स्वामी श्रद्धानन्द - धर्म और सम्प्रदाय में क्या अंतर है

स्वामी श्रद्धानन्द - धर्म और सम्प्रदाय में क्या अंतर है


             संसार के सम्प्रदाय धर्म की रक्षा के लिए स्थापन किये गए थे , परन्तु आज वे ही सम्प्रदाय मूल धर्म को भूल कर गौण मतभेद के धर्म के वादानुवाद में लगे हुए हैं। जिस प्रकार शरीर को जीवित रखने के लिए अन्न-फल आदि के आहार की आवश्यकता हैं , इसी प्रकार आत्मिक जीवन की संरक्षा के लिए भी धर्म रुपी आत्मिक आहार की आवश्यकता होती हैं। शरीर रक्षा के लिए अन्न और फल मुख्य है, परन्तु उसी अन्न और फल की रक्षा के लिए खेत वा वाटिका के इर्द-गिर्द बाड़ लगानी पड़ती हैं। कैसा मुर्ख वह इंसान हैं, जो अन्न-फल को भुलाकर अन्य किसानों की बाड़ो से ही अपनी बाड़ का मुलाबला कर उनका तिरस्कार करता हैं? इसी प्रकार जीवात्मा का आहार धर्म अर्थात प्रकृति के संसर्ग से छुट कर परमात्मा में स्वतंत्र रूप से विचरण मुख्य हैं। उसकी रक्षा के लिए जो सांप्रदायिक विधियां नियत की गई हैं, वे खेतों की बाड़ों के सदृश ही गौण हैं। कितना मुर्ख वह सांप्रदायिक पुरुष हैं, जो गौण नियमों के विवाद में फंसकर अपने मुख्य धर्म को भूल जाता हैं।


              आचार परमो धर्म अर्थात धर्म की सबसे उत्तम परिभाषा आचार अर्थात आचरण को कहा गया हैं। इसलिए आचरण को पवित्र बनाने पर जोर दीजिये साम्प्रदायिकता पर नहीं।


              (सन्दर्भ- राष्ट्रवादी दयानंद - लेखक सत्यदेव विद्यालंकार से साभार)


             श्री सत्यदेव विद्यालंकार द्वारा लिखित यह पुस्तक पूर्व में "दयानन्द दर्शन"(प्रथम संस्करण 1924 ई.) एवं "राष्ट्रवादी दयानन्द" (प्रथम संस्करण 1941 ई.) नाम से अनेक बार प्रकाशित हो चुकी हैं। 1924 में स्वामी दयानन्द जी की स्मृति में मथुरा में बनाई गई जन्म शताब्दी वर्ष में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। स्वामी दयानन्द का अनन्य शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा इस महान ग्रथ की भूमिका लिखी गई थी। इससे इस पुस्तक की महत्ता में अपूर्व वृद्धि हुई। स्वामी दयानन्द के जीवन के बहुआयामी पक्षों में से एक पक्ष राष्ट्रवाद है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जैसे अन्य पक्षों में हम स्वामी जी को मानवीय गुणों की चरम सीमा को छूता हुआ पाते है। वैसे ही राष्ट्रवाद रूपी महान गुणों की प्रेरणा देते हुए हमें स्वामी जी के चिंतन में उनके क्रांतिकारी पक्ष के दर्शन होते हैं। ध्यान दीजिये स्वामी जी का काल भारत में अंग्रेजी काल था। पराधीन देशवासियों की स्वाधीनता की चाह को 1857 में अंग्रेजों ने जिस निर्दयता से कुचला कि दशकों तक वो अंग्रेजों से छुटकारा पाने के लिए सोचने तक से डरने लगे थे। ऐसे परिवेश में परिव्राजक सन्यासी दयानन्द ईश्वरीय प्रेरणा एवं वेदों के अप्रतिम ज्ञान के आधार पर देशवासियों को अंग्रेजी राज से मुक्ति लेने के लिए प्रेरित करता हैं। उसे न भय है। न प्राणों की चिंता। केवल पीड़ित देशवासियों को मुक्त एवं संसार की श्रेष्ठ आर्यजाति के रूप में प्रतिष्ठित होने की मंगल कामना हैं। इसी मंगल कामना को लेखक ने सुन्दर एवं प्रेरणादायक शब्दों में पिरोकर यह उत्तम ग्रन्थ प्रदान किया हैं। स्वामी दयानन्द ने अपने लेखन में जिस राष्ट्रवादी चिंतन की प्रेरणा भारतियों को दी। उसी चिंतन का परिणाम था कि देश के अधिकांश क्रांतिकारी आर्यसमाज से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में सम्बंधित मिलते हैं। श्यामजी कृष्ण वर्मा, रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह एवं उनका क्रांतिकारी परिवार, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द आदि उनमें से कुछ प्रसिद्द एवं लोकप्रिय नाम हैं। इन सभी क्रांतिकारियों के चिंतन में आपको दयानन्द का राष्टवाद प्रेरणा देता मिलेगा। 


डॉ विवेक आर्य 


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