वेद और शुद्र

वेद और शूद्र 

जातिवाद सभ्य समाज के माथे पर एक कलंक है।  जिसके कारण मानव मानव के प्रति न केवल असंवेदनशील बन गया है, अपितु शत्रु समान व्यवहार करने लग गया है। समस्त मानव जाति ईश्वर कि संतान है। यह तथ्य जानने के बाद भी छुआ छूत के नाम पर, ऊँच नीच के नाम पर, आपस में भेदभाव करना अज्ञानता का बोधक है।

अनेक लेखकों का विचार है कि जातिवाद का मूल कारण वेद और मनु स्मृति है , परन्तु वैदिक काल में जातिवाद और प्राचीन भारत में छुआछूत के अस्तित्व से तो विदेशी लेखक भी स्पष्ट रूप से इंकार करते है। [It is admitted on all hands by all western scholars also that in the most ancient. Vedic religion, there was no caste system.  — (Prof. Max Muller writes in 'Chips from a German Workshop' Vol. 11, P. 837)]


वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था प्रधान थी जिसके अनुसार जैसा जिसका गुण वैसे उसके कर्म, जैसे जिसके कर्म वैसा उसका वर्ण। जातिवाद रुपी विष वृक्ष के कारण हमारे समाज को कितने अभिशाप झेलने पड़े। जातिवाद के कारण आपसी मतभेदों में वृद्धि हुई, सामाजिक एकता और संगठन का नाश हुआ जिसके कारण विदेशी हमलावरों का आसानी से निशाना बन गये, एक संकीर्ण दायरे में वर-वधु न मिलने से बेमेल विवाह आरम्भ हुए जिसका परिणाम दुर्बल एवं गुण रहित संतान के रूप में निकला, आपसी मेल न होने के कारण विद्या, गुण, संस्कार, व्यवसाय आदि में उन्नति रुक गई।

शंका 1. जाति और वर्ण में क्या अंतर है?

समाधान:- जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण। न्याय सूत्र में लिखा है समानप्रसवात्मिका जाति: -न्याय दर्शन[2/2/71] अर्थात जिनके प्रसव अर्थात जन्म का मूल सामान हो अथवा जिनकी उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो वह एक जाति कहलाते है।

आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या- न्याय दर्शन[2/2/65] अर्थात जिन व्यक्तियों कि आकृति (इन्द्रियादि) एक समान है, उन सबकी एक जाति है।

हर जाति विशेष के प्राणियों के शारीरिक अंगों में एक समानता पाई जाती है। सृष्टि का नियम है कि कोई भी एक जाति कभी भी दूसरी जाति में परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न भिन्न जातियाँ आपस में संतान को उत्त्पन्न कर सकती है। इसलिए सभी जातियाँ ईश्वर निर्मित है नाकि मानव निर्मित है। सभी मानवों कि उत्पत्ति, शारीरिक रचना, संतान उत्पत्ति आदि एक समान होने के कारण उनकी एक ही जाति हैं और वह है मनुष्य।

वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया "वर्ण" शब्द का प्रयोग किया जाता है। वर्ण का मतलब है जिसका वरण किया जाए अर्थात जिसे चुना जाए। वर्ण को चुनने का आधार गुण, कर्म और स्वभाव होता है। वर्णाश्रम व्यवस्था पूर्ण रूप से वैदिक है एवं इसका मुख्य प्रयोजन समाज में मनुष्य को परस्पर सहयोगी बनाकर भिन्न भिन्न कामों को परस्पर बाँटना, किसी भी कार्य को उसके अनुरूप दक्ष व्यक्ति से करवाना, सभी मनुष्यों को उनकी योग्यता अनुरूप काम पर लगाना एवं उनकी आजीविका का प्रबंध करना है।

"आरम्भ में सकल मनुष्य मात्र का एक ही वर्ण था"

[प्रमाण- बृहदारण्यक उपनिषद् प्रथम अध्याय चतुर्थ ब्राह्मण 11,12,13 कण्डिका,  महाभारत शांति पर्व मोक्ष धर्म अध्याय 42 श्लोक10, भागवत स्कंध 9 अध्याय 14 श्लोक 4, भविष्य पुराण ब्रह्मपर्व अध्याय 40]

