ओ३म्‌कार माहत्म्य

ओ३म्‌कार माहत्म्य


        आज लोग ईश्वर को छोड़ कर किसी अन्य देवी देवताओं का स्मरण अनेकों नामों से करने लगे है जब की सभी प्रमाणित धर्म शास्त्र उस अदृश्य शक्ति का नाम ओ३म कहते है जानिए :-


       १) ओ३म् प्रतिष्ठ l यजुर्वेद २-१३


           हे मनुष्य, ओ३म् पर विश्वास रख l


       २) ओ३म् खं ब्रम l यजुर्वेद ४०-१७
           ओ३म् परमात्मा सर्वव्यापक (खं) ओर सबसे महान (ब्रम) है l


       ३) ओ३म् क्रतो स्मर l यजुर्वेद ४०-१५
             हे मनुष्य, ओ३म् का स्मरण कर l


        ४) ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं l भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वओ३म्‌कार एव । यच्चान्यतत्रिकालातीतं, तदप्योओ३मकार एव ll
माण्डुक्योपनिषद प्रथम मंत्र l
           'ओ३म्' यह अक्षर है उस ओ३म् का ही यह सब फैलाव है l भूत वर्तमान और भविष्य यह सब ओ३म्‌कार ही है l और जो इसके सिवा तीन काल से बाहर है () वह भी ओ३म्‌कार ही है l


        ५) ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत l ओमिति ह्युद्गायति l तस्योव्याख्यानम् l


           अर्थ –इस अविनाशी उच्च स्वर से गाये जाने वाले (ओ३म् + इति) ओ३म्‌कार की उपासना करे lक्योकि ओ३म्‌कार ही उचक स्वर से गाया जाता है l उस (ओ३म्) का (आगे) व्याख्यान किया जायेगा l


       ६) ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात् ll
मुण्डकोपनिषद् द्रितीय खंड – ६
अर्थ : उस आत्मा का ध्यान ओ३म् समजकर ध्यान करो, वह अन्धकार से परे और पार होने के लिए है l तुम्हारा कल्याण हो ll


         ७) प्रणवो धनु: शरो आत्मा ब्रम तल्लक्ष्यमुच्यते l
अप्रमतेन वेद्रव्यं शरवत्त्‌न्मयो भवेत् ll
मुण्डकोपनिषद् द्रितीय खंड – ४
अर्थ – ओ३म्‌कार धनुष है निश्चय जीवात्मा बाण है वह ब्रम लक्ष्य कहा जाता है (प्रमाद = आलस्य रहित चित्त से बींधना चाहिए बाण के तुल्य तन्मय होना चाहिए l


        ८) ओमिति ब्रम l ओमितिदमं सर्वम् । ओमत्येतदनुकृति ह स्म वा अप्यों श्रावयेत्या श्रावयन्ति । ओमिति सामानि गायन्ति । ओम् शोमिति शस्त्राणि शंसन्ति । ओमित्यध्वर्यु: प्रतिगरं गृणाति । ओमिति ब्रह्मा प्रस्तौति । ओमित्यग्निहोत्रमनुजानाति । ओमिति ब्राह्मण: प्रवक्ष्यन्नाह । ब्रह्मोपाप्नुवानीति। ब्रह्मोवोपाप्नेति ।
तैत्तिरीयोपनिषद्‍ अष्टमोड्नुवाक : १


         ओ३म् ही ब्रम है, ओ३म् ही सब कुछ है, संसार ओ३म् ही की रचना है । गुरू शिष्य का जब भी पाठ सुनाने कहते है तब शिष्य ओ३म् कहकर ही पाठ सुनाता है । ओ३म् कहकर ही सामगान करता है । ओ३म् कहकर ही शास्त्र पाठ की शरूआत करता है, और और ओ३म् कहकर ही पूर्णाहीत करता है । ओ३म् कहकर ही यर्जुर्वेद का पाठ करता है और ओ३म् कहकर ही अग्निहोत्र करन के करने के लिए कहता है । वैदिक ब्रामण ओ३म् कहकर ही प्रवचन करते है और कहते है ओ३म् के द्वारा मे ब्रम को प्राप्त कर रहाहुं और वो ओ३म् के द्वारा ब्रह्म् को प्राप्त कर लेते है ।


       (९) सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्रदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यम चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत॥
कठो उपनिषद द्रितियवल्ली ॥१५॥


          अर्थ – चारो वेद जिस पदका वर्णन करते हैं सारे तप और नियमादि जिस पद का कथन करते है, जिस पद की इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य के नियमों का आचरण करते है उस पद को तेरे लिए संक्षेप से ओ३म् है यह कहता हुं ।


       (१०) तमोंकारेणैवायतनेनान्वेति विद्रान ।
यत च्छान्तमजरमृतमभयं परच्चेति ॥
- प्रश्र्नोपनिषद ५-७
अर्थ :- ओ३म् के आवलंबन सेहि विद्वान लोग ब्रह्मलोक को प्राप्त होते है । जो ब्रह्म शांत, अजर, अमर, अभय और सर्व से श्रेष्ठ है । ओ३म् का ध्यान करता हुआ जो प्राण का त्याग करता है वो ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है ।


