स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व


 




       


        इतिहास साक्षी है कि जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से संवेदनशील व्यकितयों के जीवन की दिशा बदल जाती है। हम प्रतिदिन रोगी, वृध्द और मृत व्यकितयों को देखते हैं। हमारे ह्र्दय पर इसका कुछ ही प्रभाव होता है, परन्तु ऐसी घटनाओं को देखकर महात्मा बुध्द को वैराग्य हुआ। पेड़ों से फलों को धरती पर गिरते हुए किसने नहीं देखा, परन्तु न्यूटन ही ऐसा व्यकित था जिसने इसके पीछे छिपे कारण को समझा और 'गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार किया और प्रतिदिन कितने शिव भक्तों ने शिव मनिदर में शिव की पिंडी पर मिष्ठान्न का भोग लगाते मूषकों को देखा होगा, परन्तु केवल )षिवर दयानन्द के ही मन में यह जिज्ञासाजागृत हुर्इ कि क्या यही वह सर्वशकितमान, सच्चे महादेव हैं। जो अपने भोजन की रक्षा भी नहीं कर सकते हैं। इस घटना से प्रेरणा लेकर किशेार मूलशंकर सच्चे शिव की खोज के लिए अपनी प्यारी माँ और पिता को छोड़कर घर से निकल पड़े। मूलशंकर सच्चे शिव की खोज में नर्मदा के घने वनों, योगियों-मुनियों के आश्रमों, पर्वत, निर्झर, गिरिकन्दराओं में भटकता रहा। अलखनन्दा के हिमखण्डों से क्षतविक्षत होकर वह मरणासन्न तक हो गया परन्तु उसने अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं छोड़ा। चौबीस वर्ष की आयु में पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर दयानन्द बन गए। अन्तत: इन्ही प्रेरणा से वे प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द के पास पहुँचे और तीन वर्ष तक श्री चरणों में ज्ञानागिन में तपकर गुरु की प्रेरणा से मानवमात्र के कल्याण एवं वेदों के उ(ार के लिए तथा अज्ञान-अन्धकार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए कार्यक्षेत्र में उतर पड़े। उस समय भारत में मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया था। और अंग्रेजों का आधिपत्य सम्पूर्ण भारत पर हो चला था। स्वामी दयानन्द इस विदेशी प्रभुत्व से अत्यधिक क्षुब्ध थे। जिसकी अभिव्यकित सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में हुर्इ। उन्होंने लिखा कि देश के लोग निषिक्रयता और प्रमाद से ग्रस्त हैं। लोगों में परस्पर विरेाध व्याप्त है और विदेशियों ने हमारे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है इसलिए देशवासियों को अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ रहे हैं। यह ऐसा समय था जब देश मे ंसर्वत्र अज्ञान का अन्èाकार व्याप्त था।


           जनमानस अन्धविश्वासों और कुरीतियों से ग्रस्त था। अंग्रेजी शासकों ने भारतीय सभ्यता और संस्Ïति को समाप्त करने के लिए मैकाले की शिक्षानीति को लागू कर भारतवासियों में हीन भावना का संचार कर दिया था। निराश देशवासी पशिचमी राष्ट्रों की भौतिक समृध्दि की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपने गौरवशाली, अतीत, धर्म, और जीवन के नैतिक मूल्यों से विमुख हो रहे थे। इसलिए उन्हें पाश्चात्य जीवन प्रणाली के अनुकरण में ही अपना हित मालूम होता था। ऐसी विकट परिसिथतियों में महर्षि ने आर्य समाज की स्थापना करके जर्जर निष्प्राण हिन्दू समाज में प्राण फूंकने का उसकी धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्Ïतिक चेतना को उदबु( करने का प्रयास किया। नारी जाति की दुर्दशा को देखकर उनमें शिक्षा का प्रसार करने तथा अछूतों को हिन्दू समाज की मुख्यधारा में लाने और इस्लाम एवं र्इसाइयत में हिन्दुओं के धर्मान्तरण को रोकने का महत्वपूर्ण कार्य किया। )षि के जीवन का मुख्य उददेश्य वेदों का उत्तर और उसका प्रचार-प्रसार करना था उनका कहना था कि वेद ज्ञान भारत तक ही सीमित न रहे अपितु सम्पूर्ण विश्व में उसका प्रचार हो। उनका कहना था कि वेदों का ज्ञान किसी एक धर्म, जाति, सम्प्रदाय या देश के लिए नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए है। इसीलिए उन्होंने ”Ïण्वन्तो विश्वमार्यम अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने का सन्देश दिया है हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। आओं! हम सब मिलकर उनके द्वारा दर्शाये मार्ग का अनुगमन कर स्वामी जी की कमी को पूर्ण करने का प्रयास करें।





 


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