वेद ही ईश्वरीय ज्ञान क्यूँ हैं

ईश्वरीय ज्ञान के सम्बन्ध में एक प्रश्न सामने आता हैं की भिन्न भिन्न मत के लोग अपनी अपनी धार्मिक पुस्तकों को ईश्वरीय ज्ञान बतलाते हैं जैसे ईसाई मत वाले बाइबल को, इस्लाम मत वाले कुरान को, पारसी मत वाले जेन अवेस्ता को और हिन्दू वेद को आदि आदि। ऐसी अवस्था में किसको ईश्वरीय ज्ञान माना जाये और किसको नहीं माना जाये। इसका प्रश्न का उत्तर ये हैं की सर्वप्रथम तो किसी भी मत की धर्म पुस्तक को उसके अनुनायियों के दावे मात्र से ईश्वरीय ज्ञान नहीं माना जा सकता। हमे उसके दावे की परीक्षा करनी होगी. उसे कुछ कसौटियों पर परखा जाये। जो भी धर्म पुस्तक उन कसौटियों पर खरी उतरे, उस पुस्तक को हम ईश्वरीय ग्रन्थ मान लेंगे अन्यथा वह मनुष्य कृत समझी जाएगी।

१. ईश्वरीय ज्ञान सृष्टी के आरंभ में आना चाहिये न की मानव की उत्पत्ति के हजारों वर्षों के बाद

परमेश्वर सकल मानव जाति के परम पिता हैं और सभी मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं। केवल एक वेद ही हैं जो सृष्टी के आरंभ में ईश्वर द्वारा मानव जाति को प्रदान किया गया था। बाइबल २००० वर्ष के करीब पुराना हैं, कुरान १४०० वर्ष के करीब पुराना हैं, जेंद अवस्ता ४००० वर्ष के करीब पुराना है। इसी प्रकार अन्य धर्म ग्रन्थ हैं। मानव सृष्टी की रचना कई करोड़ वर्ष पुरानी हैं जबकि आधुनिक विज्ञान के अनुसार केवल कुछ हज़ार वर्ष पहले मानव की विकासवाद द्वारा उत्पत्ति हुई हैं। जब पहले पहल सृष्टी हुई तो मनुष्य बिना कुछ सिखाये कुछ भी सीख नहीं सकता था। इसलिए मनुष्य की उत्पत्ति के तुरंत बाद उसे ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता थी। सत्य के परिज्ञान न होने के कारण यदि सृष्टी के आदि काल में मनुष्य कोई अधर्म आचरण करता तो उसका फल उसे क्यूँ मिलता क्यूंकि इस अधर्माचरण में उसका कोई दोष नहीं होता, क्यूंकि अगर किसी का दोष होता भी हैं तो वह परमेश्वर का होता क्यूंकि उन्होंने मानव को आरंभ में ही सत्य का ज्ञान नहीं करवाया।

(नोट १- ऊपर लिखे तर्क से बाइबल में वर्णित आदम और हव्वा के किस्से की अगर हम परीक्षा करे तो परमेश्वर द्वारा पहले सत्य के फल का वृक्ष लगाना, फिर आदम और हव्वा की उत्पत्ति कर उन्हें वृक्ष के फल खाने से मना करना, फिर हव्वा द्वारा साँप की बातों में आकर वृक्ष के फल खाना जिससे उसे ज्ञान होना की वे वस्त्र रहित हैं। इससे परमेश्वर का नाराज होकर हव्वा को पापी कहना, उसे प्रसव पीड़ा का शाप देना और साँप को जीवन भर रेंगने का शाप देना अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं, क्यूंकि ईश्वर का कार्य ही मनुष्य को ज्ञान देना हैं और अगर मनुष्य की उत्पत्ति होने के बाद उसे ज्ञान न देकर उसके स्थान पर शाप देना बाइबल के ईश्वरीय पुस्तक होने में संदेह उत्पन्न करता हैं।)

हमारे कथन की पुष्टि मेक्स मूलर महोदय (MaxMuller) ने अपनी पुस्तक धर्म विज्ञान (Science of Religion) में कहा हैं की “यदि आकाश और धरती का रचियता कोई ईश्वर हैं तो उसके लिए यह अन्याय की बात होगी की वह मूसा से लाखों वर्ष पूर्व जन्मी आत्माओं को अपने ज्ञान से वंचित रखे। तर्क और धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन दोनों बलपूर्वक कहते हैं की परमेश्वर मानव सृष्टी के आरंभ में ही अपना ईश्वरीय ज्ञान मनुष्यों को देता था “

