शौर्य का हिमालय



         आधुनिक युग में विश्व के स्वाधीनता सेनानियों में स्वामी श्रद्धानन्द  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है । वह राजनीतिज्ञ नहीं थे राजनीति को मोड़ देने वाले विचारक थे । महर्षि दयानन्द जी महाराज ने ऋग्वेद भाष्य में लिखा है – कि ब्रहम्चारी, यति, वनस्थ, सन्यासी के लिए राज व्यवहार की प्रवृति  होनी योग्य नहीं । इस आर्ष नीति और मर्यादा का पालन करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द राजनीति के दलदल में फंसना अनुचित मानते थे । जब जब देश को उनके मार्गदर्शन की आश्यकता हुयी, वह संकट सागर की अजगर सम लहरों को चीरते हुए आ गए ।


         वह अतुल्य पराक्रमी थे । शौर्य के हिमालय थे । बलिदान की मूर्ती थे । विदेशी सत्ता को समाप्त करने के लिए भारत संघर्ष कर रहा था ।  स्वाधीनता संग्राम का अभी शैशव काल था।  इस शैशव काल में बड़े बड़े नेता भी खुलकर स्वराज्य की चर्चा करने से सकुचाते थे । अंग्रेजी शाषन के अत्याचारों का,  दमन चक्र का स्पष्ट शब्दों में विरोध करना किसी विरले प्रतापी का ही काम था । कांग्रेस के मंच से अभी अंग्रेज जाती की न्यायप्रियता में विश्वास प्रगट किया जाता था । राजनीति का स्वर बड़ा धीमा था ।


         २० वी शताब्दी की  प्रथम दशाब्दी में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का स्वर ऊंचा करने वाले राष्ट्र पुरुषों में श्रद्धानन्द जी का नाम बड़े सम्मान से लिया जावेगा । १९०७ ईस्वी में लाला लाजपत राय को निष्कासित कर दिया गया देश निकाला पाने वाले इस प्रथम भारतीय का खुल्लम खुल्ला पक्ष लेने वाले और उन्हें निर्दोष सिद्ध करने वाले श्रध्दानन्द के साहस की किस शब्दों में चर्चा की जावे ! तब स्तिथी यह थी कि लाल लाजपतराय के निकटतम आर्य समाजी मित्र मौन साध गए। लाला जी के पक्ष में दो शब्द लिखकर व बोलकर अंग्रेजों को दुत्कारने का साहस न बटोर सके । जिस आर्य गज़ट के लाल लाजपतराय संपादक रहे उस आर्य गज़ट में उनके लिए एक लेख न लिखा गया । तब श्रद्धानन्द का सिंहनाद आर्यों के हृदयों को गर्मा रहा था | आर्य गज़ट के एक भूतपूर्व संपादक महाशय शिवव्रतलाल वर्मन M.A. ( राधास्वामी सम्प्रदाय के गुरुदाता दयाल जी ) ने तब लाला जी के पक्ष में 'आर्य मुसाफिर' मासिक में एक लेख दिया था । यह पत्रिका स्वामी श्रद्धानन्द जी के संरक्षण मार्गदर्शन में प्रकशित होती थी । इसमें  श्री शिवव्रतलाल जी ने झंजोड़ कर लाल जी के साथियों से पूछा था कि वो चुप्पी क्यूँ साधे हुए हैं ?


       लाल लाजपत राय स्वदेश लौटे । सूरत कांग्रेस हुयी । कांग्रेस में भयंकर फूट पड़ गयी तब श्रीयुत गोखले बोले १० जन १९०८ ईस्वी में स्वामी जी को पत्र लिखकर सूरत न पहुँचने पर उपालम्भ दिया और राष्ट्रीय आंदोलन पर बुरी फुट की बिजली से देश को बचाने के लिए उनका मार्गदर्शन माँगा।


       स्वामी जी से मिलने की इच्छा प्रगट की । १९०७ ईस्वी में अमरावती से निकलने वाले उग्रवादी पत्र “कर्त्तव्य” पर राजद्रोह का अभियोग चला तब उसने क्षमा मांग ली | स्वामी जी ने इस पर लिखा “ऐसे गिरे हुए लफंगे यदी स्वराज्य प्राप्त कर भी लें तो विचारणीय यह है कि वह स्वराज्य कहीं रसातल में ले जाने वाला तो सिद्ध न होगा ।


