वर्तमान हिंदू समाज मैं अवतारवाद निराकार परमात्मा को साकार बनाने की कल्पना है अवतारवाद और मूर्ति पूजा का जुड़वा भाई-बहन का -सा घनिष्ठ संबंध है

"वर्तमान हिन्दू समाज में अवतारवाद, निराकार परमात्मा को साकार बनाने की एक दूसरी कल्पना है। अवतारवाद और मूर्तिपूजा का जुड़वाँ भाई-बहन का-सा घनिष्ठ सम्बंध है।"


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मूर्तिपूजा और अवतारवाद
जिस समय मूर्तिपूजा की कल्पना की गई उस समय यह भी आवश्यक हुआ कि ईश्वर को साकार सिद्ध किया जाय, क्योंकि बिना साकार सिद्ध किए उसकी मूर्ति अथवा प्रतिमा बन ही कैसे सकती है ! अतः उसकी पूर्ति ब्रह्मा-विष्णु-महेश, ईश्वर के तीन साकार रूप कल्पित करके की गई। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ये एक ही ईश्वर के तीन गुणवाचक नाम हैं। परमात्मा सृष्टि रचता है अतः उसका नाम ब्रह्मा, सृष्टि का पालन करता है अतः विष्णु, और संहार करता है इसलिए महेश अथवा रुद्र है। ये तीनों कोई पृथक् शरीरधारी ईश्वर अथवा उसकी साकार शक्तियाँ नहीं हैं, अपितु उपर्युक्त तीनों गुणों के आधार पर हम ईश्वर को तीनों ही नामों से पुकारते हैं।


इसी प्रकार वेदों में ईश्वर के अनेक गुणवाची नामों का वर्णन है, जिन्हें आगे चलकर लोगों ने अज्ञान-वश पृथक्-पृथक् ईश्वर अथवा देव समझ लिया। कवियों ने उनका गुणगान किया, चित्रकारों ने उनके चित्र बनाकर अपनी कला का परिचय दिया और अन्त में मूर्तिकारों ने उनकी मूर्तियाँ निर्माण कर दी। जहाँ तक कला का सम्बन्ध है, इसमें कोई दोष भी नहीं, किन्तु कालान्तर में जब स्वार्थ अथवा अज्ञान-वश इनकी जीवित महापुरुषों के समान भेंट-पूजा का प्रकार चल पड़ा और जन-साधारण की संतुष्टि के लिए उनमें प्राण-प्रतिष्ठा एवं चमत्कारों का आरोप किया गया, उसी समय से उसका घोर दुरुपयोग प्रारम्भ हो गया।


वर्तमान हिन्दू समाज में अवतारवाद, निराकार परमात्मा को साकार बनाने की एक दूसरी कल्पना है। ईश्वर निराकार तो है, किन्तु अवतार धारण करके साकार शरीरी भी बन जाता है, और जिन मूर्तियों की पूजा की जाती है, वे उन्हीं अवतारों की प्रतिमूर्तियाँ हैं - ऐसा सर्वसाधारण का मत है। इस प्रकार देखा जाय तो अवतारवाद और मूर्तिपूजा का जुड़वाँ भाई-बहन का-सा घनिष्ठ सम्बंध है और बहुत अंशों में ये एक-दूसरे पर आश्रित हैं।


ईश्वर इस पृथिवी पर शरीर धारण करके क्यों अवतरित होता है? उसे इसकी क्या आवश्यकता होती है? इसके लिए भी पुराणों में, जिनके लेखक ही वास्तव में मूर्तिपूजा के जन्मदाता हैं और जिनका समय भी मूर्तिपूजा की भाँति केवल कुछ हज़ार वर्ष ही है, अनेक रोचक कथाओं तथा उपाख्यानों द्वारा अनेक कल्पनाएँ की गई हैं। पुराणों में चौबीस, जिनमें मुख्य दस हैं, अवतारों की कल्पना की गई है। इनमें कुछ को छोड़कर सब ही को विष्णु का पूर्ण अथवा आंशिक अवतार माना गया है। कुछ अवतार नर-रूप हैं, जैसे राम, कृष्ण, बुद्ध, शंकर इत्यादि और कुछ पशु-रूप हैं, जैसे कच्छ, मच्छ तथा सूकर । किन्तु इन समस्त अवतारों में विष्णु की प्रधानता यह सिद्ध करती है कि इस वाद की कल्पना का सूत्रपात वैष्णवों द्वारा किया गया।


अवतारवाद के पक्ष में जो युक्तियाँ दी जाती हैं, वे बहुत निर्बल और लचर हैं। प्रथम तो निराकार और साकार एक वस्तु के दो विरोधी गुण हो ही नहीं सकते। ईश्वर या तो निराकार है या साकार । यदि उसका भी जीव की भाँति शरीर धारण करना मान लिया जाय, तो ईश्वर भी ईश्वर न रहकर जीव ही बन जाता है।
*लेखक   -  महर्षि दयानन्द स्वामी।*
*प्रस्तुति  - *वेद वरदान आर्य*


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