देता है। यदि सत्संग में जाते-जाते बहुत दिन हो गये हैं और जीवन में पवित्रता नहीं आई तो घबराइये नहीं, अत्यन्त मैले वस्त्र को बहुत बार भट्टी पर चढ़ाना पड़ता है तभी वह निर्मल हो सकता है। चौथा 'स' चौथे 'स' का प्रयोजन है सेवा । पहले जो तीन स कहे हैं। इनको प्रयोग में लाने से मनुष्य में लौकिक तथा अलौकिक शक्ति आने लगती है। यदि इस शक्ति को दुखियों की सेवा में लगाया जाय तो कुछ अभिमान तथा अहंकार का रोग उत्पन्न हो जाता है और जब अभिमान आ जाये तो समझो कि सारा किया-कराया निष्फल हो गया। जैसे वृद्धावस्था रूप का, आशा धैर्य का, मत्य प्राणों का, क्रोध प्रेम का हरण कर लेता है,
है, इसी प्रकार अभिमान सर्व गुणों तथा बलिदानों को हर लेता है। इस अभिमान से मन को बचाये रहने और नम्रत माधुर्य तथा आनन्द को बढ़ाने के लिए सेवा एक अचूक साधन है। सन्ध्या, स्वाध्याय और सत्संग से यदि हृदय विशाल नहीं हुआ तो फिर इनका क्या लाभ, और जो विशाल हृदय हो गया तो वह फिर स्वयं नहीं खाता, दूसरों को खिला कर प्रसन्न होता है, और यदि विशाल हृदय बनने से एक डिग्री नीचे रहा तो उदार हृदय तो अवश्य बन जाता है और उदार हृदय वह है जो स्वयं भी खाता है और दूसरों को भी खिलाता है। देखते नहीं हो अपने देश में और दूसरे देशों में भी कितना हाहाकार मचा हुआ है? है कोई सुखी दिखलाई देता? किसी का भी हृदय टटोल देखो, सब दुःख के सागर में बहे चले जा रहे हैं. कितना चीत्कार है। भूख ने, प्यास ने, कष्टों ने, चिन्ताओं ने, मूर्खता, अज्ञान, लोभ, व्यभिचार, अनाचार ने कितनी आग भड़का रखी है! इसको शान्त करने के लिए तन, मन, धन से यत्न करो। यदि पल्ले कुछ भी नहीं तो दो मीठे वचन बोल कर ही किसी दुखिया को सन्तोष दे दो। जब आप किसी प्यासे को पानी, भूखे को भोजन देते हैं तो क्या आपके मन में प्रसन्नता नहीं होती और जब संसार के दुखियों के दुःख को देखते हैं तो क्या मन में करुणा का संचार नहीं होता? अतएव सेवा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने दो। मुझे आर्यसमाज का यह कार्य बहत भला प्रतीत होता कि उसने ईश्वर-भक्ति के साथ दुखियों, पीड़ितों की सहायता, विधवाओंअनाथों की रक्षा और अज्ञानियों को ज्ञान देने का कार्य जारी किया और उसको इस कार्य में संलग्न देखकर दूसरों ने भी उसका अनुकरण किया। इस समय देश को ऐसे सेवकों की आवश्यकता है जो अन्न, दूध, घी, वस्त्र इत्यादि की कमी को पूरा करें। गौओं की वृद्धि और रक्षा के बिना यह उद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकता। हर प्रान्त, हर जिले में आदर्श गोशालाएँ, पंचायती ढंग से स्थापित करोजहाँ से जनता को शुद्ध दूध, घी सस्ता