विद्यार्थियों में बढ़ता तनाव
विद्यार्थियों में बढ़ता तनाव
एक बड़े शायर का शेर है-
हर लफ्ज से चिंगारियां निकलती हैं,
कलेजा चाहिए अखबार देखने के लिए
आजकल प्रगति और तनाव पर्यायवाची बनते जा रहे हैं। भले ही ये साहित्यिक हिंदी में पर्यायवाची न हों, लेकिन व्यावहारिक जीवन में जरूर पर्याय-वाची हैं| बहुत अटपटा लगता है कि आज जो जितना आधुनिक है, भौतिक सुख के साधन हैं, जितना धनी है, वो उतना ही अधिक तनाव में है। हम साधन और धन के चक्कर में साध्य को प्राप्त कर ही नहीं पाते।
जब व्यक्ति दो जून की कमाने की पहली बार सोचता है, तो उसे लगता है कि बस पेट भर, तो समझो जन्नत है और हमें कुछ नहीं चाहिए। लेकिन रोटी से लेकर कार तक का सफर तय करने के बाद भी उसे सूकून नहीं है, आपाधापी उतनी ही आज भी है जितनी कि कल दो रोटी के लिए थी।दो रोटी की व्यवस्था की जाये।
जो लालसा आपको बड़ा मनुष्य बनाती है, उसे छोड़कर सारा ध्यान इस ओर दिया जा रहा है
साहित्य, अध्यात्म और दर्शन बाद की बात हैं, पहले शिक्षा एक बेहतर मनुष्य बनाने की यात्रा से लेकर रोटी तक गयी, बात रोटी तक भी ठीक थी कि लेकिन ग्लैमर और आधुनिकीकरण से इंसान का ध्यान सुख के साधन जुटाने में ही बीत जाता है और वह इस सुख आनन्द नहीं ले पाता हैग्लैमरपूर्ण जीवन जीने के लिए शिक्षा व्यवस्था ने जीवन को ही खतरे में डाल दिया है। जो शिक्षा पहले जीवन सुलझाने के लिए दी जाती थी, कि जिया कैसे जाए, अब वही जीवन को उलझा रही हैअब तो यह भी माना जाने लगा है कि जो जितना ज्यादा पढ़ा- लिखा होगा, वह उतना ही ज्यादा गम्भीर दिखेगा।
यही तनाव का सबसे बड़ा कारण भी है कि आप कॉलेज में एडमिशन लेने से पहले जानने की कोशिश जरूर करते हैं कि इस कॉलेज का रिकॉर्ड क्या है, प्लेसमेंट के लिए कैसी कम्पनियां आती हैं, पैकेज क्या देती हैं। इतना सारा रायता तो एडमिशन लेने के पहले ही फैलाया जाता है, तो सोचकर देखिए जो इतने महत्वकांक्षी होकर, घर वालों की उम्मीदें और सपने लेकर, सब कुछ छोड़कर, अगले कुछ सालों के लिए अपने आपकी आहुति देने जाता है, और कुछ समय बीतने के बाद एहसास होता है कि सपने तो पूरे हुए नहीं, पैकेज जो सोचा था वो मिला नहीं, न्यायाधीश बनना था, बना ही नहीं, तो फिर तनाव जैसी चीजें जीवन का हिस्सा बन जाती हैं और कई बार वे आत्महत्या और डिप्रेशन 1/4अवसाद12 के रूप में सामने आती हैं
क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि लालसा की परंपरा को आगे बढ़ाया और अपनाया जाए? शिक्षा में सफलता के मानक को दुबारा से सेट किया जाये। तनावयुक्त शिक्षा व्यवस्था, जो किसी भी व्यक्ति की कार्यक्षमता को कम करती है, क्या उसकी जगह कुछ और नहीं सोचा जा सकता है? जिन्हें बड़े सफलताएं मिल भी गयी क्या वो खुश हैं? अगर नहीं तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था किस काम की जो सिर्फ हस्ताक्षर करना सिखाती हो?
अकबर इलाहाबादी भी हाई कोर्ट में न्यायाधीश थे, उन्होंने लिखा है-
क्या कहें साहब कि क्या, कारे नुमायां कर गए बीए किया, बाबू बने, पेंशन मिली और मर गय बेहतर यही होगा कि अंध शिक्षा और विकास के अन्तर को समझा जाए । एकोऽहं बहुस्यामः की परंपरा बनी रहे और मनुष्यता भी जिंदा रहे विकास भी रहे, लेकिन मनुष्यता के बदले में आधुनिक और आर्थिक विकास हो यह स्वीकार्य नहीं है