वेद के अतिरिक्त अन्य कोई भी धर्म पुस्तक सृष्टी के आरंभ में नहीं हुई थी. अत: वेद को ही इस कसौटी के अनुसार ईश्वरीय ज्ञान माना जा सकता हैं अन्य को नहीं।

२. ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक में किसी देश का भूगोल और इतिहास नहीं होना चाहिए।

ईश्वरीय ज्ञान की धर्म पुस्तक संपूर्ण मानव जाति के लिए होनी चाहिए नाकि किसी एक विशेष देश के भूगोल या इतिहास से सम्बंधित होनी चाहिए। अगर कुरान का अवलोकन करे तो हम पाते हैं की विशेष रूप से अरब देश के भूगोल और मुहम्मद साहिब के जीवन चरित्र पर केन्द्रित हैं, जबकि अगर हम बाइबल का अवलोकन करे तो विशेष रूप से फिलिस्तीन (Palestine) देश के भूगोल और यहुदिओं (Jews) के जीवन पर केन्द्रित हैं, जिससे यह निष्कर्ष निकलता हैं की ईश्वर ने कुरान की रचना अरब देश के लिए और बाइबल की रचना फिलिस्तीन देश के लिए की हैं। वेद में किसी भी देश विशेष या जाति विशेष के अथवा व्यक्ति विशेष के लाभ के लिए नहीं लिखा गया हैं अपितु उनका प्रकाश तो सकल मानव जाति के लिए हुआ हैं। अत: केवल वेद को ही ईश्वरीय ज्ञान माना जा सकता हैं। पाश्चात्य विद्वान और कुछ भारतीय विद्वान जो वेदों में इतिहास होने की कल्पना करते हैं का कथन वेदों की सही प्रकार से परिभाषा न समझ पाने के करण हैं। इतिहास तो तब बनता हैं जब कोई समय या काल गूजर चूका होता हैं। वेद की उत्पत्ति तो सृष्टी के आदि में हुई थी इसलिए उससे पहले किसी इतिहास के होने का प्रश्न ही नहीं उठता.इसलिए वेद ही ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक हैं क्यूंकि उनमें किसी देश का भूगोल और इतिहास नहीं हैं

३. ईश्वरीय ज्ञान किसी देश विशेष की भाषा में नहीं आना चाहिए।

ईश्वरीय ज्ञान मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए दिया गया हैं, अत: उसका प्रकाश किसी देश विशेष की भाषा में नहीं होना चाहिए। किसी देश विशेष की भाषा में होने से केवल वे ही देश उसका लाभ उठा सकेगे, अन्य को उसका लाभ नहीं मिलेगा। कुरान अरबी में हैं और बाइबल इब्रानी (Hebrew) में हैं जबकि वेदों की भाषा वैदिक संस्कृत हैं जो की सृष्टी की प्रथम भाषा हैं और सृष्टी की उत्पत्ति के समय किसी भी भाषा का अस्तित्व नहीं था तब वेदों का उद्भव वैदिक भाषा में हुआ जो की पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणियों की सांझी भाषा थी।कालांतर में संसार की सभी भाषाएँ संस्कृत भाषा से ही अपभ्रंश होकर निकली हैं. स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में इसी विचार को इस प्रकार प्रकट करते हैं “जो किसी देशभाषा में करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता, क्यूंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उसको सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढने-पढ़ाने की होती। इसलिए संस्कृत में ही प्रकाश किया जो की किसी देश की भाषा नहीं थी। उसी में वेदों का प्रकाश किया। जैसे ईश्वर की पृथ्वी आदि सृष्टी सब देश और देशवालों के लिए एक सी हैं वैसे ही परमेश्वर की विद्या की भाषा भी एक सी होनी चाहिए जिससे सब देश वालों को पढने पढ़ाने में तुल्य परिश्रम होने से ईश्वर पक्षपाती सिद्ध नहीं होते और सब विद्ययों का कारण भी हैं “इसलिए संसार की वैदिक भाषा संस्कृत में प्रकाशित होने के कारण भी वेद ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक हैं।

४. ईश्वरीय ज्ञान को बार बार बदलने की आवश्यकता या परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।

