यज्ञ का आत्मा

यज्ञ का आत्मा


 


      कहते हैं कि एक बार महाराजा जनक ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया जिसमें दुनिया भर के आचार्यों, महात्माओं तथा विद्वानों को बुलाया। प्रवास आदि पर होने के कारण महामना उद्दालक जी को आमन्त्रण नहीं मिल पाया। वे धूप में बैठकर बड़े मजे से भुने हुये चने चबा रहे थे। जब उन्होंने बहुत से महात्माओं को राजभवन की ओर जाते हुऐ देखा तो उन्होंने उनसे पूछा कि आप लोग कहां जा रहे हैं। उनसे मुनि जी को मालूम हुआ कि महाराजा जनक ने बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया है। उद्दालक जी भी उन महात्माओं के साथ राजभवन की ओर चल दिए। जब वे सभी यज्ञस्थली पर पहुंचे तो यज्ञ लगभग प्रारंभ होने ही जा रहा था। कहते हैं कि महर्षि उद्दालक जी ने यज्ञ के व्यवहारिक स्वरूप के सम्बन्ध में वहां बैठे हुए सभी विद्वानों से कुछ प्रश्न पूछे जिनमें से एक था कि यज्ञ का आत्मा क्या है? जब कोई भी विद्वान् इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका तो यज्ञ कराने वाले ब्रह्मा से भी महर्षि ने यही प्रश्न किया मगर जब वे भी इनका उत्तर नहीं दे पाए तो सभी ने अपना-अपना स्थान छोड़ दिया तथा महामुनि उद्दालक जी से ही प्रश्न का उत्तर देने का निवेदन किया।


      उद्दालक जी ने कहा- स्वाहा वाग्वै यज्ञस्य आत्मा। अर्थात् समर्पित हो जाना ही यज्ञ की आत्मा है। यज्ञ में यदि स्वहा शब्द का उच्चारण हो और आहुति न दी जाए तो भला यज्ञ कैसे चल सकेगा? इसीलिए कहा गया कि आहुति देने से ही यज्ञ की प्रक्रिया को सार्थकता प्राप्त हो सकती है। अयन्त इध्म् आत्मा.....जीवन यज्ञ में इस आत्मा को ईन्धन बनाना पडेगा तभी वास्तविक जीवन यज्ञ चल सकेगाहमें समिधा बनना होगा। समिधा अर्थात सम उपसर्गपर्वक 'इन्धि दीप्तौ' धातु से ही स्पष्ट है कि वह पदार्थ जो अग्नि को प्रदीप्त करने में अपना सर्वस्व अर्पित कर दे. समिधा कहाती है। समिधा और संगतिकरण में 'सम्' उपर्ग लगा है अतः समिधा की संगति इस प्रकार से लगाई जा सकती है- राजा यदि अग्नि हो तो प्रजाजन उसकी समिधाएं हैं, सेनापति यदि अग्नि हो तो सैनिक उसकी समिधा हैं. आचार्य यदि अग्नि है तो शिष्यमंडल उसकी समिधा है, परिवार यदि अग्नि है तो परिवारजन उसकी समिधा हैं, संस्था यदि अग्नि है तो सदस्य एवं कर्मचारी आदि उसकी समिधा हैं. समाज या संसार यदि अग्नि है तो भी समस्त प्रजाजन समिधा है । इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था को भी हम समिधा बनकर ही सार्थकता प्रदान कर सकते हैं.....। इससे आगे आत्मा यदि अग्नि हो तो इन्द्रियां व मन बद्धि चित्त आदि समिधाएं हैंसमिधा यदि अपना समर्पण न करे तो हम किसी यज्ञ की कल्पना भी नहीं सकते हैं....मगर साथ ही यह भी ध्यान रहे कि वह समिधा गीली नहीं सूखी हुई हो अर्थात् पूर्ण समर्पण और श्रद्धा के साथ आहुत हो....। उपनिषदों में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहां शिष्य समितपाणि और सूखी समिधाएं लेकर अपने आचार्य के पास शिक्षा ग्रहण करने जाता था यह दर्शाने के लिए कि मुझमें समर्पण भी है और श्रद्धा भी....ऐसी स्थिति में ही 'स्तता मया वरदा....' पात्र को आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविण, ब्रह्मवर्चस, ब्रह्मलोक की प्राप्ति संभव होती है....अयन्त इध्म आत्मा.... अपनी आत्मा को इध्म-समिधा बनाकर...आयु, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस और अन्न की उपलब्धि सम्भव है......। समिधाग्नि दुवस्यत घृतैर्बोध यतातिथिम्.........इस अतिथि के समान अतिथि को समिधाओं व घृत से बढ़ाओ। महर्षि इसका भाव करते हैं-सत्पुरुषों की सेवा, सुपात्रों को दान, जैसे घी आदि पदार्थों का अग्नि में हवन करके संसार का उपकार करते हैं वैसे ही विद्वानों में उत्तम पदार्थों का दान करके जगत् में विद्या और अच्छी शिक्षा को बढ़ाके विश्व को सुखी करें।


