वैरागी क्या है

वैराग्य क्या है आइये जानते हैं
आचार्या विमलेश आर्या की कलम से✍
विषयों में अनासक्ति ही वैराग्य है विषय -रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्द जब इन पांचों में आसक्ति-मोह-राग-स्वार्थमय प्रीति हो जाती है तो व्यक्ति रागी हो जाता है जब इनसे विमुक्ति-छुटकारा होता है तो वैराग्य होता है।
प्रकृति, सूक्ष्म और स्थूल इन तीनों शरीरों में विषयों की भावना का किंचित् मात्रा में भी लेश न रहे  यह अनासक्ति ही वैराग्य है।
सन्यास का जनक वैराग्य है।
महर्षि दयानंद के भीतर जब वैराग्य जागा तो सन्यासी बन ईश्वर को खोजने घर बार छोड़कर चल दिये राजा भर्तृहरि के भीतर जब वैराग्य जागा तो परिवार छोड़ दिया  कई बार विषयों ने पुनः पुनः खींचा भी परन्तु अंत में विजय हासिल कर ही ली।
ऐसे वैरागी संत महात्माओं से इतिहास भरा पड़ा है।
परन्तु हर भगवा-सन्यासी वैरागी ही हो यह आवश्यक नहीं।
सन्यास मय वृत्ति का होना जरूरी है तप और त्याग की वृत्ति यदि गृहस्थ में भी है तो वह वैरागी है।
और यह तो सत्य है मानना ही पड़ेगा जब तक जिज्ञासु उस ब्रह्म की खोज में नहीं निकलता तब तक मन विषयों में ही उछलकूद करवाता है।
संसार की हर वस्तु उसके लिए महत्वपूर्ण बन प्रलोभन में फ़साती है।
इसलिए अंत में मोक्ष के साधक को सन्यास आश्रम ग्रहण करना ही होता है।
चाहे वह किसी भी आश्रम से ग्रहण करे।
क्योंकि बिना वैराग्य के सन्यास नहीं और बिना सन्यास के मोक्ष नहीं।
सरल शब्दों में यदि कहें- *वैराग क्या तो कह सकते हैं*
*भोग वासनाओं का जहाँ उदय नहीं  वह वैराग्य*।
-प्रस्तुति अखिल आर्य
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