बृहदारण्यकोपनिषद्
बृहदारण्यकोपनिषद्
23. सत्य ही धर्म है तभी सत्य बोलने वाले के लिए कहा जाता है कि यह धर्म कहता है और धर्म बोलने वाले के लिए कहा जाता है यह सत्य कहता है। वस्तुतः धर्म और सत्य दोनों पर्यायवाची शब्द है।
24. याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी मैत्रेयी को आत्मोपदेश देते हुए कहा था अपनी आत्मा की कामना के लिए ही धन, पति, पत्नी, पुत्र, भाई, बहन अदि प्रिय होते हैं। वह आत्मा ही तो दृष्टव्य, श्रोतव्य, मन्तव्य और निदिध्यासितव्य है। उसी को देख, सुन, जान और उसी का ध्यान कर। ऐसा करने से ही सब गांठे खुल जाती हैं। अत: आत्मा को जानो... आत्मा को जानो। वस्तुतः प्यार तभी तक रहता है जब तक एक दूसरे को प्यार करते रहो। यदि ऐसा होता तो आज तक कभी भी कोई पिता अपने पुत्र को घर से निकालकर अपनी सम्पत्ति आदि से वंचित न करता अथवा पुत्र अपने पिता को घर से न निकालता। इसी प्रकार किसी भी पति-पत्नी में तलाक को लेकर अलग होने की भावना उत्पन्न न होती। अतः हम किसी को भी तभी तक प्रेम करते हैं जब तक हमारी आत्मा को वह संतुष्ट करता रहता है, जो भी हमारी आत्मा को दु:खी करता है तो हम उससे छुटकारा पाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वस्तुतः जब हम एक दूसरे से प्रेम कर रहे होते हैं तो हम अपनी आत्मा से प्रेम कर रहे होते हैं।
25. याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी मैत्रेयी को ब्रह्मविद्याका उपदेश देते हुए कहा थाप कि पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता परन्तु अपनी आत्मा के ही प्रयोजन के लिए वह प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय नहीं होती परन्तु अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय होती है। अतः प्रत्येक वस्तु अपने ही प्रयोजन के लिए प्रिय लगती है। अतः संसार का कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के लिए कुछ भी नहीं कर सकता। जब तक उसे दिव्यानन्द या ब्रह्मानन्द प्राप्त न हो जायेसंसार के सब व्यक्ति अपनी स्वार्थ के लिए ही कार्य करते हैं। परन्तु परमात्मा एवं महापुरुष केवल दूसरों के कल्याण के लिए ही कार्य करते हैं। क्योंकि परमात्मा ही आनन्द है ओर महापुरुष को आनंदानुभूति हो चुकी है।