लौकिक व्यवहारों कि सिद्धि के लिए कामों को परस्पर बांट लिया। यह विभाग करने कि प्रक्रिया पूर्ण रूप से योग्यता पर आधारित थी। कालांतर में वर्ण के स्थान पर जाति शब्द रूढ़ हो गया। मनुष्यों ने अपने वर्ण अर्थात योग्यता के स्थान पर अपनी अपनी भिन्न भिन्न जातियाँ निर्धारित कर ली। गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर जन्म के आधार पर अलग अलग जातियों में मनुष्य न केवल विभाजित हो गया अपितु एक दूसरे से भेदभाव भी करने लगा। वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के स्थान छदम एवं मिथक जातिवाद ने लिया।

शंका 2- मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र में विभाजित करने से क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ?

समाधान- प्रत्येक मनुष्य दूसरों  पर जीवन निर्वाह के लिए निर्भर है। कोई भी व्यक्ति परस्पर सहयोग एवं सहायता के बिना न मनुष्योचित जीवन व्यतीत कर सकता है और न ही जीवन में उन्नति कर सकता है। अत: इसके लिए आवश्यक था कि व्यक्ति जीवन यापन के लिए महत्वपूर्ण सभी कर्मों का विभाजन कर ले एवं उस कार्य को करने हेतु जो जो शिक्षा अनिवार्य है, उस उस शिक्षा को ग्रहण करे। सभी जानते है कि अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित व्यक्ति से हर प्रकार से शिक्षित एवं प्रक्षिशित व्यक्ति उस कार्य को भली प्रकार से कर सकते है। समाज निर्माण का यह भी मूल सिद्धांत है कि समाज में कोई भी व्यक्ति बेकार न रहे एवं हर व्यक्ति को आजीविका का साधन मिले। विद्वान लोग भली प्रकार से जानते है कि जिस प्रकार से शरीर का कोई एक अंग प्रयोग में न लाने से बाकि अंगों को भली प्रकार से कार्य करने में व्यवधान डालता हैं उसी प्रकार से समाज का कोई भी व्यक्ति बेकार होने से सम्पूर्ण समाज को दुखी करता है। सब भली प्रकार से जानते हैं कि भिखारी, चोर, डाकू, लूटमार आदि करने वाले समाज पर किस प्रकार से भोझ है।
                                     इसलिए वेदों में समाज को विभाजित करने का आदेश दिया गया है कि ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए ब्राह्मण, राज्य कि रक्षा के लिए क्षत्रिय, व्यापार आदि कि सिद्धि के लिए वैश्य एवं सेवा कार्य के लिए शुद्र कि उत्पत्ति होनी चाहिए [यजुर्वेद30/5]। इससे यही सिद्ध होता है कि वर्ण व्यवस्था का मूल उद्देश्य समाज में गुण, कर्म और स्वाभाव के अनुसार विभाजन है।

शंका 3 - आर्य और दास/दस्यु में क्या भेद है?

समाधान - वेदों में आचार भेद के आधार पर दो विभाग किये गये हैं आर्य एवं दस्यु। ब्राह्मण आदि वर्ण कर्म भेद के आधार पर निर्धारित है। स्वामी दयानंद के अनुसार ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक चार वर्ण है और चारों आर्य है[सत्यार्थ प्रकाश 8 वां समुल्लास]। मनु स्मृति के अनुसार चारों वर्णों का धर्म एक ही हैं वह है हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्र रहना एवं इन्द्रिय निग्रह करना [मनु स्मृति 10/63]।

             आर्य शब्द कोई जातिवाचक शब्द नहीं है, अपितु गुणवाचक शब्द है। आर्य शब्द का अर्थ होता है “श्रेष्ठ” अथवा बलवान, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर के ऐश्वर्य का स्वामी, उत्तम गुणयुक्त, सद्गुण परिपूर्ण आदि। आर्य शब्द का प्रयोग वेदों में निम्नलिखित विशेषणों के लिए हुआ है।