      कहते हैं एक बार याज्ञवल्क्य जी के प्रिय शिष्य माध्यान्दिन यजुर्वेद का प्रचार करते हुए घूम रहे थे। उनसे किसी ने पूछा कि भगवन् –'स्वाहा' शब्द का उच्चारण क्यों किया जाता है? माध्यान्दिन जी ने कहा कि आपने अच्छी बात पूछी है क्योंकि बिना अर्थ समझे उच्चारण का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह जाता है। केवल यज्ञ ही 'स्वाहा' अन्त वाला है बल्कि 'स्वाहा' ही यज्ञ का मर्म है। 'सु' का अर्थ है अच्छा। अच्छा इसलिए क्योंकि सु प्राणों का प्रतीक भी है मगर वे ही प्राण शक्तिया 'सु' हैं तजो भद्रता की ओर प्रेरित करने वाली हैं अन्यथा भोगों की ओर ले जाने वाली प्राण शक्तियां तो 'असु' हो जाती हैं। असु प्राण मृत्यु है और सु प्राण अमरत्त्व। सु भद्र है असु अभद्र। इस प्रकार सु है अच्छा और आह का भाव है हुआ। स्वाहा का भाव हो गया कि अच्छा अर्पण हुआ। अब यदि व्यक्ति का जीवन ही अच्छा नहीं हुआ तो अच्छा अर्पण भी कैसे हो सकता है? इसलिए व्यक्ति को मनन और चिन्तन के आधार पर ही मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए तथा जीवन को धार्मिकता के उच्च भावों के साथ जोड़कर प्रत्येक पवित्र कार्य को पूर्णता देने के लिए स्वयं को समर्पित होने के लिए तैयार रहना अपेक्षित है। यज्ञ का अन्त है ही स्वाहाकार अर्थात् अमरत्त्व प्रदाता है और भोग का अन्त हन्तकार अर्थात् पछतावा है। यदि जीवन में ही स्वाहा की भावना नहीं आई तो उसका कोई लाभ नहीं है। निरुक्तकार ने स्वाहा शब्द के अर्थ करते हुए कहा-सभी को सबके प्रति हितकारी, मनोहर, कोमल तथा मधुर भाषा का प्रयोग करना चाहिए। जैसा देखा, सुना, समझा हो वैसा ही सत्य व्यवहार करना चाहिए। जो वस्तु अपनी है उसी को अपना समझना दूसरे के पदार्थ को कभी अपना न समझना। उन्होंने स्वाहा का एक यह भी भाव बताया है कि यज्ञ के पात्र आदि तथा व्यक्ति भी स्वयं पवित्र होने चाहिए।


