सेवा धर्म

सेवा धर्म  



      संसार में सबसे ऊंचा-धर्म 'सेवा' है । तन तो शासन से खरीदा जा सकता है-बांधा जा सकता है, अपने वश में किया जा सकता है। और मस्तिष्क-बुद्धि धन से अपने वश में और अधीनता में किया जा सकता है। परन्तु मन या हृदय न शासन से वश में आ सकता है न धन से वश में आता है। यह केवल सेवा से ही खरीदा-बांधा और वश में किया जा सकता है-या अपना बनाया जा सकता है । यह सेवा-भाव बड़े पुण्य कर्मवालों को प्राप्त होता है। बजर्गों की सेवा करोतो आशीर्बाद पायो, निर्धनों-निर्बलों की सेवा करो-तो यश और नाम पाओ। सेवा जहां ऊंचा धर्म है-वहां सबसे कठिन-काम भी है। कठिनाई को पार करने के के लिए-तप और त्याग की आवश्यकता है । तप तो सत्यज्ञान से और त्याग प्रेम से सम्बन्धित है। प्रभो ! अपने अपार कोष से मुझ अपने आश्रित को भी यह दात (सेवा भाव) प्रदान कर।


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