ईश्वर पूर्ण और सर्वज्ञ हैं। उनके किसी भी काम में त्रुटी अथवा कमी नहीं हो सकती। वे अपनी सृष्टी में जो भी रचना करते हैं उसे भली भांति विचार कर करते हैं और फिर उसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिस प्रकार ईश्वर नें सृष्टी के आरंभ में प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सूर्य और चंद्रमा आदि की रचना करी जिनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं हैं उसी प्रकार परमात्मा का ज्ञान भी पूर्ण हैं उसमे भी किसी भी प्रकार के परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं हैं। धर्म ग्रंथों में बाइबल में कई स्थानों पर ऐसा वर्णन आता हैं की परमेश्वर ने अपनी भूल के लिए पश्चाताप किया। बाइबल में भिन्न भिन्न पर ऐसा वर्णन आता हैं की परमेश्वर ने अपनी भूल के लिए पश्चाताप किया. बाइबल के विषय में यह भी आता हैं की बाइबल के भिन्न भिन्न भाग भिन्न भिन्न समयों पर आसमान से उतरे। इसी प्रकार मुस्लमान अभी तक ये मानते हैं की ईश्वर ने पहले जबूर, तौरेत, इंजील के ज्ञान प्रकाशित करे फिर इनको निरस्त कर दिया और अंत में ईश्वर का सच्चा और अंतिम पैगाम कुरान का प्रकाश हुआ। जबसे मेक्स-मूलर का यह कथन की संसार की सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद हैं प्रचलित हुआ हैं तबसे मुसलमानों (विशेषकर डॉ जाकिर नाइक) ने वेद को जबूर के भी पूर्व की इल्हामी पुस्तक कहना शुरू कर दिया हैं। इन सबसे यही प्रश्न उपस्थित होता हैं की क्या ईश्वर पूर्ण और सर्वज्ञ नहीं हैं जो वे मानव जाति के उद्भव के समय में ही पूर्ण और सत्य ज्ञान नहीं दे सकते। परमात्मा को पूर्ण और अज्ञानी मनुष्यों की भांति क्यूँ अपनी बात को बार बार बदलने की आवश्यकता पड़ती हैं। बाइबल २००० वर्ष पहले और कुरान १४०० वर्ष पहले प्रकाश में आया इसका मतलब जो मनुष्य २००० वर्ष पहले जन्म ले चुके थे वे तो ईश्वर के ज्ञान से अनभिज्ञ ही रह गए और इस अनभिज्ञता के कारण अगर उन्होंने कोई पाप कर्म कर भी दिया तो उसका दंड किसे मिलना चाहिए।ईश्वर का केवल एक ही ज्ञान हैं वेद जोकि सृष्टी की आदि में दिया गया था और जिसमे परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं हैं क्यूंकि वेद पूर्ण हैं और सृष्टी के आदि से अंत तक मानव जाति का मार्गदर्शन करते रहेगे। जैसे ईश्वर अनादी हैं उसी प्रकार ईश्वर का ज्ञान वेद भी अनादी हैं।वेद के किसी भी सिद्धांत को बदलने की आवश्यकता ईश्वर को नहीं हुई इसलिए केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं। एक और शंका हमारे मन में आती हैं इस्लाम को मानने वाले कुरान को ईश्वर की अंतिम वाणी (Last and Final) मानते हैं और यह कहते हैं की इस अंतिम सन्देश के बाद ईश्वर की और से और कोई सन्देश नहीं आयेगा। हमारा उनसे एक छोटा सा प्रश्न हैं की किस आधार पर वे कुरान को अंतिम उपदेश कह रहे हैं। जिस आधार पर वे ईश्वरीय ज्ञान को बार बार तरोताज़ा करने की बात कर रहे हैं ऐसा क्या कारण हैं की कुरान के नाज़िल होने के बाद उस ज्ञान को तरोताज़ा करने की आवश्यकता नहीं रहती।

