‘वेद आर्यसमाज और गणतन्त्र प्रणाली’
'वेद आर्यसमाज और गणतन्त्र प्रणाली'
भारत का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की इस सृष्टि के बनने के बाद प्राणी जगत व मानव उत्पत्ति के बाद का सृष्टि का इतिहास। सभी मनुष्यों को नियम में रखने व सभी श्रेष्ठ आचरण करने वाले मनुष्यों को अच्छा भयमुक्त व सद्ज्ञानपूर्ण वैदिक परम्पराओं के अनुरुप वातावरण देने के लिए एक आदर्श राजव्यवव्स्था की आवश्यकता एवं उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व आरम्भ होकर वर्तमान समय तक चला आया है। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र होने से पूर्व भी इस देश में अगणित राजा हुए जिन्होंने देश पर राज किया और राज्य के संचालन के लिए उनके अपने संविधान, नियम व सिद्धान्त भी रहे हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत काल व उसके बाद के भारत के आर्य राजाओं के संविधान वेद सम्मत नियमों व प्रक्षेप रहित मनुस्मृति के विधान हुआ करते थे। अभाग्योदय से प्राचीन भारत में वर्तमान समय से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व महाभारत का विनाशकारी युद्ध हुआ जिसमें लाखों की संख्या में लोग मारे गये। इस युद्ध के परिणामस्वरुप देश की शैक्षिक, सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिससे ज्ञान व विज्ञान का ह्रास होकर समाज में अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व लोगों का चारित्रिक पतन आदि देखने को मिलता है। इन कारणों से देश पहले मुगलों वा यवनों का और उसके बाद अंग्रेजों का दास बन गया। मुगलों व अंग्रेजों की दासता के समय में भी अनेक आर्य वा हिन्दू राजाओं ने विदेशी विधर्मी शासकों का पुरजोर विरोध किया। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह जी आदि हमारे ऐसे ही पूर्वजों में थे जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता व सुशासन के लिए अपना उल्लेखनीय योगदान किया।
वेद व वैदिक ज्ञान सत्य व न्याय पर आधारित राज्य का समर्थक व पोषक है। वेदों ने मनुष्यों को यह बताया है कि इस जगत में ईश्वर, जीव व प्रकृति यह तीन मुख्य व प्रमुख तत्व हैं। ईश्वर व जीव चेतन तत्व वा पदार्थ हैं तथा प्रकृति इनके विपरीत जड़ है। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है तथा जीव अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम है। ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति उपादान कारण है। जीव संख्या में अनन्त हैं व ईश्वर केवल एकमात्र व केवल एक सत्ता है। इन्हीं जीवों के पूर्वजन्म के कर्मों के फल रूपी सुख व दुःख के भोग के लिए ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है जिससे कि ईश्वर की सामथ्र्य का उपयोग हो सके और जीवों को मानव आदि शरीरों की प्राप्ति के साथ कर्मानुसार सुख व दुःख मिल सके। मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों के फलों का भोग करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना व सभी वेद विहित कर्मों को करना जिससे दुःखों की पूर्णतया निवृति होकर मोक्ष की प्राप्ति हो सके। मनुष्य वा उसकी जीवात्मा को मोक्ष वैदिक ज्ञान की प्राप्ति कर उसके अनुसार निष्काम व फलों की इच्छा से रहित सभी प्राणियों के हितकारी कर्मों के आचरण सहित ईश्वर की उपासना से समाधि को सिद्ध करने अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार करने पर प्राप्त होता है। समाज में अपराध से मुक्त वातावरण हो, लोगों को उन्नति के अवसर मिलें, नागरिक सुखी व समृद्ध हों तथा राज्य विदेशी शत्रुओं से सुरक्षित रहे, ऐसे अनेक प्रयाजनों की व्यवस्था के लिए राज्य की स्थापना की जाती है। इस दृष्टि से रामराज्य अब तक हुए सभी राजाओं व राज्यों में श्रेष्ठ राज्य था। सज्जन पुरुष तो अनुशासन में रहते ही हैं परन्तु दुष्टों व अपराध प्रवृत्ति के स्त्री व पुरुषों को अनुशासन में रखने के लिए कठोर दण्ड का प्राविधान आवश्यक है। न केवल दण्ड का प्राविधान ही अपितु ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि जिसमें कोई अपराधी बिना दण्ड के बच न सके। सभी अपराधियों को उनके अपराध के अनुरुप कठोर दण्ड देकर ही समाज को अपराधमुक्त किया जा सकता है। दण्ड व्यवस्था के पूर्ण प्रभावशाली होने के साथ देश के सभी स्त्री-पुरुषों व उनके बच्चों के लिए एक समान, सबके लिए अनिवार्य, निःशुल्क व आदर्श वैदिक शिक्षा प्रणाली होनी चाहिये जिससे सभी बच्चों व नागरिकों को अच्छे संस्कार मिले। आजकल की हमारे देश की व्यवस्था में यह उत्तम बातें नहीं हैं। अतः यह कहना व मानना पड़ता है कि व्यवस्था में अनेक खामियां है जिनके सुधार की आवश्यकता है।