                          श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए (ऋग 1/103/3, ऋग 1/130/8 ,ऋग 10/49/3), इन्द्र का विशेषण (ऋग 5/34/6 , ऋग 10/138/3), सोम का विशेषण (ऋग 0/63/5),ज्योति का विशेषण (ऋग 10/43/4), व्रत का विशेषण (ऋग 10/65/11), प्रजा का विशेषण (ऋग 7/33/7), वर्ण का विशेषण (ऋग 3/34/9) के रूप में हुआ है।
                            दास शब्द का अर्थ अनार्य, अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शुन्य, भृत्य, बल रहित शत्रु के लिए हुआ है न की किसी विशेष जाति के लोगों के लिए हुआ है। जैसे दास शब्द का अर्थ मेघ (ऋग 5/30/7, ऋग 6/26/5 , ऋग 7/19/2),अनार्य (ऋग 10/22/8), अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शुन्य (ऋग 10/22/8), भृत्य (ऋग), बल रहित शत्रु (ऋग 10/83/1) के लिए हुआ है।

                             दस्यु शब्द का अर्थ उत्तम कर्म हीन व्यक्ति (ऋग 7/5/6) अज्ञानी, अव्रती (ऋग 10/22/8), मेघ (ऋग 1/59/6) आदि के लिए हुआ है न कि किसी विशेष जाति अथवा स्थान के लोगो के लिए हुआ है।

इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि आर्य और दस्यु शब्द गुण वाचक है, जाति वाचक नहीं है। इन मंत्रों में आर्य और दस्यु, दास शब्दों के विशेषणों से पता चलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही मनुष्य आर्य और दस्यु नाम से पुकारे जाते है। अतः उत्तम स्वभाव वाले, शांतिप्रिय, परोपकारी गुणों को अपनाने वाले आर्य तथा अनाचारी और अपराधी प्रवृत्ति वाले दस्यु है।

शंका 4 - वेदों में शुद्र के अधिकारों के विषय में क्या कहा गया है?

समाधान - स्वामी दयानंद ने वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया कि वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढ़ने के अधिकार का समर्थन करते है। स्वामी जी के काल में शूद्रों को वेद अध्यनन का निषेध था। उसके विपरीत वेदों में स्पष्ट रूप से पाया गया कि शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद ही देते है। वेदों में 'शूद्र' शब्द लगभग बीस बार आया है। कही भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है।

हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे 'अरण' अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो। [यजुर्वेद 26 /2]।

प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें[ अथर्ववेद 19/62/1 ]।

इस मंत्र का भावार्थ ये है कि हे परमात्मा आप मेरा स्वाभाव और आचरण ऐसा बन जाये जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें।

हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये। [यजुर्वेद 18/46]।

 मंत्र का भाव यह हैं की हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वाभाव और मन ऐसा हो जाये की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रूचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें, सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।

हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे। [अथर्ववेद 19/32/8 ]।

इस प्रकार वेद की शिक्षा में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी है।

शंका 5 -वेदों के शत्रु विशेष रूप से पुरुष सूक्त को जातिवाद की उत्पत्ति का समर्थक मानते है।

समाधान - पुरुष सूक्त 16 मन्त्रों का सूक्त है जो चारों वेदों में मामूली अंतर में मिलता है।

पुरुष सूक्त जातिवाद का नहीं अपितु वर्ण व्यस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमे “ब्राह्मणोस्य मुखमासीत” ऋग्वेद 10/90 में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गयी है। इस उपमा से यह सिद्ध होता हैं की जिस प्रकार शरीर के यह चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते है, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते है। जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक दुसरे के सुख-दुःख में अपना सुख-दुःख अनुभव करते है।  उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक दुसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए। यदि पैर में कांटा लग जाये तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती है और हाथ सहायता के लिए पहुँचते है उसी प्रकार समाज में जब शुद्र को कोई कठिनाई पहुँचती है तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आये। सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम प्रीति का बर्ताव होना चाहिए। इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेद भाव की बात नहीं कहीं गयी है। कुछ अज्ञानी लोगो ने पुरुष सूक्त का मनमाना अर्थ यह किया कि ब्राह्मण क्यूंकि सर है इसलिए सबसे ऊँचे हैं अर्थात श्रेष्ठ हैं एवं शुद्र चूँकि पैर है इसलिए सबसे नीचे अर्थात निकृष्ट है। यह गलत अर्थ हैं क्यूंकि पुरुषसूक्त कर्म के आधार पर समाज का विभाजन है नाकि जन्म के आधार पर ऊँच नीच का विभाजन है।    इस सूक्त का एक और अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है की जब कोई व्यक्ति समाज में ज्ञान के सन्देश को प्रचार प्रसार करने में योगदान दे तो वो ब्राह्मण अर्थात समाज का सिर/शीश है, यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व करे तो वो क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजाये है, यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध करे तो वो वैश्य अर्थात समाज की जंघा है और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित हैं अर्थात शुद्र है तो वो इन तीनों वर्णों को अपने अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों की नींव बने,मजबूत आधार बने।