      महर्षि दयानन्द जी (यजु० 22-20) स्वाहा शब्द का अर्थ 'सत्यक्रिया' करते हुए घोषणा करते हैं कि ऐसी भावना व क्रिया वाले व्यक्ति को निश्चित रूप से सुख की प्राप्ति होती है। वहां पर उन्होंने कुछ सत्यक्रियाओं का निर्देश इस प्रकार दिया है-'जिन मनुष्यों ने सुख साधने वाले के लिए सत्यक्रिया, सुखस्वरूप के लिए सत्यक्रिया, बहुतों में जो वर्तमान उसके लिए सत्यक्रिया, जो अच्छे प्रकार पदार्थों को धारण करता उसको प्राप्त होकर सत्यक्रिया, सब ओर से विद्यावृद्धि के लिए सत्यक्रिया, प्रजाजनों की पालना करनेहारे के लिए मन की सत्यक्रिया, विशेष जाने हुए के लिए स्मृति सिद्ध कराने अर्थात् चेत दिलाने हारा चैतन्य मन पृथिवी के लिए सत्यक्रिया, बड़ी विनाशरहित वाणी के लिए सत्यक्रिया, अच्छा सुख करने हारी माता के लिए सत्यक्रिया, नदी के लिए सत्यक्रिया, पवित्र करने वाली विद्यायुक्त वाणी के लिए उत्तमक्रिया, पुष्टि करने वाले के लिए उत्तम क्रिया, उत्तमता से आराम के योग्य भोजन करने तथा पुष्टि के लिए सत्यक्रिया, जो मनुष्यों को उपदेश देता है उस पुष्टि करने हारे के लिए सत्यक्रिया, प्रकाश करने वाले के लिए सत्यक्रिया, नौकाओं के पालने और विद्या प्रकाश करने वाले के लिए सत्यक्रिया, व्याप्त होने वाले के लिए सत्यक्रिया, निरन्तर आप रक्षित हों औरों की पालना करने हारे सर्वव्यापक के लिए सत्यक्रिया तथा वचन कहते हुए चैतन्य प्राणियों में व्याप्ति से प्रवेश हए व्याप्क ईश्वर के लिए सत्यक्रिया की- वे कैसे न सुखी हों।' इस मन्त्र में महर्षि ने परमात्मा से लेकर व्यक्ति व प्रकृति के प्रति की कई समस्त सत्यक्रियाओं को स्वाहा शब्द के साथ जोड़कर यज्ञ की भावना को बहुत ही सुन्दर ढंग से विवेचित किया है।


      स्वाहा के रहस्य को गोपथ ब्राह्मण में प्रश्नोत्तर शैली में बहुत ही सार्थक ढंग से विवेचित किया गया है- स्वाहा वै कुतः सम्भूता? केन प्रकृता?.... अथोत्तम् स्वाहा....ब्राह्मणो रूपमिति ब्राह्मणम्॥ 3-16)


       प्रश्न-स्वाहा कहां से उत्पन्न हुआ?


       उत्तर-स्वाहा शब्द सत्य से उत्पन्न हुआ है। इसलिए कहा है सु-आह आपने बहुत ही हितप्रिय सत्य कहा है, आत्मा को बहुत अच्छा लगा।


      प्रश्न-किसलिए बना है?


      उत्तर-ईश्वर की प्राप्ति के लिए इसे बनाया है क्योंकि 'यज्ञो वै विष्णुः' यज्ञ को विष्णु कहा है, उसमें आहुति से पूर्व इसको बोला जाता है।


      प्रश्न-इसका गोत्र कौन सा है?


      उत्तर-इसका गोत्र व सम्बन्ध सामगायन अर्थात जो मन्त्रों को उच्चारण माधुर्य आदि से करता है उसके साथ एक गोत्र वाला है।


      प्रश्न-इसमें कितने अक्षर हैं और कितने पाद हैं?


      उत्तर-इसमें दो अक्षर हैं और एक पाद है।


      प्रश्न-कौन सा आदि वाला है और कौन सा अन्त का है?


      उत्तर-इसमें शुक्ल श्वेत, पद्म-कमलवर्ण और सुवर्ण-सोना ये तीन वर्ण हैं


      प्रश्न-इसका ठहराव और अधिष्ठान-आश्रय कौन सा है और इसका देवता और रूप क्या है?


