यज्ञोपवीत के कुछ नियम


यज्ञोपवीत के कुछ नियम


 


      जनेऊ धारण करने के पश्चात् उसे धारण करने वाले पर यह उत्तरदायित्व आता है कि वह सदैव अपने सम्पूर्ण शरीर को स्वस्थ व पवित्र बनाए रखने का यत्न करे। उसकी सभी ज्ञानेन्द्रियां तथा कर्मेन्द्रियां स्वस्थ एवं पवित्र रहें और उसके जीवन में दुर्व्यसन प्रवेश न करने पावें। जिससे वह संसार में पूर्ण यशस्वी जीवन व्यतीत करने में समर्थ हो सके।



      जनेऊ की पवित्रता का ध्यान रखना भी अनिवार्य है। इसको गले में डालकर चाबी का गुच्छा उसमें डाले रखना, इस ब्रह्मसूत्र के महत्त्व, गरिमा और पवित्रता को समाप्त करना है।
कुछ विशेष ध्यान रखने योग्य बातें यहां लिखी जा रही हैं जिनका प्रत्येक यज्ञोपवीत धारी को यथासम्भव पालन करने का यत्न करना चाहिए―



   (1) इसे बाएं कन्धे पर डाला जाता है। यह ह्रदय से होता हुआ कटि तक पहुंचता है। मनुष्य जन्म से शूद्र होता है। यज्ञोपवीत संस्कार होने पर द्विज बनता है। द्विज बनने पर कर्त्तव्यों का भार वहन करना होता है। मनुष्य में बोझ उठाने की शक्ति कन्धे में होती है, इसलिए इसे कन्धे पर डाला जाता है, अपनी प्रतिज्ञाओं का ह्रदय से पालन करना होता है। इसलिए यह ह्रदय से होता हुआ आता है। अपने कर्त्तव्यों को करने के लिए हम सदा कटिबद्ध रहेंगे, इसलिए यह कटि तक पहुंचता है।



   (2) इसे धारण करके उतारे नहीं। यज्ञोपवीतधारी का यह संकल्प होना चाहिए कि गर्दन के उतरने से ही उतरेगा यज्ञोपवीत, क्योंकि ये हमारी आर्यों की है पुरानी रीत।



   (3) शौचादि के समय यह नाभि प्रदेश से ऊपर रहना चाहिए। इसलिए मल-मूत्र का त्याग करते समय इसको कान पर लपेट लेते हैं। इसका साधारण अर्थ तो यह है कि इसकी पवित्रता बनी रहे। दूसरा–हाथों की सफाई का ध्यान रहता है। लेकिन इस क्रिया का एक वैज्ञानिक महत्त्व भी है। डॉक्टर एस०आर० सक्सेना महोदय ने दिल्ली में एक चिकित्सकों के विश्व सम्मेलन में 19-10-77 को अपने वक्तव्य में कहा कि "मल-मूत्र करते समय लोग जनेऊ को कान पर लपेटते हैं। इसका वैज्ञानिक आधार है क्योंकि इससे कान के पास की एक नस में विशेष हरकत होने लगती है। इस नस की हरकत से आंतों की क्रिया में सहायता मिलती है तथा ह्रदय पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है।" अत: मूत्रोत्सर्ग के समय दाहिने कान पर, शौच के समय बाएं कान पर लपेट लेते हैं।



   (4) सप्ताह में कम से कम एक बार इसे साबुन आदि से साफ कर लेना चाहिए।



  (5) पुराना होने पर या टूटने पर इसे बदल लेना चाहिए। बदलते समय ध्यान रखें कि नया यज्ञोपवीत सिर की तरफ से धारण करें और पुराना पैरों की तरफ से निकालें।



   (6) यज्ञोपवीत की पवित्रता व गरिमा बनाए रखें इसके प्रति पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए।



   (7) इस पवित्र सूत्र में बंधने के पश्चात् हमारी कथनी और करनी में अन्तर नहीं होना चाहिए। कुं० सुखलाल जी आर्य मुसाफिर ने कितना सुन्दर कहा है―



बनो आर्य खुद जहां को बना दो।
जो कहते हो दुनियां को करके दिखा दो।।



   (8) यज्ञोपवीतधारी को अपने नाम के आगे आर्य लगाना चाहिए। आर्य का अर्थ है―श्रेष्ठ व्यक्ति, ईश्वरपुत्र एवं गतिशील व्यक्ति जो सदैव अपनी, समाज व राष्ट्र की उन्नति करे।



   (9) यज्ञोपवीतधारी को वैदिक साहित्य एवं महर्षि का अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ना चाहिए, व वेद के अनुसार आचरण करना चाहिए।



   (10) नारी-जाति भी यज्ञोपवीत की उतनी ही अधिकारिणी हैं जितने की पुरुष। अत: इनको भी यज्ञोपवीत धारण करने में संकोच नहीं करना चाहिए।



   (11) यज्ञोपवीतधारी को सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से दूर रहना चाहिए। यदि यज्ञोपवीत संस्कार होने के पश्चात् भी जो व्यक्ति धूम्रपान, मांस-मछली-अण्डे, शराब-बीयर, पेप्सी, कोका-कोला आदि, पान-मसाला, चुटकी, खैनी, जर्दा, तम्बाकू आदि किसी भी प्रकार के मादक व बुद्धिनाशक पदार्थों का सेवन तथा ब्रह्मचर्य का हनन करता है तो उससे बढ़कर इस संसार में कोई निकृष्ट व्यक्ति नहीं। ऐसा व्यक्ति महापापी होता है जो इस पवित्र सूत्र के कम से कम सामान्य नियमों का भी पालन नहीं करता। पदमपुराण के पाताल खण्ड के अनुसार ऐसे व्यक्ति का अगला जन्म सूअर योनि में होता है और दूसरों की विष्ठा खाता है। ऐसे व्यक्ति को पण्डित की जगह मलेच्छ की उपाधि दी जानी चाहिए। ऐसे व्यक्ति का यज्ञोपवीत उतरवाना भी पुण्य का कार्य है।



सो बातों की एक बात–महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज के दस नियमों पर चिन्तन-मनन करके जीवन में उतारने का यत्न करना चाहिए। जीवन का पासा ही पलट जाएगा।


Popular posts from this blog

ब्रह्मचर्य और दिनचर्या

वैदिक धर्म की विशेषताएं 

अंधविश्वास : किसी भी जीव की हत्या करना पाप है, किन्तु मक्खी, मच्छर, कीड़े मकोड़े को मारने में कोई पाप नही होता ।