        (११) तस्य वाचक : प्रणव : । (योगदर्शन १/२७ )
              उस इश्वर का वाचक ओ३म् (प्रणव) है ।


        (१२) तज्जपस्तदर्थभावनम् । (योगदर्शन १/२८)
               उस् परमात्माका जप अर्थ के साथ् (ओ३म् इश्वर की) और साथ मे भावना साथ साथ करनी चाहिये ।


        (१३) अकारं चाप्युकारं च् भकारं च प्रजापति : ।
                 वदत्रयान्निरदुयद् भूभर्व: स्वरितीति च् ॥
                                                                     मनुस्मृति २/७६
         परमात्माने ओ३म् अक्षर के अ, उ, म् इन तीन अक्षरो को तथा मू:, भुव:, स्व: गायत्री म्त्र की इन तीन महाव्याहुतिओको तीनो वदो मे से साररूप नीकाली है ।


        (१४) एकदक्षरमेतां च जपन्व्याहुतिपूर्विकाम् ।
               संध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन पुज्यते ॥
                                                                  - मनुस्मृति २-७८
          इस ओ३म् अक्षर को और भू:, भुव:, स्व:, इन् महाव्याहुतिया सहित साधक को गायत्री मंत्र जपना चाहिए तथा सवेर शाम संध्योपासनाविधि और वदाध्ययनका पुण्य़ का सहभागी बनना चाहिये ।


         (१५) ओमित्यकाक्षरं ब्रम व्याहरन मामनुस्मरन ।
                य: प्रयाति त्यबन् यह् स् याति परमां गतिम् ॥
                                                                          भगवदगीता ८/३१
          जो साधक ओ३म् इस एकाहार् ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ ओ३म् ही का स्मरण करता हुआ देह त्याग करता है वह परमगति को पाता है ।


        (१६) वेधं पवित्रमोंकारम् ऋक् साम यजुरेव च ॥ भगवदगीता ९/१७
               यह ओ३म्‌कार् पवित्र है, जानने योग्य है,
उस ब्रह्म का उपदेश प्राप्त करने
ऋग्वद, यजुर्वेद, सामवेद भी जानने योग्य है ।


       (१७) ओ३म् तत्सदितिनिर्देशाद ब्रामणस्त्रिविध: स्मृत: ॥ भगवदगीता १७/२३
              ओ३म् तत् सत् इन तीन पदो मे ब्रह्म का निर्देश है ।


        (१८) तस्मादोमित्युदाहत्य यज्ञदानतप: क्रिया ।
               प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्म वादिनम् ॥ भगवदगीता १७/२४
ओ३म् इस अक्षर का उच्चारण करके ब्रमवेता अधक का विधिपूर्वक यज्ञ,
दान, तप इत्यादि कार्य करे अर्थात् ब्रह्मवेत्ता साधक हरकाम ओ३म् के साथ ही करे ।


        (१९) न नामनीरयित्वा ब्रामण : ब्रम वदेयु : ।
               यदि वयपुरब्रम स्यात ॥
                                                गोपथ ब्रामण १-१३
         ओ३म् का उच्चारण कीये बीना कोइ वेदोध्यन न करे, अगर ओ३म् का उच्चारण कीये बीना वेदोध्यन कीया तो वेदाध्यन निष्फल होगा ।


         (२०) एतद्रयेवाक्षरं ब्रह्म एतद्रयेवाक्षरं परम् ।
                एतद्रयेवाक्षरं सात्वा थो यदिच्छति तस्य तत् ॥
                                                                        कठोपनिषद १।२।१६
           यह ओ३म् अक्षर ही ब्रह्म है, ओ३म् अक्षर ही सर्वोतम है । इस अविनाशी ओ३म् अक्षर ब्रह्म को जानकर कोई भी जो कुछ भी चाहता है हव उसे प्राप्त कर लेता है ।


         (२१) एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।
                एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥
                                                                 कठोपनिषद १।२।१७
           ओ३म्‌कार आश्रय ही श्रेष्ठ है, सर्वोतम है । इसी आश्रय के सहारे मोक्षप्राप्ति होती है ।


          (२२) ऋग्निरेतं यजुर्भिरन्त रिक्षं स्
                 सामभिर्यत्कवयो वदपन्ते ।
                 तमोओ३म्‌कारे णैवायतनेनाविति विद्वान
                यच्छान्तमबर् ममृतमभयं परं चेति ॥
                                                               प्रश्रोउपनीषद ५।७
जब मनुष्य ऋग्, यजु : और साम् (ज्ञान, कर्म और उपासना) तीनो का कामो मे लाता हुआ इस लोक तथा परलोक से उपर ओ३म् इस् ब्रम को प्राप्त कर लीया करता है तो शान्त, अमर तथा जरा अवस्था से रहित् है तभी उसे परमानंद की प्राप्ति होती है ।     