शंका 6- क्या वेदों में शुद्र को नीचा माना गया है?

समाधान- वेदों में शुद्र को अत्यंत परिश्रमी कहा गया है।

यजुर्वेद में आता है "तपसे शूद्रं [यजुर्वेद 30/5]" अर्थात श्रम अर्थात मेहनत से अन्न आदि को उत्पन्न करने वाला तथा शिल्प आदि कठिन कार्य आदि का अनुष्ठान करने वाला शुद्र है। तप शब्द का प्रयोग अनंत सामर्थ्य से जगत के सभी पदार्थों कि रचना करने वाले ईश्वर के लिए वेद मंत्र में हुआ है।

वेदों में वर्णात्मक दृष्टि से शुद्र और ब्राह्मण में कोई भेद नहीं है। यजुर्वेद में आता है कि मनुष्यों में निन्दित व्यभिचारी, जुआरी, नपुंसक जिनमें शुद्र (श्रमजीवी कारीगर) और ब्राह्मण (अध्यापक एवं शिक्षक) नहीं है उनको दूर बसाओ और जो राजा के सम्बन्धी हितकारी (सदाचारी) है उन्हें समीप बसाया जाये। [यजुर्वेद 30 /22]। इस मंत्र में व्यवहार सिद्धि से ब्राह्मण एवं शूद्र में कोई भेद नहीं है। ब्राह्मण विद्या से राज्य कि सेवा करता है एवं शुद्र श्रम से राज्य कि सेवा करता है। दोनों को समीप बसने का अर्थ है यही दर्शाता हैं कि शुद्र अछूत शब्द का पर्यावाची नहीं है एवं न ही नीचे होने का बोधक है।

ऋग्वेद में आता है कि मनुष्यों में न कोई बड़ा है , न कोई छोटा है। सभी आपस में एक समान बराबर के भाई है। सभी मिलकर लौकिक एवं पारलौकिक सुख एवं ऐश्वर्य कि प्राप्ति करे। [ऋग्वेद 5/60/5]।

मनुस्मृति में लिखा है कि हिंसा न करना, सच बोलना, दूसरे का धन अन्याय से न हरना, पवित्र रहना, इन्द्रियों का निग्रह करना, चारों वर्णों का समान धर्म है। [मनुस्मृति 10 /63]।

यहाँ पर स्पष्ट रूप से चारों वर्णों के आचार धर्म को एक माना गया है। वर्ण भेद से धार्मिक होने का कोई भेद नहीं है।

ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होने से, संस्कार से, वेद श्रवण से अथवा ब्राह्मण पिता कि संतान होने भर से कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता अपितु सदाचार से ही मनुष्य ब्राह्मण बनता है। [महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 143]।

कोई भी मनुष्य कुल और जाति के कारण ब्राह्मण नहीं हो सकता। यदि चंडाल भी सदाचारी है तो ब्राह्मण है। [महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 226]।

जो ब्राह्मण दुष्ट कर्म करता है, वो दम्भी पापी और अज्ञानी है उसे शुद्र समझना चाहिए। और जो शुद्र सत्य और धर्म में स्थित है उसे ब्राह्मण समझना चाहिए। [महाभारत वन पर्व अध्याय 216/14]।

शुद्र यदि ज्ञान सम्पन्न हो तो वह ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है और आचार भ्रष्ट ब्राह्मण शुद्र से भी नीच है। [भविष्य पुराण अध्याय 44/33]।

शूद्रों के पठन पाठन के विषय में लिखा है कि दुष्ट कर्म न करने वाले का उपनयन अर्थात (विद्या ग्रहण) करना चाहिए। [गृहसूत्र कांड 2 हरिहर भाष्य]।

कूर्म पुराण में शुद्र कि वेदों का विद्वान बनने का वर्णन इस प्रकार से मिलता है। वत्सर के नैध्रुव तथा रेभ्य दो पुत्र हुए तथा रेभ्य वेदों के पारंगत विद्वान शुद्र पुत्र हुए। [कूर्मपुराण अध्याय 19]।

शंका 7 - स्वामी दयानंद का वर्ण व्यवस्था एवं शुद्र शब्द पर क्या दृष्टिकौन है?

