वेदो की कुछ पर अतिज्ञानवर्धक मौलिक शिक्षाये





     1. जीवन भर (शत समां पयंत) निष्काम कर्म करते रहना चाहिए। इस प्रकार का निष्काम कर्म पुरुष में लिप्त नहीं होता है। (यजु० ४०।२)


     2. जो ग्राम, अरण्य, रात्रि-दिन में जानकार अथवा अजानकार बुरे कर्म करने की इच्छा है अथवा भविष्य में करने वाले हैं उनसे परमेश्वर हमें सदा दूर रखे।



    3. हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर वा विद्वन आप हमें दुश्चरित से दूर हटावे और सुचरित में प्रवृत करे (यजु० ४।२८)


   4. हे पुरुष ! तू लालच मत कर, धन है ही किसका। (यजु० ४०।१)


   5. एक समय में एक पति की एक ही पत्नी और एक पत्नी का एक ही पति होवे। (अथर्व० ७।३७।१)


   6. हमारे दायें हाथ में पुरुषार्थ हो और बायें में विजय हो। (अथर्व० ७। ५८।८)


   7. पिता पुत्र, भाई-बहिन आदि परस्पर किस प्रकार व्यवहार करे – इसका वर्णन अथर्व० ३।३० सूक्त में हैं।


    8. द्यूत नहीं खेलना चाहिए। इसको निंद कर्म समझे। (ऋग्वेद १०।३४ सूक्त )


    9. सात मर्यादाएं हैं जिनका सेवन करने वाला पापी माना जाता है। इन सातो पापो को नहीं करना चाहिए। स्तेय, तलपारोहण, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान, दुष्कृत कर्म पुनः पुनः करना, तथा पाप करके झूठ बोलना – ये साथ मर्यादाये हैं। (ऋग्वेद १०।५।६)


   10. पशुओ के मित्र बनो और उनका पालन करो। (अथर्व० १७।४ और यजु० १।१)


   11. चावल खाओ यव खावो उड़द खाओ तिल खाओ – इन अन्नो में ही तुम्हारा भाग निहित है। (अथर्व० ६।१४०।२)


   12. आयु यज्ञ से पूर्ण हो, मन यज्ञ से पूर्ण हो, आत्मा यज्ञ से पूर्ण हो और यज्ञ भी यज्ञ से पूर्ण हो। (यजु० २२।३३)


   13. संसार के मनुष्यो में न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। सब एक परमात्मा की संतान हैं और पृथ्वी उनकी माता है। सबको प्रत्येक के कल्याण में लगे रहना चाहिए (ऋग्वेद ५।६०।५)


   14. जो samast प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है उसे किसी प्रकार का मोह और शोक नहीं होता है। (यजु ४०।६)


   15. परमेश्वर यहाँ वहां सर्वत्र और सबके बाहर भीतर भी है। (यजु० ४०।५)




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