सत्यार्थ सौरभ


कड़ी धूप और शीतकाल में


          करता मेहनत है। किसान


स्वयं मुसीबत सहकरकेभी,


     उपजाता हे अन्न किसान।


दयानन्दसच ही लिखते हैं,


    राजा केसमा है किसान


   ll ओ३म् ll 


 यः ककुभो निधारयः पृथिव्यामधि दर्शतः।


स माता पूयं पदं तद्वरुणस्य सप्त्यं


स हि गोपाइवेर्यो नभन्तामन्यके समे l l 


        अर्थ-(यः) जिस (दर्शतः) दर्शन करने योग्य ने (पृथिव्याम् ) पृथिवी पर (ककुभः) दिशाओं को (निधारयः) बनाकर रक्खा है, (सः) वही (पूर्व्यम् ) पूर्णतायुक्त (पदम् ) मोक्षावस्था के आनन्दमय पद का (माता) निर्माण करनेवाला है। (वरुणस्य) वरुण भगवान् का (तत्) वह मोक्षपद (सप्त्यम् ) सबके प्राप्त करने योग्य है, (सः) वह (इर्यः) स्वामी (हि) निश्चय से (गोपा) ग्वाले की (इव) भाँति [हम पशुओं का रक्षक है।] (समे ) उसके बराबर (अन्यके) अन्य कोई (न) नहीं (भन्ताम् ) हो सकता।


       उस दर्शनीय प्रभु की रचना-कुशलता देखो! उसने किस प्रकार इस धरती पर दिशाओं का निर्माण कर रक्खा है। उसने पहले तो धरती का निर्माण किया, फिर धरती पर के प्रदेश और आकाश की दिशाओं में बाँट दिया. जिससे हमें धरती पर रहते हए भाँति-भाँति के अपने व्यवहार करने में सुगमता होती रहे। यदि प्रभु दिशाओं का विभाग और उनका ज्ञान हमें न कराते तो हमें आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे, इधर-उधर आदि का भान न हो सकता और इस भान के बिना हमारा सांसारिक व्यवहार सर्वथा ही न चल सकता। प्रभु ने पृथिवी, सूर्य, ध्रुवतारा तथा पृथिवी पर के वृक्ष-पर्वतादि की रचना इस प्रकार की है जिससे दिशाओं का विभाग और उनकी प्रतीति हमें सुगमता से हो


       जिससे दिशाओं का विभाग और उनकी प्रतीति हमें सुगमता से हो जाती है। इन पृथिवी-सूर्यादि की रचना आदि वैसी न होती जैसीकि वह है तो हमें यह दिशाज्ञान कभी न हो सकता। इस प्रकार प्रभु ने पृथिवी पर यह जो दिशाओं की रचना और स्थिति कर रक्खी है उससे उनका भारी रचना-कौशल सूचित होता है।


       हमारे सांसारिक व्यवहार की सिद्धि के लिए दिशा आदि की जो रचना प्रभु ने की है केवल इतने पर ही उनकी कृपावर्षा समाप्त नहीं हो जाती। भगवान् ने हमें परमोत्कृष्ट सुख देने के लिए अपने पूर्ण पद की रचना भी कर रक्खी है। यह पूर्ण पद मोक्ष की अवस्था का दूसरा नाम है। पुरुष जब अपने आत्मा को पवित्र बनाता-बनाता पूर्णता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है तब उसे यह पद प्राप्त होता है, इस लिए मन्त्र में इसे पूळ, अर्थात् पूर्णता से युक्त पद कहा है। प्रभु ने अपने वेद-ज्ञान के द्वारा वे नियम प्रकट कर दिये हैं जिनके अनुसार चलने से हमें यह परम आनन्ददायक मोक्षनामक पूर्ण पद प्राप्त हो सकता है। मोक्षपद की प्राप्ति का उपदेश देकर प्रभु ने हमारे लिए इस पूर्ण पद का निर्माण कर दिया है। वरुण भगवान् का वरण करने योग्य, पहचानने योग्य उस दर्शनीय प्रभु का- यह मोक्षपद हम सबके लिए सप्त्य है, प्राप्त करने योग्य है। वरणीय प्रभु का साक्षात्कार करके मोक्ष पद में पहुँचने से ही, क्योंकि हमें सबसे उत्कृष्ट और पूर्ण आनन्द प्राप्त हो सकता है, इसलिए यह पद सचमुच ही हम सबके प्राप्त करने योग्य है।


