वैदिक दंड व्यवस्था पर विचार

वैदिक दंड व्यवस्था पर विचार


  वैदिक दंड व्यवस्था विषय में एक शंका हमारे समक्ष आई हैं। शंका इस प्रकार हैं की एक और वेदों में विश्व में सम्पूर्ण मानव जाति के लिए शांति का सन्देश हैं जबकि दूसरी ओर वेदों में शत्रु को जड़ से नष्ट करने का, उसके प्राण हरने का, उसके राज्य को भंग करने का स्पष्ट आदेश हैं। इसके अतिरिक्त वेदों में विभिन्न प्रकार के अस्त्र और शास्त्र का उल्लेख होना क्या दर्शाता हैं ? शांति और शत्रुओं का नाश करना इन दोनों बातों में परस्पर विरोध हैं, ऐसा कैसे संभव हैं? एक अन्य शंका यह थी की इस दंड व्यवस्था को कौन लागू करेगा।


 यह शंका नवीन नहीं   हैं। पूर्व में भी यह शंका पहले कई बार सामने आई हैं और इसका यथोचित समाधान भी किया गया हैं। जैसे पूर्व में अब्दुल गफूर से महाशय धर्मपाल बनने और फिर दोबारा से अब्दुल गफूर बनने पर मुसलमानों में धाक ज़माने के लिए आर्य समाज और स्वामी दयानंद के विरुद्ध कुछ पुस्तकें प्रकाशित की गई थी। इन पुस्तकों में से एक उर्दू पुस्तक थी  "वेद और स्वामी दयानंद"।  इस पुस्तक में इसी शंका को अब्दुल गफूर ने प्रस्तुत किया हैं। अब्दुल गफूर लिखता हैं "वेदों के इज़हार से पेशतर दुनिया में इस क़िस्म के कुश्त व ख़ून और जंग व हदल जारी थे और कि वेदों की तालीम से पहले ही लोग तोप बन्दूक़ और तीर व कमान से एक दूसरे को हलाक कर रहे थे तो उनसे सिर्फ़ यही नहीं कि इस दावे की कि वेदों का इलहाम शुरू दुनिया में हुआ, तरदीद हो जाती है। बल्कि वेदों के सर पर ये इलज़ाम आयद हो जाता है कि जिस सूरत में कि ये जंग व हदल और कुश्त व ख़ून वेदों से पहले ही जारी थे तो वेदों ने अपनी तालीम से बजाये इनका ख़ात्मा करने या सुलह की तालीम देने के जलती आग पर और भी घी डाल दिया और जंग व जदल कुश्त व ख़ून करने फ़ौज भर्ती करने, तीर कमान, तोप बन्दूक़ और अनवाअ़ व अक़साम के आतिशीं और बिजली के असलहे तैयार करने की ऐसी ख़तरनाक तालीम दी कि तमाम दुनिया शोला-ए-ग़ार बन गयी। "


मुसलमानों द्वारा इस शंका को उठाये जाने का मुख्य कारण क़ुरान में जिहाद के नाम पर गैर मुसलमानों के ऊपर विभिन्न प्रकार के अत्याचार, उनके जायदाद छीनने, उनको गुलाम बनाने, उनका कत्ल करने सम्बन्धी जो आयतें हैं उनको वेदों का सहारा लेकर जायज ठहराने का एक असफल प्रयास हैं।


कारण स्पष्ट हैं वेदों में शत्रु और क़ुरान में शत्रु की परिभाषा में पर्याप्त भेद हैं। वेदों में शत्रु उसे कहा गया हैं जो दुराचारी हैं, पापी हैं, अज्ञानी हैं, दुष्ट हैं। ऐसा व्यक्ति कोई भी हो सकता हैं चाहे वह किसी भी मत मतान्तर का हो जबकि क़ुरान के अनुसार शत्रु वो हैं जो  गैर मुस्लिम हो, जो क़ुरान की शिक्षाओं पर विश्वास नहीं लाता हो और जो मुहम्मद साहिब को अंतिम पैगम्बर नहीं मानता हो। यहाँ पर वेदों की विस्तृत परिभाषा के समक्ष क़ुरान की सोच संकीर्ण नजर आती हैं क्यूंकि वेदों के अनुसार विश्व का कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी मत-मतान्तर का हो अपने श्रेष्ठ कर्मों से धार्मिक बन सकता हैं जबकि क़ुरान के अनुसार वही धार्मिक हैं जो मुस्लमान हैं। स्पष्ट हैं की यहाँ पर भेद एक और कर्म का हैं दूसरी और विश्वास का हैं। यही भेद धर्म और मजहब अथवा मतमतांतर की नींव रखता हैं।


 


अब वैदिक दंड व्यवस्था को समझने का प्रयास करते हैं। सभी जानते हैं की वेदों में आलंकारिक भाषा शैली हैं। विभिन्न प्रकार के विज्ञान को कम से कम शब्दों में वेदों वर्णित किया गया हैं। शत्रु को दंड देने उसे केवल शारीरिक दंड देना नहीं हैं। पाप कर्म का मुख्य कारण अज्ञानता हैं। अज्ञानता का शत्रु सत्य ज्ञान हैं। ज्ञान से मनुष्य का उद्धार करना भी तो शत्रु का नाश कहलाता हैं। कठोपनिषद में यम नचिकेता के संवाद में यमाचार्य को मृत्यु का देवता बतलाया गया हैं। क्या यम नचिकेता के प्राण हरने आये थे? नहीं! अपितु यमाचार्य वहां पर नचिकेता को ज्ञान प्राप्त करवाने आये थे अर्थात उसकी अज्ञानता का नाश करने आये थे। इसलिए अज्ञानता का नाश शत्रुता का नाश हैं।