समाधान:- स्वामी दयानंद के अनुसार "जो मनुष्य विद्या पढ़ने का सामर्थ्य तो नहीं रखते और वे धर्माचरण करना चाहते हो तो विद्वानों के संग और अपनी आत्मा कि पवित्रता से धर्मात्मा अवश्य हो सकते है। क्यूंकि सब मनुष्य का विद्वान होना तो सम्भव ही नहीं है। परन्तु धार्मिक होने का सम्भव सभी के लिए है।
  [व्यवहारभानु स्वामी दयानंद शताब्दी संस्करण द्वितीय भाग पृष्ठ 755]।

स्वामी जी आर्यों के चार वर्ण मानते है जिनमें शुद्र को वे आर्य मानते है।

स्वामी दयानद के अनुसार गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार मनुष्य कि कर्म अवस्था होनी चाहिये। इस सन्दर्भ में सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी जी प्रश्नोत्तर शैली में लिखते है।

प्रश्न- जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हो,उनकी संतान कभी ब्राह्मण हो सकती है?

उत्तर- बहुत से हो गये है, होते है और होंगे भी। जैसे छान्दोग्योपनिषद 4 /4 में जाबाल ऋषि अज्ञात कुल से, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण से और मातंग चांडाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या, स्वाभाव वाला है, वही ब्राह्मण के योग्य हैं और मुर्ख शुद्र के योग्य है। स्वामी दयानंद कहते है कि ब्राह्मण का शरीर मनु 2/28 के अनुसार रज वीर्य से नहीं होता है।

स्वाध्याय, जप, नाना विधि होम के अनुष्ठान, सम्पूर्ण वेदों को पढ़ने-पढ़ाने, इष्टि आदि यज्ञों के करने, धर्म से संतान उत्पत्ति मंत्र, महायज्ञ अग्निहोत्र आदि यज्ञ, विद्वानों के संग, सत्कार, सत्य भाषण, परोपकार आदि सत्कर्म, दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठ आचार में व्रतने से ब्राह्मण का शरीर किया जाता है। रज वीर्य से वर्ण व्यवस्था मानने वाले सोचे कि जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट और कही कही दोनों श्रेष्ठ व दोनों दुष्ट देखने में आते है।
जो लोग गुण, कर्म, स्वभाव से वर्ण व्यवस्था न मानकर रज वीर्य से वर्ण व्यवस्था मानते है उनसे पूछना चाहिये कि जो कोई अपने वर्ण को छोड़ नीच, अन्त्यज्य अथवा कृष्टयन, मुस्लमान हो गया है उसको भी ब्राह्मण क्यूँ नहीं मानते? इस पर यही कहेगे कि उसने "ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये इसलिये वह ब्राह्मण नहीं है" इससे यह भी सिद्ध होता है कि जो ब्राह्मण आदि उत्तम कर्म करते है वही ब्राह्मण और जो नीच भी उत्तम वर्ण के गुण, कर्म स्वाभाव वाला होवे, तो उसको भी उत्तम वर्ण में, और जो उत्तम वर्णस्थ हो के नीच काम करे तो उसको नीच वर्ण में गिनना अवश्य चाहिये।

सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानंद लिखते है श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान, देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात डाकू, मुर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चार भेद हुए। [सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास]।

मनु स्मृति के अनुसार जो शुद्र कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गुण, कर्म स्वभाव वाला हो तो वह शुद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाये। वैसे ही जो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण, कर्म स्वभाव शुद्र के सदृश्य हो तो वह शुद्र हो जाये। वैसे क्षत्रिय वा वैश्य के कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, ब्राह्मणी वा शुद्र के समान होने से ब्राह्मण वा शुद्र भी हो जाता हैं। अर्थात चारों वर्णों में जिस जिस वर्ण के सदृश्य जो जो पुरुष वह स्त्री हो वह वह उसी वर्ण में गिना जावे। [सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास]।