       भगवान् इस प्रकार भाँति-भाँति से हमारे सुख मंगल का संविधान करके हमारी रक्षा कर रहे हैं। वे स्वामी हमारी इस प्रकार रक्षा कर रहे हैं, जिस प्रकार कोई गोपाल अपने पशुओं की रक्षा करता है। गोपाल जैसे अपने पशुओं की रक्षा के लिए उनके दाने-पानी आदि सबका प्रबन्ध करता है, उसी तरह प्रभु ने भी हमारे लिए आवश्यक दाने-पानी आदि सबका पूर्ण प्रबन्ध कर रक्खा है। गोपाल के पशु आदि उससे परे नहीं भाग जाएँगे, उसी की आज्ञा में रहेंगे, तो उन्हें कोई कष्ट नहीं हो सकता। इसी प्रकार यदि हम भी प्रभु से परे नहीं भाग जाएँगे और उसी की आज्ञा में रहकर चलेंगे तो हमें भी कोई अभाव, कोई कष्ट, दुःख नहीं दे सकेगा और इस प्रकार के प्रभु-भक्त उपासकों की तुलना कोई अनुपासक नहीं कर सकेगा। नहीं दे सकेगा और इस प्रकार के प्रभु-भक्त उपासकों की तुलना कोई अनुपासक नहीं कर सकेगा।


हे मेरे आत्मन्! तू भी उस परम रक्षक की शरण में जाकर अपने-आपको अतुलनीय मंगल का अधिकारी बना ले।


आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति (साभार- वरुण की नौका)


     माइंड लीचिंग:-


       आपने एक नाम खूब सुना होगा विशेष रूप से इन दिनों। वह है 'मोब लिंचिंग' अर्थात् भीड़ द्वारा किसी या किन्हीं को मार डालना। जिसकी पिटाई हुयी, मारा गया वह किसी अपराध का अपराधी भी हो सकता है अथवा निर्दोष भी। स्थिति चाहे जो हो सभ्य समाज में मोब लिंचिंग को समर्थन नहीं दिया जा सकता, अन्यथा वह फिर जंगल राज हो जाएगा। परन्तु आजकल इन घटनाओं को सलेक्टिव रूप से प्रचारित किया जाता है। समाज में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी, नेता और पत्रकार, इतिहासकारों का एक वर्ग जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से ही देश के प्रमुख संस्थानों में जिम्मेदार पदों पर आसीन है, जिन्हें जो कुछ भी भारतीय है उसमें से दुर्गन्ध आती है, जब भी कोई ऐसा अवसर आता है जिसमें भारतीय सभ्यता वा संस्कृति को अपमानित किया जा सके तो यह वर्ग जो उत्साह से भर जाता है और भोंपू बजाने लगता है परन्तु ऐसी ही घटना ऐसी घटित हो जाय जिससे अन्य वर्गों का अवांछित सत्य उघाटित होता हो तो ये शान्त रहते हैंइनकी दष्टि में जैसे अपराध पहले तो कारित हुआ हो और अब नहीं। जबकि अपराध तो अपराध है किसी के द्वारा किया जाय। अपराधी हर हालत में दण्ड विधान से बचना नहीं चाहिए। पर सेलेक्टिव सोच वाले इन बुद्धिजीवियों के निकट ऐसा नहीं है। उदाहरण के तौर पर बलात्कार अत्यन्त णित अपराध है। अब यह अपराध चाहे जिस नारी के साथ कारित हुआ हो समान रूप से निंदनीय और दंडनीय है। और राष्ट्र की न्याय व्यवस्था में भी जाति, पंथ, कुल आदि के आधार पर कोई विभेद नहीं किया गया है। पर इन बुद्धिजीवियों की बात अलग है। जैसे ही अपराध पीड़िता किसी दलित वर्ग की अथवा अल्पसंख्यक वर्ग की निकल आती है तो इनका रुदन दर्शनीय होता है।


       ऐसी मानसिकता वस्तुतः ब्रिटिश शासकों की नीति का उसके मानस पुत्रों द्वारा विस्तार है। इसे जो जाति, जो कौम हलके में लेगी, इसकी उपेक्षा करेगी, देर-सवेर उसका पतन अवश्यम्भावी है। यही नीति माइंड लिंचिंग है जो मोब लिंचिंग से कई गुना ज्यादा खतरनाक है। मोब लिंचिंग तो एक दो व्यक्तियों के भौतिक शरीर को नष्ट करती है पर माइंड लिंचिंग पूरी आगामी पीढ़ी को उस रास्ते पर धकेलकर नष्ट प्रायः कर देती है जो उसके पूर्वजों के आदर्शों के विपरीत होती है। इससे वह पीढ़ी अपनी अपने अतीत से कट जाती है और जब उसके मस्तिष्क में यह बिठा दिया जाता है कि उसके पूर्वज अन्यायी थे, आततायी थे, साम्राज्यवादी थे तो वह स्वयं ही ऐसे भूत से पीछा छुड़ाने को तत्पर हो जाती है, अपने भूत पर गर्व करने की तो कथा ही क्या कहनी l 