         (२३) तस्मै स हावाच । इतद्वै सत्यकाम । परं
               चापरं च ब्रम यादोओ३म्‌कार:
               तस्माद्विद्वानेतेनैवाडडयतनेनैकतरमन्वति ॥
                                                                  प्रश्रोपनीषद ५।२
प्रश्र्नकर्ता को बताया कि जो पर और अपर ब्रह्म है वह ओ३म्‌कार ही है ।
इसीलीये साधक इसी ओ३म्‌कार के सहारे पर ब्रह्म और अपर ब्रह्म दोनो मे से जीसे चाहे उसे प्राप्त कर लेता है ।


          (२४) आत्माभैषज्यमात्मकैवल्यमौकार : ।
                 गोपथ ब्रामण प्रथम प्रपाठक ३० वी कण्डिका
ओ३मकार आत्मा की चिकित्सा और आत्मा की मुक्ति देने वाला है।


          (२५) अमृतं वै प्रणव: अमृतनैव तन्मृत्यु चरति ।
                  तध्यथा मंत्रेण वा वंशेन वा गतं संक्रमेत एवं तत्प्रणवनोपसन्तनोति ।।
गोपथ ब्राह्मण तीसरा प्रपाठक ११ वी कण्डिका
प्रणव = ओ३म् जीवन है जीवन ओ३म् के द्वारा मृत्यु को पार करता है । जैसे बांस के द्वारा गढ को लांधा जाता है ऐसे ही ओ३म् के द्वारा जीवन मोक्ष को पाता है ।
ओ३म् को भवसागर से पार लांघनेवाला है । मानव जीवन का आदि और अन्त ओ३म् ही है । शास्त्रो मे एसा विधान है जब बालक अथवा बालिका का जन्म हो, तो स्नान के पश्चात सबसे पहेले स्वर्ण की शलाका से मधु तथा धी के साथ बच्चे की जिह्वा पर “ओ३म्” लीखो जन्मकाल सेही मानव को आदेश मिला की तेरी वाणी मे सदा ओ३म् ही रहे, यही तेरे जीवन का आधार है ।


          (२६) अद्रष्टविग्रहो देवी भावग्राह्यो मनोमय: ॥
                   तस्योओ३म्‌कार: स्मुतो नाम तेनाडडहुत: प्रसीदति ॥
योगी यारावल्क्य कहते है,
जो ब्रह्म अद्रश्य है इन इन्द्रियो से देखा नही जाता, जो भावमात्र से गृहित होता है और मनन द्वारा जीसका परिचय होता है उसका नाम ओ३म् है । इस नामसे पुकारने से वह प्रसन्न होता है ।


         (२७) गुरू नानक देवजी ने भी ओ३म् को जपने का आदेश दीया है ।
         ओ३म्‌कार ब्रम उत्पति, ओ३म्‌कार किया जीन पिता ओ३म्‌कार् सैल जुग भए, ओ३म्‌का वेद् निरमण ओ३म्‌कार शब्द जप रे, ओ३म्‌कार गुरूमुख तेरो ओ३म्‌कार अखर सुनह विचार, ओ३म्‌कार अखर त्रिभुवने सार ।


प्रणवो आदि एक ओ३म्‌कारा, जलथल महीथल कीयो पसारा ॥


ओ३म्‌कार् अर्थ विचार


ओ३म् अक्षर मे परमात्मा के वो सब अर्थ आ जाते है जो परमात्मा के गुणॊ मे आते है । ओ३म् के तीन विभाग अकार, उकार, मकार


अ - विराट्, अग्नि, विश्र्व आदी ।
जो सब जगत क्को प्रकाशीत करता है ।
इसका अर्थ सत् भी है ।


उ - हिरण्यगर्भ, वायु, तेजस ।
जो तेज प्रधान वस्तुओका ठिकाना तथा आचार है । अनन्त बलवाला तथा सारे जगत को जानने वाला तथा धारण करने से वायु । इसका अर्थ चित् भी है ।


म् - ईश्, प्राज्ञ, आदित्य ।
जैसे परमात्माके गुण अनंत है वैसे जैसे ओ३म् के अर्थभी अनेक है। इसका अर्थ आनंदभी है ।


        संक्षेप मे ओ३म् का अर्थ हुआ सच्चिदान्द स्वरूप परमात्मा
        तो ओ३म् ही जीवन है, ओ३म् ही आधार है, ओ३म् ही बल है, ओ३म् ही ज्ञान है, ओ३म् ही विज्ञान है, ओ३म् ही प्राण है, ओ३म् ही विवेक है, ओ३म् ही प्रकाश है, ओ३म् ही कर्ता है, ओ३म् ही विधाता है, ओ३म् ही सर्व रक्षक है, ओ३म् ही परब्रम है, ओ३म् ही अपर ब्रम है, ओ३म् ही माता है, ओ३म् ही पिता है, ओ३म् ही सखा है, ओ३म् ही बन्धु है, ओ३म् ही ज्योत है, ओ३म् ही सच्चिदान्द है, ओ३म् ही सृष्टिकर्ता है, ओ३म् ध्यान है, ओ३म् सर्वव्यापक है, ओ३म् सर्वान्तरयामी है, ओ३म् ही सर्वविद है, अन्त में ओ३म् ही सार है ।


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