      उत्तर-वेदों में सब छन्दों का संग्रहरूप और वर्णों के अन्त में एक श्वास वाला है। ऋग्वेदादि चारों वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष शास्त्र ये छ: अंग और दो शरीर, औषधि-वनस्पति लोम और दोनों आंखें सूर्य चन्द्रमा हैं। यह स्वाहा स्वधा और वषट्कार रूप होकर यज्ञों में आहुति से पूर्व बोलते हैं। अग्नि इसका देवता है और वेद के ज्ञाता ब्राह्मण का मानों रूप हैं।


      महर्षि उद्दालक जी ने स्वाहा को ही यज्ञ का आत्मा कहा है। इसलिए स्वाहा शब्द के भावों के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए। आज व्यक्ति इतना आत्मकेन्द्रित हो गया है कि वह केवल अपने लिए ही जीना चाहता है। इसीलिए परिवार, समाज तथा देश की स्थिति बिगड़ती चली जा रही है। यदि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्वाहा की भावना आ जाए तो आज भी इसी धरती पर स्वर्ग स्थापित हो जायेगाबस आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति स्वाहा के भावों को आत्मसात् कर ले। जहां यह स्वाहा की भावना है वहीं पर उन्नति, सुख-शान्ति और तृप्ति है। हम कल्पना करें कि यदि हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों में यह स्वाहा अर्थात् अपने आप को भारत मां के लिए अर्पित करने की भावना न होती तो क्या हमें स्वतंत्रता का प्रसाद मिल सकता था? कदापि नहीं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, शहीद भगतसिंह, मदन लाल ढींगरा, लाला लाजपत राय, भाई बालमकन्द, लाला हरदयाल, भगवती चरण बोहरा, दुर्गा भाभी, पं० रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, चन्द्रशेखर आजाद, वीर सावरकर आदि ही नहीं और कितने ही ऐसे ज्ञात. अज्ञात क्रान्तिकारी हैं जिन्होंने स्वयं को स्वाहा करके भारतमाता को स्वतन्त्रता दिलाई। यह सब सवाहा की भावना का ही सुपरिणाम है। स्वयं तिल-तिल होकर मिट गए मगर देश को स्वतन्त्रता दिला दी। यही समर्पण की भावना हमें यज्ञ से मिलती है। झांसी की रानी अंग्रेजों के साथ समझौता करके तथा किसी से विवाह करके अपने जीवन को आराम से बिता सकती थी मगर नहीं अपना नाम भी अमर कर गईशिवाजी महाराज जीवन भर दु:ख उठाकर गौ हत्यारों के साथ लोहा लेते रहे। महाराणा प्रताप और भामाशाह जैसे लोगों के यदि आज भी नाम अमर है तो वह इसी स्वाहा की भावना के कारण है। बन्दा वैरागी ने अपनी साधना को त्यागकर पंजाब में आकर गुरु गोविन्द सिंह जी के अधूरे युद्ध को न केवल पूर्णता दी बल्कि उनके बच्चों को दीवारों में चिनने वाले हत्यारों के साथ चुन-चुनकर बदला लिया 