कवि के इस कथन पर विचार करने की आवश्यकता है -


'जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है,


वह नर नहीं नरपश निरा है और मृतक सामान है।'


       जब आपकी पितृ-परम्परा दोषपूर्ण अथवा अज्ञानता से ओतप्रोत हो तो बदलाव सकारात्मक भी हो सकता है परन्तु भारत के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है। ज्ञान-विज्ञान के जिन उच्च मापदण्डों को हमारी पितृ-परम्परा ने स्पर्श किया था वह इतनी उन्नत और नैतिकता से ओतप्रोत थी कि यही ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या भारत पर अधिकार करने के पश्चात् बन गयी। 


       वस्तुतः भारत से पूर्व अंग्रेजों ने जहाँ भी साम्राज्य का विस्तार किया वहाँ उन्हें यह दावा करने और एहसान जताने का अवसर मिल गया कि आपकी सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान अति शैशव अवस्था में हैं और हम अपने शासन काल में आपकी उन्नति में योगदान देने का पवित्र तथा हितकारी कार्य कर रहे हैं अतः अंग्रेजी शासन आपके लिए वरदान ही है।


       परन्तु भारत में स्थिति बिलकुल उलट मिली। यहाँ अंग्रेजों को ऐसी सभ्यता, संस्कृति मिली जिससे वे स्वयं बहुत कुछ सीख सकते थे। ज्ञान-विज्ञान यहाँ उच्चतम शिखर पर था इस तथ्य के ठोस प्रमाण उनके समक्ष थे। वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् तथा दर्शन ग्रन्थ भारत के ज्ञान-गौरव की गाथा गा रहे थे। तक्षशिला व नालन्दा के विश्वविद्यालय यद्यपि आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट कर दिए गए थे पर ये बात सर्वज्ञात थी कि शिक्षा के क्षेत्र में उनका सर्वोच्च स्थान था और उनके पुस्तकालय इतने विशाल थे कि जब उन्हें जलाया गया तो महीनों तक धुंआ उठाता रहा था। भारत के अंतःसाक्ष्य की बात छोड़िये विदेशी आक्रान्ताओं के साथ मेगस्थनीज, हेनसांग, फाह्यान आदि जो इतिहासकार यहाँ आये उन्होंने उक्त तथ्यों को न सिर्फ प्रमाणित किया बल्कि भारतीयों की सज्जनता तथा उनके नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इस सब के होते अंग्रेज यह दावा नहीं कर सकते थे कि वे भारतीयों को शिक्षित करने का पवित्र कार्य कर रहे हैं। संस्कृत जैसी सक्षम और वैज्ञानिक भाषा की उपस्थिति उनके दावे के मार्ग में बाधक बन रही थी।


       एक और बड़ी समस्या उनके समक्ष थी और वह थी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति की प्राचीनता। इससे ईसाइयत के मूलभूत सिद्धान्त चकनाचूर हो जाते थे। बायबिल में मनुष्य की उत्पत्ति आदम और हव्वा से बतायी गयी है और उस प्रथम पीढ़ी से ईसामसीह तक ७१ पीढ़ियाँ बतायीं गयीं हैं। जिनका काल ज्यादा से ज्यादा ६००० वर्ष होता है। अर्थात् बायबिल के अनुसार मनुष्य की उत्पत्ति को ६००० वर्ष ही हुए हैं। परन्तु भारत में जो कालगणना प्राप्त होती है वह ६००० वर्ष से बहुत पीछे ले जाती हैं और अगर अंग्रेज ये स्वीकार कर लेते तो बायबिल का कथन गलत होने से बायबिल ईश्वरीय नहीं हो सकत सबने गौरांग प्रभुओं को चकरा दिया।


       उनके पक्ष में एक बात ही अच्छी थी कि महाभारत युद्ध के पश्चात् और लगभग ७०० वर्ष की मुगलों की गुलामी के दौरान भारत की उन्नत संस्कृति के प्रत्यक्ष प्रमाण विलुप्त हो गए थे। भारतीय शिक्षा पद्धति विनष्ट प्रायः हो गयी थी। वेद-ज्ञान-विज्ञान के शोध और उससे अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि की बजाय वे केवल थोथे कर्मकाण्ड तक सीमित हो गए थे। नाना प्रकार की कुरीतियों ने जनमानस को जकड़ लिया। आप अंदाजा लगाइये जहाँ समुद्र पार जाने को पाप मान लिया जाय, ऐसी मूर्खता को देख अंग्रेजों की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। विशेष रूप से तब, जब कोई यह बताने वाला नहीं था कि यह सब रूढ़ियाँ, अंधविश्वास, कुरीतियाँ भारत का अभिन्न अंग नहीं रहीं हैं। ये भारतीय इतिहास की पुरातनता के हिसाब से अर्वाचीन ही थीं