आपस्तम्भ सूत्र का प्रमाण देते हुए स्वामी दयानंद कहते है धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्णों को प्राप्त होता है,और वह उसी वर्ण में गिना जावे, कि जिस जिस के योग्य होवे। वैसे ही अधर्माचरण से पूर्व पूर्व अर्थात उत्तम उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्णो को प्राप्त होता हैं, और उसी वर्ण में गिना जावे। [आपस्तम्भ सूत्र 2/5/1/1]।

स्वामी दयानंद जातिवाद के प्रबल विरोधी और वर्ण व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। वेदों में शूद्रों के पठन पाठन के अधिकार एवं साथ बैठ कर खान पान आदि करने के लिए उन्होंने विशेष प्रयास किये थे।

शंका 8 - क्या वेदादी शास्त्रों में शुद्र को अछूत बताया गया है?

समाधान- वेदों में शूद्रों को आर्य बताया गया हैं इसलिए उन्हें अछूत समझने का प्रश्न ही नहीं उठता हैं। वेदादि शास्त्रों के प्रमाण सिद्ध होता है कि ब्राह्मण वर्ग से से लेकर शुद्र वर्ग आपस में एक साथ अन्न ग्रहण करने से परहेज नहीं करते थे। वेदों में स्पष्ट रूप से एक साथ भोजन करने का आदेश है।

हे मित्रों तुम और हम मिलकर बलवर्धक और सुगंध युक्त अन्न को खाये अर्थात सहभोज करे। [ऋग्वेद 9/98/12]।
हे मनुष्यों तुम्हारे पानी पीने के स्थान और तुम्हारा अन्न सेवन अथवा खान पान का स्थान एक साथ हो। [अथर्ववेद 6/30/6]।
महाराज दशरथ के यज्ञ में शूद्रों का पकाया हुआ भोजन ब्राह्मण, तपस्वी और शुद्र मिलकर करते थे। [वाल्मीकि रामायण सु श्लोक 12]।
श्री रामचंद्र जी द्वारा भीलनी शबरी के आश्रम में जाकर उनके पाँव छूना एवं उनका आतिथ्य स्वीकार करना। [वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड श्लोक 5,6,7,निषादराज से भेंट होने पर उनका आलिंगन करना। [ वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड श्लोक 33,34।

यह प्रमाण इस तथ्य का उदबोधक है कि रामायण काल में भील, निषाद शूद्र आदि को अछूत नहीं समझा जाता था।

राजा धृतराष्ट्र के यहां पूर्व के सदृश अरालिक और सूपकार आदि शुद्र भोजन बनाने के लिए नियुक्त हुए थे। [महाभारत आ पर्व 1/19]।

इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वैदिक काल में शुद्र अछूत नहीं थे। कालांतर में कुछ अज्ञानी लोगो ने छुआछूत कि गलत प्रथा आरम्भ कर दी जिससे जातिवाद जैसे विकृत मानसिकता को प्रोत्साहन मिला।

शंका 9 - अगर ब्राह्मण का पुत्र गुण कर्म स्वभाव से रहित हो तो क्या वह शुद्र कहलायेगा और अगर शुद्र गुण कर्म और स्वभाव से गुणवान हो तो क्या वह ब्राह्मण कहलायेगा?

समाधान - वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रहने पर शूद्र कहलायेगा वैसे ही शूद्र का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है। यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है। जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती है उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था। प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था।

वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित है, जैसे -

(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे परन्तु अपने गुणों से उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की थी। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |

(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे, जुआरी और हीन चरित्र भी थे, परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया था [ऐतरेय ब्राह्मण 2/19]।

(3) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। [छान्दोग्योपनिषद 4 खंड 4 /4]।

(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। [विष्णु पुराण 4/1/14]।

अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?