वैदिक दंड व्यवस्था को लागु करने का भर राजा अर्थात क्षत्रिय एवं ब्राह्मण अर्थात विद्वान पर हैं। क्षत्रिय राजा और ब्राह्मण के कर्तव्यों का वैदिक वांग्मय में विस्तृत रूप सेवर्णन मिलता  हैं।


ऋग्वेद 1/14/9 में राजा के लिए आदेश  प्रजा के भक्षक, समाज विघातक, भ्रष्टाचारी, दुष्ट बुद्धि, दुखदायी, दुश्चरित्र आदि को नाना प्रकार के दंड से दण्डित करे और प्रजा में न रहने दे। 


अथर्ववेद 3/1/1 में सन्देश हैं की सेनापति राष्ट्र के शत्रुओं  का नाश करे।


अथर्ववेद 3/19/3-1 में पुरोहित के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए लिखा हैं की हम पुरोहित राष्ट्र में सदा जागरूक रहे, अपने कर्तव्यों का तत्परता और सतर्कता से पालन करते रहें तथा ज्ञान के द्वारा अज्ञान का तथा क्षात्र के द्वारा बाह्य शत्रुओं का नाश होता रहे।


ऋग्वेद 10/137/1 में शिक्षा हैं की सत्य निष्ठ निष्पाप विद्वान ऐसे नीच, मृत समान व्यक्तियों (पापी और अपराधी) को भी उत्तम धर्मोपदेश देकर उनके अंदर फिर पवित्र दिव्य जीवन का संचार करते हैं।


ऋग्वेद 1/106/3 में शिक्षा हैं की पाप, भ्रष्टाचार और दुराचार से बचाने का कार्य अनुभवी पिता के समान ज्ञान-उपदेश द्वारा पालन करनेवाले गुरुजनों और विद्वान माता-पिता का हैं।


 


वेदों के अनुसार त्यागी, तपस्वी विद्वान साधु महात्माओं के प्रेमपूर्वक समझाने पर भी जो भ्रष्टाचार और दुराचार का परित्याग न करके समाज के लिए विघातक हो उनको राजा द्वारा कठोर दंड देना चाहिए, उन पर दया नहीं दिखलानी चाहिए। थोड़े से लोगों को भी ऐसा कठोर दंड देने से अन्य लोग प्रेरणा प्राप्त कर उन पाप कार्यों में निवृत नहीं होंगे। इसीलिए वेदों में दंड विधान में छोटे दंड से लेकर कारागार, कारागार से लेकर मृत्यु दंड तक का विधान हैं। अस्त्र-शस्त्र का उद्देश्य केवल दूसरे पर आक्रमण करना ही नहीं हैं अपितु शत्रु से प्राण रक्षा भी हैं। इसलिए यह केवल कुतर्क ही हैं की वेदों में अस्त्र-शस्त्र के वर्णन और उनके प्रयोग से विश्व की शांति भंग होती हैं। वेदों के अनुसार विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से ही दंड व्यवस्था का प्रावधान हैं। अगर समाज में चोर, डाकू, भ्रष्टाचारी लोग अपने कुकृत्य में लगे रहेंगे तो समाज में शांति की स्थापना हो ही नहीं सकती। इसलिए उनका उचित समाधान निकालने से ही शांति संभव हैं। वेदों में सामान्य प्रजा जो अपना धर्मानुसार जीवन व्यतीत कर रही हैं को प्रताड़ित करने का नहीं अपितु उसकी रक्षा करने का आदेश हैं इसलिए वेदों पर विश्व शांति को भंग करने का दोष लगन बचकानी बात हैं।


एक और बात की वेदों में पाप कर्म होने से  पूर्व ही उसके दंड के होने का विधान का पहले से होना ईश्वर के सर्वज्ञ होने के सिद्धांत को सिद्ध करता हैं। वैदिक व्यवस्था  "Necessity is the mother of invention" अर्थात आवश्यकता आविष्कार की जननी हैं के विपरीत हैं। जैसे ईश्वर ने मनुष्य के जन्म से पहले प्रकाश के लिए सूर्य, पीने के लिए जल, श्वास लेने के लिए वायु का निर्माण सृष्टि उत्पत्ति के समय किया उसी प्रकार मनुष्य को क्या करना हैं और क्या नहीं करना हैं ऐसा सन्देश वेद रूपी ज्ञान के माध्यम से पहले ही प्राप्त करा दिया। इसलिए वेदों में पाप कर्म करने पर दंड आदि का स्पष्ट विधान हैं। ईश्वर पूर्व की, वर्तमान की और भविष्य की सभी सृष्टियों से परिचित हैं। इसलिए ईश्वर ने मानव जीवन में समय समय पर व्यवहार में आने वाली समस्याओं से से भी परिचित हैं। इसलिए ईश्वर ने उनके समाधान के लिए दिशा निर्देश वेद ज्ञान रूप में सृष्टि के आदि में ही दे दिया। वैदिक दंड व्यवस्था निश्चित रूप से  व्यवाहरिक, सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक हैं।


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