       अंग्रेजों को यह भी अनुकूल वातावरण मिला कि तत्कालीन जो भी महापुरुष थे जो इन कुरीतियों के विरुद्ध प्राणप्रण से लड़ रहे थे वे भी यह नहीं समझ पाए कि ये कुरीतियाँ अर्वाचीन हैं इनका उत्स वेदादि शास्त्र कदापि नहीं हैं। अतः वे अंग्रेजी शिक्षा व सभ्यता के कायल हो गए। उदाहरण के तौर पर राजा राममोहन राय जो सती प्रथा को बन्द कराने के लिए जूझ रहे थे अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे। उनका मानना था कि कुरीतियों के खात्मे के लिए भारतीयों के लिए अंग्रेजी शिक्षा वरदान सिद्ध होगी। और यह भी था कि उनके समय के वरदान सिद्ध होगी। और यह भी था कि उनके समय के आते-आते भारतीय विद्यालयों का अस्तित्व भी ना के बराबर था। यह सच है कि प्रारम्भ में राममोहन वैदिक विचारधारा के पक्षधर थे, पर धीरे-धीरे उनकी मानसिकता में आमलचल परिवर्तन हआ। वे स्वयं लिखते हैं- 'मझे विश्वा (अंग्रेजों का) राज, विदेशी होते हुए भी भारतवासियों की उन्नति के लिए निश्चित रूप से उपयोगी है।' यह भी जान लेना चाहिए कि राममोहन इस हद तक चले गए कि उन्होंने कलकत्ता में न सिर्फ एक इंग्लिश स्कूल की स्थापना स्वयं की, वरन् १८२३ में जब कलकत्ता में एक संस्कृत कॉलेज स्थापित करने की योजना बन रही थी तो राममोहन ने उसे अनावश्यक तथा भारतीयों की उन्नति में बाधक तक बता दिया। अतः जब लार्ड मैकाले ने उक्त परिस्थितियों में आंग्ल श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए जो कुटिल प्लान बनाया, उसमें भारतीय नेताओं, महामनाओं की उक्त मानसिकता उर्वरा सिद्ध हुयी।


       यहाँ हमें महर्षि दयानन्द सरस्वती का जिक्र अवश्य करना ही होगा जो एकमात्र ऐसे महापुरुष थे जिनको असंदिग्ध रूप से प्राचीन भारत की श्रेष्ठता पर विश्वास था। वे ऐसे अद् [ महापुरुष थे जिनकी क्रान्तिकारी प्रगतिशीलता में पाश्चात्य का कोई अवदान नहीं है। भारत की अपनी शिक्षा पद्धति, चिन्तन पद्धति, विचार पद्धति , विश्लेषण पद्धति ही उनके विचारों का आधार रही है फिर भी उनकी उद्घोषणाएँ अपने समय से काफी आगे थीं यह तथ्य आधुनिकता के पैरोकारों और पाश्चात्य ज्ञान की श्रेष्ठता के सम्मोहन में जकड़े लोगों के लिए आश्चर्यजनक और अबूझ पहेली रही है। दयानन्द का मूल्यांकन करते समय अनेक विद्वानों ने इस तथ्य को रेखांकित किया है। नीचे कुछ विद्वानों को उद्धृत किया जा रहा है। सेंट स्टीफन कॉलेज में अध्यापक और ईसाई धर्मप्रचारक सी.ऍफ. एंड्रयूज ने लिखा है- 'ऋषि दयानन्द ने अपनी दिव्यशक्ति के बल से प्राचीन भारत के महत्व को स्वयं अनुभव किया था और अपने समस्त कार्यों की नींव उसके आधार पर रखी थी।


      आगे लिखते हैं- 'अपनी दिव्य प्रतिभा के द्वारा स्वामी जी ने प्राचीन ज्ञान को सर्व साधारण के लिए उपलब्ध कराया और इस बहुमूल्य विरासत से सब लोगों में नवजीवन का संचार किया।' स्वामी दयानन्द ने अपने युवाकाल के बाद के समय में वैदिक संस्कृति के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि उसी संस्कृति के बल पर भारत अपनी आध्यात्मिक उन्नति के सर्वोच्च सोपान पर चढ़ा था।