      मि नॉर्टन एक बार मद्रास में कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन के स्वागत अध्यक्ष बने थे आपने बंगाल में क्रांतिकारियों के विरुद्ध सरकारी वकील बनना स्वीकार कर लिया । श्रद्धानन्द का मन्यु तब देखने योग्य था । आपने मि. नॉर्टन के इस कुकृत्य की कड़ी निंदा की | गोस्वामी नरेन्द्रनाथ क्रांतिकारियों से द्रोह करके सरकारी साक्षी बन गया । तब तेजस्वी श्रद्धानन्द ने उसे महाअधम विश्वासघाती लिखा इस साहस को किस तुला पर तौले । अभी अभियोग न्यायलय में चल रहा है वीर योद्धा फांसियों पर चढ़ाये जा रहे हैं | और मुंशीराम वकील होते हुए भी न्यायलय का अपमान कर रहा है । क्रांतिकारियों का पक्ष लेकर विपदाओं को आमंत्रित कर रहा है ।


       श्रद्धानन्द तो बलाओं को बुला बुला कर उनसे जूझने में आनंद लेता था । गुरु के बाद का मोर्चा लगा | गुरुद्वारों की पवित्रता के लिए, रक्षा के लिए सिख भाई विदेशी शासन से बढ़ बढ़ कर भिड़ रहे थे ।  स्वामी जी की सिंह गर्जना अकाल तख़्त अमृतसर से अंग्रेजों ने सुनी तो घबराया हड़बड़ाया सिखों के सर्वोच्च धर्मस्थान से बोलने वाले वो ही एक मेव राष्ट्रीय नेता थे । इस भाषण करने के अपराध में स्वामी जी सिखों के जत्थेदार बनकर जेल गए |


       सहस्त्र मील दूर केरल में छूत छात के विरुद्ध मोर्चा लगाने के लिए वृद्धावस्था में जा पहुंचे केरल में लोकमान्य नेता श्री मन्नम ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि “स्वामी श्रद्धानन्द का साहस, जन सेवा के अरमान देखने योग्य थे” | इस सत्याग्रह ने राष्ट्र को एक नवीन चेतना दी |


       १९२० ईस्वी में बर्मा में स्वराज्य के प्रचार के लिए गये । वहाँ स्वामी ने स्वत्रन्त्रतानन्द जी के साथ भी काम किया । मांडले की ईदगाह से २५००० की उपस्तिथि में स्वराज्य का सन्देश दिया ।  ईदगाह से विराट सभा को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने वाले येही २ नेता हुए हैं।


       ३० मार्च १९१९ ईस्वी को देहली के चांदनी चौक में आपने संगीनों के सम्मुख छाती तानकर भारतीय शूरता की धाक जमा दी । यह आपका ही साहस व अद्भुत आत्मोसर्ग था कि आपने ललकार कर कहा था कि निर्दोष जनता पर गोली चलने से पूर्व मेरी छाती को संगीनों से छेदो ।


      तब एक कवी ने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था :


“नंगी संगीने मदान्ध सिपाही मेरी यह प्रजा अब कैसे निभेगी।


आत्मा कौन की मोह विच्छोह ताज सहनागत यूँ शरण कहेंगी ।”


जाना तह कौन की भारत के हित आपकी छाती यूँ ढाल बनेगी।


श्रद्धानन्द सरीके सपूत बता जननी फिर कब जानेगी ||


      कोई कितना भी पक्षपात क्यूँ न करें इस तथ्य को कोई इतिहासकार नहीं झुठला सकता कि स्वामी श्रद्धानंद  का स्थान हमारे राष्ट्र निर्माताओं की अग्रिम पंक्ति में है । बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस महापुरुष ने विविध क्षेत्रों में बुराइयों से लड़ाई लड़ते हुए दुःख कष्ट झेले और अपना सर्वस्य समर्पण करके राष्ट्र को नव जीवन दिया। ऐसे बलिदानी महापुरुष को, मानवता के मान को हमारा शत शत प्रणाम |




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