५. ईश्वरीय ज्ञान सृष्टी कर्म के विरूद्ध नहीं होना चाहिए।
ईश्वर सृष्टी के कर्ता हैं और उनके द्वारा रची गयी सृष्टी में एक निश्चित क्रम पाया जाता हैं, सर्वत्र एक व्यवस्था और नियम कार्य करता हुआ दिखाई देता हैं। जैसे सूर्य का पूर्व से निकलना , पश्चिम में अस्त होना, मनुष्य का जन्म लेना और फिर मृत्यु को प्राप्त होना आदि। इतनी विशाल सृष्टी व्यवस्था को चलाने के लिए एक नियम से क्रमबंध किया गया हैं जिससे सृष्टी सुचारू रूप से चल सके। अत; ईश्वर द्वारा दिया गया ज्ञान उन नियमों के विपरीत नहीं हो सकता, जो नियम परमात्मा की सृष्टी में चल रहे हैं। जो पुस्तक अपने को ईश्वरीय ज्ञान कहती हैं उसमे भी सृष्टीक्रम के विपरीत, सृष्टी में चल रहे नियमों के विपरीत कोई बात नहीं पानी चाहिए। ईश्वरीय ज्ञान कहलाने वाले बाइबल और कुरान दोनों में ईश्वर के सृष्टीक्रम के विरुद्ध बातें पाई गयी हैं। जैसे बाइबल के अनुसार ईसा मसीह मरियम के पेट से बिना किसी पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न हो गए थे। ईसा मसीह ने मुर्दों की जीवित कर दिया था, अंधे को आंखे दे दी और बिना किसी औषधि के बीमारों को दुरुस्त कर दिया था आदि। ऐसे ही कुरान के अनुसार मूसा ने एक पत्थर पर डंडा मारा और उससे पानी के चश्मे बह निकले, मुहम्मद साहिब द्वारा चाँद के दो टुकड़े करना, मुहम्मद साहिब द्वारा एक मुर्दा लड़की को जिन्दा करना आदि। इस प्रकार की ऐसी कोई भी पुस्तक अगर सृष्टी क्रम के विरुद्ध किसी भी चमत्कार को ईश्वर के कार्य अथवा महिमा के रूप में चित्रित करती हैं तो उसे ईश्वरीय ज्ञान नहीं कहना चाहिए। अगर कोई यह कहे की ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं और कुछ भी कर सकता हैं तो वे भी गलत हैं क्यूंकि पहले तो ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं अपितु अज्ञानी कहलायेगा क्यूंकि अगर ईश्वर अपने ही बनाये गए नियम को तोड़ते हैं तो ईश्वर सर्वज्ञ घोषित नहीं होते और दुसरे ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने का अर्थ यह नहीं हैं की वे कोई भी कार्य चाहे सृष्टिकर्म के विरुद्ध हो उसे कर सके अपितु जो कार्य ईश्वर के हैं उन कार्य में जैसे सृष्टी की रचना, जीवन की उत्पत्ति, मानव जाति की जन्म मृत्यु, उनको कर्म के आधार पर फल देना आदि में ईश्वर को किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं हैं.बाइबल, कुरान आदि पुस्तकों में सृष्टी क्रम के विरुद्ध अनेक बातें जिन्हें चमत्कार के नाम से प्रचारित कर उनका महिमा मंडन किया जाता हैं ईश्वरीय ज्ञान नहीं हैं। ईश्वर की सृष्टी और ईश्वर के ज्ञान में प्रतिरोध नहीं होना चाहिए। केवल वेद ही एक मात्र धर्म ग्रन्थ हैं जिनमें सृष्टी क्रम के, सृष्टी की व्यवस्था और नियमों के विरुद्ध कोई भी बात नहीं हैं. इसलिए केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं।

६. ईश्वरीय ज्ञान विज्ञान विरुद्ध नहीं होना चाहिए और उसमे विभिन्न विद्या का वर्णन होना चाहिए।

आज विज्ञान का युग हैं। समस्त मानव जाति विज्ञान के अविष्कार के प्रयोगों से लाभान्वित हो रही हैं। ऐसे में ईश्वरीय ज्ञान भी वही कहलाना चाहिए जो ग्रन्थ विज्ञान के अनुरूप हो। उसमे विद्या का भंडार होना चाहिए। उसमे सभी विद्या का मौलिक सिद्धांत वर्णित हो जिससे मानव जाति का कल्याण होना चाहिए। जिस प्रकार सूर्य सब प्रकार के भौतिक प्रकाश का मूल हैं उसी प्रकार ईश्वर का ज्ञान भी विद्यारूपी प्रकाश का मूल होना चाहिए।जो भी धर्म ग्रन्थ विज्ञान विरुद्ध बाते करते हैं वे ईश्वरीय ज्ञान कहलाने के लायक नहीं हैं। बाइबल को धर्म ग्रन्थ मानने वाले पादरियों ने इसलिए गलिलियो (Galilio) को जेल में डाल दिया था क्यूंकि बाइबल के अनुसार सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता हैं ऐसा मानती हैं जबकि गगिलियो का कथन सही था की पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घुमती हैं।उसी प्रकार बाइबल में रेखा गणित (Algebra) का वर्णन नहीं हैं इसलिए देवी हिओफिया को पादरी सिरिल की आज्ञा से बेईज्ज़त किया गया था क्यूंकि वह रेखा गणित पढाया करती थी। कुरान में इसी प्रकार से अनेक विज्ञान विरुद्ध बाते हैं जैसे धरती चपटी हैं और स्थिर हैं जबकि सत्य ये हैं की धरती गोल हैं और हमेशा अपनी कक्षा में घुमती रहती हैं.प्रत्युत वेदों में औषधि ज्ञान (auyrveda), शरीर विज्ञान (anatomy), राजनिति विज्ञान (political science), समाज विज्ञान (social science) , अध्यातम विज्ञान (spritual science), सृष्टी विज्ञान (origin of life) आदि का प्रतिपादन किया गया हैं। आर्यों के सभी दर्शन शास्त्र और आयुर्वेद आदि सभी वैज्ञानिक शास्त्र वेदों को ही अपना आधार मानते हैं। अत: केवल वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं, अन्य ग्रन्थ नहीं।