       'स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि हम आज जिस युग में रह रहे हैं उससे वैदिक काल कहीं श्रेष्ठ था। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक ईमानदारी, वीरतापूर्ण चरित्र, सादगी युक्त जीवन तथा उच्च आदर्शों से वैदिक युग को स्वयं में मूर्तिमान किया। उनसे पूर्व यह कार्य किसी अन्य ने इस रूप में नहीं किया था।' रोमिला थापर तथा आर.एस.शर्मा के गुरु प्रख्यात् इतिहासकार ए. एल. बाशम ने लिखा- 'स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस बात पर बल दिया और इसे एक सीमा तक सत्य कहा जायेगा कि प्राचीन भारत ने आध्यात्मिक और नैतिक क्षेत्र में विगत में जितना विकास कर लिया था, वहाँ तक आज का परिचय नहीं पहुंच पाया है। दयानन्द के परवर्तीकाल में कुछ क्षेत्रों में तो यहाँ तक विश्वास किया जाता था कि प्राचीन भारत में वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान जिस उन्नत दशा में था, वहाँ तक उन्नीसवीं सदी का यूरोप भी नहीं पहुँच सका था


       विलियम नार्मन ब्राउन एक सुविख्यात इन्डोलाजिस्ट और संस्कृतज्ञ के रूप में जाने जाते हैं वे पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर रहे तथा १६२६ में उन्होंने 'अमेरिकन ओरिएंटल सोसाइटी' की स्थापना की थी। वे लिखते हैं- 'उनकी (दयानन्द की) धारणा थी कि वैदिक युग के गुरु और आचार्य आधुनिक विज्ञान, तकनीक तथा अद्यतन किए गए आविष्कारों तथा खोजों से परिचित थे।


      इसी प्रकार अमेरिका की Syracuse University के दक्षिण एशिया प्रोग्राम के निदेशक राबर्ट इरविन क्रेन लिखते हैं- 'स्वामी जी की मान्यता थी कि वेद में समस्त विद्याएँ विद्यमान हैं, यहाँ तक कि आधुनिक विज्ञान के मौलिक नियम भी वेदमंत्रों में पाये जाते हैं।


      'पश्चिम से आयी चुनौती को उनका (दयानन्द) उत्तर यह था कि पाश्चात्य प्रभाव को हमें अस्वीकार कर देना चाहिये


       दयानन्द हिन्दुओं को बराबर अपने प्राचीन धर्म और विश्वास की ओर लौटने की बात करते थे। दयानन्द यह मानते थे कि आधुनिक भारत के अधोगति प्राप्त बच्चों के हृदयों को वह गौरवशाली वैदिक युग के उनके पूर्वजों के तुल्य बना सकते हैं।


       एम.डी. 'दयानन्द के लिए यह आवश्यक था कि हिन्दू धर्म के वर्तमान पतन के कारणों की तलाश की जाये। वैदिक आर्यों की वह उच्च जाति इतने भयंकर अज्ञान तथा पराभव का क्यों शिकार हुई? वे आर्य जो सृष्टि के पुरातनतम लोग थे और जिन्होंने एक उच्च सभ्यता का निर्माण किया था, वैदिक सच्चाईयों के उस स्वर्ण युग को किस प्रलय के तुल्य घटना ने नष्ट कर दिया? दयानन्द इसका एक स्पष्ट उत्तर देते हैं- यह सब महाभारत के कारण हुआ। - इस प्रकार उपरोक्त सभी विद्वानों ने इस बात की संपुष्टि की है कि स्वामी दयानन्द अपने अध्ययन के आधार पर निश्चित मत थे कि प्राचीन भारत ज्ञान-विज्ञान, वैभव की दृष्टि से ही नहीं अपितु नैतिक मूल्यों तथा मानवीय व्यवहार में भी शिखर पर था


       यहाँ लार्ड मैकाले की सोच का दिग्दर्शन अत्यन्त आवश्यक है। वे संस्कृत ग्रन्थों की प्रत्येक बात पाश्चात्य ज्ञान के समक्ष बौना है, यह स्थापित करना चाहते थे। 'शिक्षा पद्धति बदल दो, इतिहास बदल दो, ग्रंथों को सारहीन सिद्ध कर दो, उनके रहस्यों को अप्रकट रहने दो, उन्नत भाषा को भी अलोकप्रिय बना दो' आदि को मैकाले ने अपने प्लान का महत्वपूर्ण अंग बनाया। मैकाले के शिष्य मैक्समूलर ने उसकी योजना को भली-भाँति अंजाम दिया। परन्तु यह सत्य है कि अगर भारत के तत्कालीन महापुरुष इसमें सहायक न होते तो मैकाले व मैक्समूलर के इन प्रयासों पर भारतीयों को कभी सन्देह भी हो सकता था, पर जब उनके ही नेता अंग्रेजों के स्वर में स्वर मिला रहे थे तो फिर सन्देह की बात ही क्या थी। यह थी 'माइन्ड लिंचिंग' की विशेषता। मैकाले की योजना समझने के लिए उसके द्वारा प्रणीत निम्न पैराग्राफ सहायक होगा l 