(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए, पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। [विष्णु पुराण 4/1/13]।

(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। [विष्णु पुराण 4/2/2]।

(7) आगे उन्ही के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। [विष्णु पुराण 4/2/2]।

(8) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।

(9) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने थे।

(10) हारित क्षत्रिय पुत्र से ब्राह्मण हुए थे। [विष्णु पुराण 4/3/5]।

(11) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। वायु, विष्णु और हरिवंशपुराण कहते है कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण है। [विष्णु पुराण 4/8/1]।

(12) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने थे। [महाभारत राजधर्म अध्याय 27 ]।

(13) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना था।

(14) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ था।

(15) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।

(16) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया था, विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था।

(17) विदुर दासी पुत्र थे तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया था, ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण
अतिशय आवश्यक माना जाता है।

इन उदहारणों से यही सिद्ध होता हैं कि वैदिक वर्ण व्यवस्था में वर्ण परिवर्तन का प्रावधान था एवं जन्म से किसी का भी वर्ण निर्धारित नहीं होता था।

मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का स्पष्ट आदेश है। [मनुस्मृति 10/65]।

शुद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शुद्र हो जाता है, इसी प्रकार से क्षत्रियों और वैश्यों कि संतानों के वर्ण भी बदल जाते है। अथवा चारों वर्णों के व्यक्ति अपने अपने कार्यों को बदल कर अपने अपने वर्ण बदल सकते है।

शुद्र भी यदि जितेन्द्रिय होकर पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से अपने अंत: करण को शुद्ध बना लेता है, वह द्विज ब्राह्मण कि भांति सेव्य होता है। यह साक्षात् ब्रह्मा जी का कथन है। [महाभारत दान धर्म अध्याय 143/47]।

देवी! इन्हीं शुभ कर्मों और आचरणों से शुद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है और वैश्य क्षत्रियत्व को प्राप्त होता है। [महाभारत दान पर्व अध्याय 143/26]।

जन्मना जायते शुद्र: संस्कारों द्विज उच्यते। वेद पाठी भवेद् विप्र: बृह्मा जानेति ब्राह्मण: ।।
अर्थात जन्म सब शुद्र होते है, संस्कारों से द्विज होते है। वेद पढ़ कर विप्र होते हैं और ब्रह्मा ज्ञान से ब्राह्मण होते है। [नरसिंह तापनि उपनिषद्]

शुभ संस्कार तथा वेदाध्ययन युक्त शुद्र भी ब्राह्मण हो जाता है और दुराचारी ब्राह्मण ब्राह्मणत्व को त्यागकर शुद्र बन जाता है। [ब्रह्म पुराण 223/43]

जिस में सत्य, दान, द्रोह का भाव, क्रूरता का अभाव, लज्जा, दया और तप यह सब सद्गुण देखे जाते हैं वह ब्राह्मण है। [महाभारत शांति पर्व अध्याय 88/4]

ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होना, संस्कार, वेद श्रवण, ब्राह्मण पिता कि संतान होना, यह ब्राह्मणत्व के कारण नहीं है, बल्कि सदाचार से ही ब्राह्मण बनता है। [महाभारत अनुशासन पर्व 143/51]।

कोई मनुष्य कुल, जाति और क्रिया के कारण ब्राह्मण नहीं हो सकता। यदि चंडाल भी सदाचारी हो तो वह ब्राह्मण हो सकता है। [महाभारत अनुशासन पर्व 226/15]।


शंका 10- क्या वेदों के अनुसार शिल्प विद्या और उसे करने वालो को नीचा माना गया है?

समाधान- वैदिक काल में शिल्प विद्या को सभी वर्णों के लोग अपनी अपनी आवश्यकता अनुसार करते थे। कालांतर में शिल्प विद्या केवल शुद्र वर्ण तक सिमित हो गई और अज्ञानता के कारण जैसे शूद्रों को नीचा माना जाने लगा वैसे ही शिल्प विद्या को भी नीचा माना जाने लगा। जैसे यजुर्वेद में लिखा है -

वेदों में विद्वानों (ब्राह्मणों) से लेकर शूद्रों सभी को शिल्प आदि कार्य करने का स्पष्ट आदेश है एवं शिल्पी का सत्कार करने कि प्रेरणा भी दी गई है।
जैसे विद्वान लोग अनेक धातु एवं साधन विशेषों से वस्त्रादि को बना के अपने कुटुंब का पालन करते है तथा पदार्थों के मेल रूप यज्ञ को कर पथ्य औषधि रूप