७. ईश्वरीय ज्ञान ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल होना चाहिए।

ईश्वरीय ज्ञान की एक कसौटी हैं की उसमें ईश्वर के गुण-कर्म- स्वभाव के विपरीत कोई भी बात नहीं पायी जानी चाहिए. ईश्वर सत्यस्वरूप, न्यायकारी, दयालु, पवित्र, शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव, नियंता, सर्वज्ञ आदि गुणों वाला हैं। ईश्वरीय ज्ञान में ईश्वर के इन गुणों के विपरीत बातें नहीं लिखी होनी चाहिए. बाइबल, कुरान आदि धर्म ग्रंथों में कई ऐसी बातें हैं जो की ईश्वर के गुणों के विपरीत हैं। जैसे बाइबल में एक स्थान पर आता हैं की बाइबल के ईश्वर ने भाषायों की गड़बड़ इसलिए कर दी ताकि लोग आपस में लड़ते रहे. हमारी शंका हैं की क्या ईश्वर का कार्य लड़वाना हैं? इसी प्रकार इस्लाम मानने वालों की मान्यता की ईद के दिन निरीह पशु की क़ुरबानी देने से ईश्वर द्वारा पुण्य की प्राप्ति होती हैं ईश्वर के दयालु गुण के विपरीत कर्म हैं। इस प्रकार की अनेक मान्यताये वेदों को छोड़कर तथाकथित धर्म ग्रन्थ जैसे बाइबल और कुरान आदि में मिलती हैं जो ईश्वरीय गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल नहीं हैं इसलिए केवल वेद ही ईश्वरीय गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल होने के कारण एक मात्र मान्य धर्म ग्रन्थ हैं।

इस प्रकार इस लेख में दिया गए तर्कों से यह सिद्ध होता हैं वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं। अंत में वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने की वेद स्वयं ही अंत साक्षी देते हैं। अनेक मन्त्रों से हम इस बात को सिद्ध करते हैं जैसे

१. सबके पूज्य,सृष्टीकाल में सब कुछ देने वाले और प्रलयकाल में सब कुछ नष्ट कर देने वाले उस परमात्मा से ऋग्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद उत्पन्न हुआ, उसी से अथर्ववेद उत्पन्न हुआ और उसी से यजुर्वेद उत्पन्न हुआ हैं- ऋग्वेद १०.९०.९, यजुर्वेद ३१.७, अथर्ववेद १९.६.१३

२. सृष्टी के आरंभ में वेदवाणी के पति परमात्मा ने पवित्र ऋषियों की आत्मा में अपनी प्रेरणा से विभिन्न पदार्थों का नाम बताने वाली वेदवाणी को प्रकाशित किया- ऋग्वेद १०.७१.१

३. वेदवाणी का पद और अर्थ के सम्बन्ध से प्राप्त होने वाला ज्ञान यज्ञ अर्थात सबके पूजनीय परमात्मा द्वारा प्राप्त होता हैं- ऋग्वेद १०.७१.३

४. मैंने (ईश्वर) ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सब लोगों के कल्याण के लिए दिया हैं- यजुर्वेद २६.२

५. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद स्कंभ अर्थात सर्वाधार परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं- अथर्ववेद १०.७.२०

६. यथार्थ ज्ञान बताने वाली वेदवाणियों को अपूर्व गुणों वाले स्कंभ नामक परमात्मा ने ही अपनी प्रेरणा से दिया हैं- अथर्ववेद १०.८.३३

७. हे मनुष्यों! तुम्हे सब प्रकार के वर देने वाली यह वेदरूपी माता मैंने प्रस्तुत कर दी हैं- अथर्ववेद १९.७१.१

८. परमात्मा का नाम ही जातवेदा इसलिए हैं की उससे उसका वेदरूपी काव्य उत्पन्न हुआ हैं- अथर्ववेद- ५.११.२.

आइये ईश्वरीय के सत्य सन्देश वेद को जाने

वेद के पवित्र संदेशों को अपने जीवन में ग्रहण कर अपने जीवन का उद्धार करे


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