       'हमें इस देश में एक ऐसा वर्ग पैदा करने के लिए पूरा प्रयत्न करना चाहिए जो हमारे और हमारे द्वारा शासित करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषियों का काम कर सके। यह वर्ग हाड़, मांस और रंग से भले ही भारतीय दिखे, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोलचाल और दिलो-दिमाग से अंग्रेज बन जाय।' क्या आज सर्वत्र स्वदेशी के प्रति हीन भावना लिए ऐसी जमात हमें तथाकथित उच्च शिक्षितों में नहीं मिलती?- मिलती है. सर्वत्र ही। स्वयं मैकाले अपनी योजना की सफलता का वर्णन करते हुए लिखता है- 'जो भी हिन्दू अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर लेता है वह अपने धर्म में सच्ची शिक्षा और विश्वास खो बैठता है। कुछ केवल दिखावे के लिए उसे मानते रहते हैं। अधिकतर एकेश्वरवादी बन जाते हैं या ईसाई बन जाते हैं।मैकाले की इस पद्धति पर डॉ. राधाकृष्णन टिप्पणी करते हुए लिखते हैं- The policy inaugurated by Macaulay is so careful as not to make us forget the force and vitality of Western culture- it has not helped us to love our own culture. In some cases Macaulay's wish is fulfilled and we have educated Indians who are 'more English then the English themselves' to quote Macaulay's own words.'


      इस प्रकार गत कुछ शताब्दियों में यह पहली माइंड लिंचिंग (Mind lynching) थी जो अंग्रेजों के भारतीय अनुचरों के माध्यम से आज भी जारी हैl


      भारत  जब स्वतन्त्र हुआ तब देश की बागडोर अंग्रेजों की पहली पसन्द श्री जवाहर लाल नेहरू के हाथों में गयी। ऐसा किसी योजना के तहत हुआ या दैवयोग था, नेहरू जी के मित्र माउण्टबेटन तथा उनकी श्रीमती की क्या भूमिका थी इसको यहाँ छोड़ देते हैं पर यह सत्य है कि १३ प्रान्तीय असेम्बलियों में से एक ने भी नेहरू को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित नहीं किया था और सरदार पटेल का समर्थन ११ ने किया था। गाँधी जी कि जिद पर नेहरू काबिज हुए। नेहरू भारत के इतिहास को उसी प्रकार देखते थे जिस प्रकार मैकाले का कोई अनुरक्त देख सकता है। आर्यों के उत्तर पश्चिम से आने और इनके समय के निर्धारण के बारे में इनकी 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' देखने से और इस सन्दर्भ में 'शायद', 'ऐसा प्रतीत होता है', 'संभवतया' इत्यादि के बहुतायत में प्रयोग और पाश्चात्य विद्वानों के ही सन्दर्भ देने से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रति नेहरू का वही दृष्टिकोण था जो गौरांग प्रभुओं का था।


       जहाँ भारत के इतिहास के लेखन का कार्य होता था, पाठ्यक्रम निर्माण जिनके हाथों में था, दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जो भारत की भावी पीढ़ी के निर्माता थे वहाँ वे लोग प्रतिष्ठित किये गए जो अपनी प्रेरणा पतंजलि, कपिल, कणाद से नहीं कार्लमार्क्स से लेते थे। परिणाम यह हुआ कि भारत की आत्मा को सही परिपेक्ष्य में देखने-दिखाने का कोई प्रयत्न न किया गया न किसी ने इसकी अहमियत समझी। कुरीतियों का विवरण देने की आड़ में भारतीय शुद्ध ज्ञान-विज्ञान, जीवनशैली को उपेक्षणीय बना दिया गया। आज की पीढ़ी इसमें समय देने की आवश्यकता ही नहीं समझती। यह है मैकाले की माइंड लिंचिंग की सफलता- भारत है-भूभाग के रूप में, वह भी खण्डित, पर भारतीयता गायब है। 