वेद क्या हैं, यह भी जानना आवश्यक है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न मनुष्यों में चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को ईश्वर द्वारा इन ऋषियों की आत्मा में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया गया था। इस ज्ञान से ही संसार की प्रथम पीढ़ी के मनुष्यों का तिब्बत में जीवन निर्माण हुआ और नई पीढि़यों ने जन्म लेकर न केवल जनसंख्या की वृद्धि की अपितु जनसंख्या वृद्धि व कुछ लोगों के यायावरी स्वभाव के कारण यह सारा संसार वेदानुयायी आर्यों द्वारा बसाया गया। महाभारत काल तक वैदिक नियमों व इनके अनुसार बनाये गये ऋषियों के विधानों के आधार पर आर्य राजाओं ने संसार पर शासन किया। रामायण, महाभारत एवं महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ आदि इसके प्रमाण हैं। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों का गम्भीर अध्ययन करके इसको पूर्णतया सत्य व निभ्र्रान्त पाया था और इसकी प्रमाणिकता को तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया। उन्होंने ऋग्वेद का आंशिक एवं यजुर्वेद का संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य भी किया है। वेदों में देश के संचालन के लिए साम्प्रदायिक व मजहबी बातों से रहित शुद्ध सत्य व न्याय पर आधारित विधान दिये गये है जो भारत सहित संसार के सभी देशों के लिए माननीय हैं। वेदों से दूर जाने के कारण ही अतीत में भारत की दुर्दशा हुई और आज संसार में सर्वत्र जो अशान्ति, भय, हिंसा व अन्याय का वातावरण है उसका प्रमुख कारण भी संसार का वेदों से दूर जाना है।
महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल, 1875 को वेदों के प्रचार व प्रसार हेतु मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। अज्ञान, अन्धविश्वास, पक्षपात-अन्याय-अत्याचार-शोषण-असमानता आदि को दूर कर संसार में वेदानुरुप ईश्वर की सच्ची पूजा, पर्यावरण की शुद्धि सहित सभी नागरिकों को सद्ज्ञान व श्रेष्ठ संस्कारों से संयुक्त करना उनका मुख्य उद्देश्य था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने व उनके आर्यसमाज के अनुयायियों ने जो पुरुषार्थ किया है, वह इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनके विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का सारे संसार पर प्रभाव पड़ा परन्तु बहुत सी बातें लोगों की अल्पज्ञता, अज्ञानता, स्वहित आदि अनेक कारणों से आज भी बनी हुई हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने गुरुकुलों में वेदों के आधुनिक विद्वान तैयार करने चाहिये जो न केवल संसार की सभी समस्याओं के व्यवहारिक वैदिक समाधान दे सकें अपितु विश्व में वेदों का अपूर्व रीति से प्रभावशाली प्रचार भी करें जिससे कि एक ईश्वर, एक विचारधारा, एक सिद्धान्त व मान्यता, अन्याय-शोषण-हिंसा रहित समाज का निर्माण किया जा सके। यही आर्यसमाज का उद्देश्य, परम्परा, कार्य व प्रचार की दिशा है।
हमारे देश में गणतन्त्र प्रणाली है जो कि अन्य प्रचलित प्रणालियों से श्रेष्ठ है। अनेक प्रावधान ऐसे भी हैं जिनका दुरुपयोग किया जाता है जिससे समाज में सामाजिक व आर्थिक असमानता अत्यधिक बढ़ गई है। इस देश में ऐसे भी लोग हैं जिनको रात दिन काम करने के बाद भी न भर पेट भोजन मिलता है, अच्छे वस्त्रों, निजी घर, उच्च शिक्षा की तो बात ही क्या है? गणतन्त्र प्रणाली में सबको एक समान, निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिये। ब्रह्मचर्य व संयम पूर्ण जीवन की प्रतिष्ठा होनी चाहिये। मांसाहार, धूम्रपान, मदिरापान व नशा आदि पूर्ण प्रतिबन्धित होने चाहिये। गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु गोसंवर्धन के लिए अनुसंधान केन्द्रों सहित गोपालन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जिससे देश में दुग्ध व दुग्ध उत्पाद प्रचुरता से सर्वसुलभ हो सकें। गाय सहित सभी पशुओं के मांसाहारार्थ वध पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु ऐसा करने वालों को दण्डित भी किया जाना चाहिये। पशुओं की हत्या हिंसात्मक कार्य है और यह अमानवीय व्यवहार है। हम समझते हैं धर्म सदगुणों को धारण करने व उनके अनुसार व्यवहार करने को कहते हैं, अतः कोई भी धर्म अकारण व भोजनार्थ पशु की हत्या की अनुमति नहीं दे सकता। सारे देश में सरकार की ओर वेदों की अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था भी होनी चहिये। स्त्रि़यों का आदर व सम्मान होना चाहिये और सभी स्त्री-पुरुष नागरिकों को वैदिक संस्कृति के अनुसार आचरण-व्यवहार करने सहित आदर्श वेशभूषा को धारण करना चाहिये। जन्मना जातिवाद प्रतिबन्धित हो व पूर्णतया समाप्त हों। दलितों व पिछड़ों को शिक्षा में विशेष सुविधायें मिलनी चाहिये जिसका आधार उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति होनी चाहिये। समाज में कोई दलित व पिछड़ा हो ही न अपितु सभी सामाजिक व आर्थिक दृष्टि उन्नत हो और सभी में परस्पर प्रेम व भातृभाव विकसित अवस्था में होना चाहिये। असत्य आचरण, अपरिग्रह व सच्चरित्रता को सामाजिक जीवन में अधिक महत्व दिया जाना चाहिये और इसके विपरीत की उपेक्षा होनी चाहिये। समाज में आध्यात्मिकता का विकास व विस्तार और साम्प्रदायिक विचारधारा पर अंकुश व प्रतिबन्ध होना चाहिये। जब यह व ऐसे सभी लक्ष्य प्राप्त हो जायेंगे तभी हमारी गणतन्त्र प्रणाली सफल मानी जा सकती है। क्या हम गणतन्त्र प्रणाली के आदर्श इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए काम कर रहें हैं, इस पर हमें आज के दिन विचार करना चाहिये। इन सभी प्रश्नों पर विचार करना व इनका हल ढूढंना ही गणतन्त्र दिवस को मनाना हमें प्रतीत होता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।