पदार्थों को देके रोगों से छुड़ाते और शिल्प क्रिया के प्रयोजनों को सिद्ध करते है, वैसे अन्य लोग भी किया करे। [यजुर्वेद 19/80 महर्षि दयानंद वेद भाष्य]।

हे बुद्धिमानों जो वाहनों को बनाने और चलाने में चतुर और शिल्पी जन होवें उनका ग्रहण और सत्कार करके शिल्प विद्या कि उन्नति करो[ऋग्वेद 4/36/2]।

ऐसा ही आलंकारिक वर्णन ऋग्वेद के 1/20/1-4 एवं ऋग्वेद 1/110/4 में भी मिलता है।

जातिवाद के पोषक अज्ञानी लोगो को यह सोचना चाहिए कि समाज में लौकिक व्यवहारों कि सिद्धि के लिए एवं दरिद्रता के नाश के लिए शिल्प विद्या और उसको संरक्षण देने वालो का उचित सम्मान करना चाहिए। इसी में सकल मानव जाति कि भलाई है।

शंका 11- जातिभेद कि उत्पत्ति कैसे हुई और जातिभेद से क्या क्या हानियां हुई?

समाधान- जातिभेद कि उत्पत्ति के मुख्य कारण कुछ अनार्य जातियों में उन्नत जाति कहलाने कि इच्छा , कुछ समाज सुधारकों द्वारा पंथ आदि कि स्थापना करना और जिसका बाद में एक विशेष जाति के रूप में परिवर्तित होना था जैसे लिंगायत अथवा बिशनोई, व्यवसाय भेद के कारण जैसे ग्वालो को बाद में अहीर कहा जाने लगा , स्थान भेद के कारण जैसे कान्य कुब्ज ब्राह्मण कन्नौज से निकले , रीति रिवाज़ का भेद, पौराणिक काल में धर्माचार्यों कि अज्ञानता जिसके कारण रामायण, महाभारत, मनु स्मृति आदि ग्रंथों में मिलावट कर धर्म ग्रंथों को जातिवाद के समर्थक के रूप में परिवर्तित करना था।

पूर्वकाल में जातिभेद के कारण समाज को भयानक हानि उठानी पड़ी थी और अगर इसी प्रकार से चलता रहा तो आगे भी उठानी पड़ेगी। जातिभेद को मानने वाला व्यक्ति अपनी जाति के बाहर के व्यक्ति के हित एवं उससे मैत्री करने के विषय में कभी नहीं सोचता और उसकी मानसिकता अनुदार ही बनी रहती है।

इस मानसिकता के चलते समाज में एकता एवं संगठन बनने के स्थान पर शत्रुता एवं आपसी फुट अधिक बढ़ती जाती है।

R.C.Dutt महोदय के अनुसार “हिन्दू समाज में जातिभेद के कारण बहुत सी हानियां हुई है पर उसका सबसे बुरा और शोकजनक परिणाम यह हुआ कि जहाँ एकता और समभाव होना चाहिये था वहाँ विरोध और मतभेद उत्पन्न हो गया। जहाँ प्रजा में बल और जीवन होना चाहिये था वहाँ निर्बलता और मौत का वास है। [R.C.Dutt-Civilization in Ancient India]।”

सामाजिक एकता के भंग होने से विपरीत परिस्थितियों में जब शत्रु हमारे ऊपर आक्रमण करता था तब साधन सम्पन्न होते हुए भी शत्रुओं कि आसानी से जीत हो जाती थी। जातिवाद के कारण देश को शताब्दियों तक गुलाम रहना पड़ा। जातिवाद के चलते करोड़ो हिन्दू जाति के सदस्य धर्मान्तरित होकर विधर्मी बन गये। यह किसकी हानि थी। केवल और केवल हिन्दू समाज कि हानि थी।

आशा है पाठकगन वेदों को जातिवाद का पोषक न मानकर उन्हें शुर्द्रों के प्रति उचित सम्मान देने वाले और जातिवाद नहीं अपितु वर्ण व्यस्था का पोषक मानने में अब कोई आपत्ति नहीं समझेगे और जातिवाद से होने वाली हानियों को समझकर उसका हर सम्भव त्याग करेगे।


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