         ऐतिहासिक निर्णय 



  •       श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद  


       डॉ. पी. एन. मिश्रा एक ख्यातनाम न्यायविद् व सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में आपने माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में मन्दिर पक्ष से चौबीस दिनों तक बहस की थी और अब सर्वोच्च न्यायालय में भी पाँच दिनों से अधिक समय तक साहित्यिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक प्रमाणों को प्रबलता से प्रस्तुत करते हुए सत्य-सिद्धि हेतु माननीय न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत किया। इस विवाद की सम्पूर्ण यात्रा में निकटतम साक्षी ही नहीं उसके भागी बने माननीय मिश्रा जी की कलम से प्रसूत इस विवाद का एक संक्षिप्त विवरणपाठकों केलाभार्थप्रस्तुत है। -


       संक्षिप्त विवरणपाठकों केलाभार्थप्रस्तुत श्री राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का उच्चतम न्यायालय भारत की ५ न्यायाधीशों से संपृक्त एक पीठ ने अपने दिनांकित ६ नवम्बर २०१६ के निर्णय के द्वारा निपटारा कर दिया। यूँ तो श्री राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का विवाद सदियों पुराना है, परन्तु वर्तमान निर्णय जिन न्यायिक प्रक्रियाओं की चरम परिणिति है, उनकी जननी २२/२३ दिसम्बर १६४६ की रात्रि में घटित वह तथाकथित घटना है, जिसमें कहा जाता है कि कुछ श्रीराम के भक्तों ने श्री जन्मभूमि मन्दिर के मध्य शिखर के नीचे स्थित गर्भगृह में भगवान श्री रामलला की मूर्ति रख दी थी।


       प्रथम सूचना रिपोर्ट अंकित होने के पश्चात् दिनांक २६ दिसम्बर १६४६ को अतिरिक्त नगराधीश ने अपराध प्रक्रिया संहिता १८६८ की धारा १४५ के अन्तर्गत पारित अपने एक आदेश के द्वारा श्री राम जन्मभूमि मन्दिर को कुर्क कर उस पर गृहीता (रिसीवर) नियुक्त कर दिया। दिनांक ५ जनवरी १६५० को गृहीता ने उक्त मन्दिर का भार ग्रहण कर लिया। दिनांक १६ जनवरी १९५० को श्री गोपाल सिंह विशारद् नामक एक श्रीराम भक्त ने व्यवहार न्यायाधीश फैजाबाद के न्यायालय में श्री जहूर अहमद और १० अन्य मुस्लिम धर्मावलंबियों, सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड व उत्तरप्रदेश राज्य, फैजाबाद आयुक्त और फैजाबाद पुलिस अधीक्षक के विरुद्ध नियमित वाद संख्या २ वर्ष १६५० ई. सन् संस्थित करते हुए यह अनुतोष माँगा कि वादी को यह अधिकार है कि वह विग्रह के पास जाकर उनकी सेवा-पूजा करे और उसके इस कार्य में बाधा डालने से प्रतिवादियों को स्थायी निषेधाज्ञा द्वारा निषिद्ध कर दिया जाय। वाद में अस्थायी निषेधाज्ञा हेतु दिए गए आवेदन में यह प्रार्थना की गयी थी कि प्रतिवादियों को गर्भगृह में से भगवान श्रीराम के विग्रह को वाद के निपटारे तक हटाने से निषिद्ध कर दिया जाय जिसको स्वीकार करते हुए विद्वान न्यायाधीश ने दिनांक १६ दिसम्बर १६५० को एक अंतरिम आदेश पारित कर दिया जिसे बाद में १६ दिसम्बर १६५० के आदेश द्वारा संशोधित किया गया जिसमें पूजा-कार्य में बाधा डालने से भी प्रतिवादियों को निषिद्ध कर दिया गया।प्रतिवादियों को निषिद्ध कर दिया गया। दिनांक ५ दिसम्बर १६५० को परमहंस रामचन्द्र दास ने व्यवहार न्यायाधीश फैजाबाद के न्यायलय में वाद संख्या २५ वर्ष १६५० ईस्वी सन् संस्थित किया। इस वाद में भी वही लोग प्रतिवादी बनाए गए थे जो कि श्री गोपाल सिंह विशारद् के वाद में प्रतिवादी थे। __इस वाद की विषयवस्तु अनुतोष आदि भी वही थे जो श्री विशारद् जी के वाद में थे। मात्र अन्तर यह था कि पूर्व वाद बिना व्यवहार प्रक्रिया संहिता, १६०८ की धारा ८० के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश राज्य को नोटिस दिए संस्थित किया गया था जबकि यह वाद ऐसे नोटिस को देकर संस्थित किया गया था। वर्ष १६६२ में यह वाद न्यायिक प्रक्रिया में होने वाले विलम्ब के विरोध में वापिस ले लिया गया। दिनांक १७ दिसम्बर १६५६ को निर्मोही अखाड़ा और इसके महन्त ने व्यवहार न्यायाधीश फैजाबाद के न्यायालय में वाद संख्या २६ वर्ष १६५६ ईस्वी सन गृहीता बाबू प्रियदत्त राम एवं १० अन्यप्रतिवादियों के विरुद्ध संस्थित कर यह अनुतोष माँगा कि गृहीता को हटा दिया जाए l 