      आचार्य चाणक्य जी ने दुराचारी नन्दवंश को समाप्त करने के लिए अपना समूचा ही जीवन उत्सर्ग कर दिया तथा उसमें सफलता भी प्राप्त की। महर्षि दयानन्द सरस्वती जब विद्या प्राप्त करके अपने गुरु विरजानन्द जी के यहां जाने लगे तो गुरुवर ने आर्षग्रन्थों का प्रचार-प्रसार करने के लिए उनका जीवन ही मांग लिया। महर्षि ने गुरु के आदेश को एकदम शिरोधार्य कर लिया तथा अपना सदरा जीवन वैदिक-संस्कृति की स्थापना के लिए अर्पित कर दिया। कालान्तर में उन्हें इस कार्य को पूर्णता देने के लिए अनेकों ही कष्ट सहने पड़े मगर एक बार इस काम के लिए स्वयं को आहुति करने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक बार उनके मित्र स्वामी पर्वत जी ने कहा कि दयानन्द तुम बहुत बड़े योगी हो अतः समाधि के आनन्द को छोड़कर इस कार्य में क्या पड़े हुए हो? महर्षि दयानन्द ने पलटकर उत्तर दिया कि मैं तो चाहता हैं कि इस परोपकार के कार्य में तुम भी मेरे साथ हो लो तो कार्य और अधिक द्रुत गति से हो सकेगा। अपने जीवन को स्वाहा कर देना ही यज्ञ की आत्मा है। हम लोगों ने महर्षि के इस कार्य को गति देने के लिए स्वयं को आहुत कर रखा था। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपना सर्वस्व ही इस यज्ञ में आहुत कर दिया और समूचा जीवन गुरुकुल कांगडी के लिए समर्पित कर दिय जी ने भी अपनी अधिकतम सम्पत्ति वैदिक साहित्य के प्रकाशन में लगा दी तथा स्थान-स्थान पर जाकर अनेकों ही सफल शास्त्रार्थ किए। धर्मवीर पण्डित लेखराम जी ने न केवल महर्षि के जीवन चरित लिखने के लिए स्वयं को आहुत किया बल्कि शुद्धि आन्दोलन परवान चढ़ा और तहरीर व तकरीर के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। महात्मा हंसराज जी ने नि:शुल्क अध्यापन का कार्य संभालकर डी.ए. वी. संस्था को गतिवान बनाया। महामुनि गुरुदत्त जी ने इतना अधिक कार्य किया कि उसके कारण वे अस्वस्थ हो गए तथा अन्ततः परलोक सिधार गए। यह है वास्तविक यज्ञ की भावना जो हमें स्वाहा शब्द से मिलती है। महर्षि उद्दालक ने इसीलिए यज्ञ की आत्मा का विवेचन करते हुए कहा कि अपने आपको आहुत कर देना ही यज्ञ का आत्मा है। यदि यज्ञ से हमने यह भावना आत्मसात् न की तो समझो कि हमने यज्ञ को सही रूप में नहीं समझा है। जिस व्यक्ति ने स्वयं को आध्यात्मिकता से परिपूर्ण कर लिया है वास्तव में वही व्यक्ति स्वाहा की भावना को पूर्णतया आत्मसात् कर सकता है।


      समावर्तन संस्कार में आचार्य अपने शिष्य को उपदेश देता है- सत्य और धर्म का पालन करने में कभी प्रमाद न करना। भौतिक सम्पदाओं को प्राप्त करने में प्रमाद मत करना मगर आध्यात्मिक सम्पदा को प्राप्त करने में भी कभी प्रमाद मत करना। स्वाध्याय और प्रवचन में कभी प्रमाद न करना। देव और पितरों की पूजा अर्थात् उनके आदर, सत्कार व सेवा में कभी प्रमाद न करना। मां ही तेरे लिए देवी के समान पूज्य है, पिता, आचार्य और अतिथि तेरे लिए देवता हैं, इनका आदर और सम्मान तथा सेवा करते रहना। इसके बाद आचार्य एक और बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहता है कि मां-बाप, आचार्य तथा अतिथि आदि के उन्हीं आदेशों व उपदेशों को मानना जो अनुकरणीय हों। अपने बारे में भी आचार्य बहुत ही सरल स्वभाव से कहते हैं अपने आचार्य की भी उन्हीं बातों का अनुकरण करना जो सुचरित हों, यदि आचार्य भी कोई बुरा कर्म करे तो उस ओर उसका ध्यान दिलाना तथा उसके द्वारा बुरा कर्म करने का आदेश मिले तो उस आदेश को मत मानना। ऊपर जिन पूज्यों का संकेत किया गया है, उनसे भी श्रेष्ठ व्यक्ति हों उनके पास बैठना, कभी भी बुरी संगति में न जाना। त्याग और बलिदान के लिए सदा तैयार रहना। श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, लज्जा के भाव से देना, यदि नहीं दिया तो लोग क्या कहेंगे ऐसी भावना से देना, भय से देना. जगती के कल्याण के लिए कुछ न कुछ देते ही रहना। यदि किसी काम में किसी प्रकार का सन्देह पैदा हो जाए अर्थात् तुम्हें पता न चले कि धर्माचार क्या है-लोकाचार क्या है तो ऐसी स्थिति में तुम्हारे आस-पास जो कोई ब्राह्मण हो उसकी बात को सत्य मानना। यही आदेश है....यही उपदेश है....यही वेद और उपनिषद् का सार है....यही हमारा अनुशासन है....ऐसा ही आचरण करना....ऐसा ही अनुष्ठान करना।


      


       


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