       दिनांक १८ दिसम्बर १६६१ को सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड एवं नौ अन्य मुस्लिम पक्षकारों ने व्यवहार न्यायाधीश फैजाबाद के न्यायालय में वाद संख्या १२ वर्ष १६६१ श्री गोपाल सिंह विशारद् एवं अन्य १२ प्रतिवादियों के विरुद्ध संस्थित कर यह अनुतोष माँगा कि वाद संपत्ति को बाबरी मस्जिद घोषित कर दिया जाय ।तथा उसमें स्थित विग्रहों आदि को हटवाकर उसका कब्जा वादियों को सौंप दिया जाय। दिनांक १ जुलाई १६८६ को व्यवहार न्यायाधीश फैजाबाद के और प्रतिवादियों को स्थायी निषेधाज्ञा द्वारा जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण कार्य में हस्तक्षेप करने, बाधा डालने और आपत्ति करने से निषिद्ध कर दिया जाय।


       मानानीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने अपने आदेश दिनांकित १० जुलाई १६८६ के द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार के आवेदन दिनांकित १६ दिसम्बर १६८७ का निस्तारण करते हुए उपरोक्त सभी वादों का आहरण अपने न्यायालय में कर लियाहिन्दू पक्ष की पैरवी को मजबूती प्रदान करने हेतु मुस्लिम वाद में प्रतिवादी के रूप में जोड़े जाने के अखिल भारतीय श्री राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति द्वारा इसके संयोजक श्री मदनमोहन गुप्ता द्वारा किये गए आवेदन का निस्तारण करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने अपने आदेश दिनांकित २३ अक्टूबर १६८६ द्वारा उक्त संस्था को मुस्लिम वाद में प्रतिवादी संख्या २० के रूप में संयुक्त कर दिया। यह संस्था धर्म सम्राट जगद्गुरु शंकराचार्य शारदा मठ द्वारिका व ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम अनन्त श्री विभूषित महा स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज द्वारा स्थापित की गयी थी और वे स्वयं इसके संस्थापक अध्यक्ष हैं।


       उपरोक्त पाँचों वाद जब उच्च न्यायालय में आहरित किये गए तब उन वादों का पुनः पंजीकरण क्रमशः वाद संख्या अन्य मूल वाद संख्या १ वर्ष १९८६ ईस्वी सन, अन्य मूल वाद संख्या २ वर्ष १६८६ ईस्वी, अन्य मूल वाद संख्या ३ वर्ष १६८६ ई., अन्य मूल वाद संख्या ४ वर्ष १६८६ ई.सन् व अन्य मूल वाद संख्या ५ वर्ष १६८६ई. सन् के रूप में किया गया। चूँकि अन्य मूल वाद संख्या २ वर्ष १६८६ ई. सन् (मूलतः वाद संख्या २५ वर्ष १६५० ई.सन्) वर्ष १६६२ में वापस ले लिया गया था जिसके कारण वर्ष १६६२ के पश्चात् मात्र ४ वादों की सुनवायी की गयी। चार वादों- वाद संख्या १, ३, ४ व ५ सभी वर्ष १६८६ ईस्वी सन् का आत्यन्तिक रूप से निपटारा माननीय न्यायमूर्तिगण सर्वश्री शिबगतउल्ला खान, सुधीर अगरवाल व धरमवीर शर्मा से संपृक्त माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ की एक पूर्ण पीठ ने दिनांक ३० सितम्बर २०१० को किया। इलाहाबाद उच्च न्यायलय की उक्त पूर्ण पीठ के समक्ष श्री राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति की ओर से पी.एन.मिश्र ने २४ पूर्ण कार्यदिवसों तक तर्क प्रस्तुत किया। मैंने अपनी बहस के दौरान २०७ पूर्व न्याय-निर्णयों, १२५ सन्दर्भ ग्रन्थ तथा २३ अधिनियमों से प्रमाण देते हुए सिद्ध किया कि मुस्लिम वाद काल-बाधित है, उच्च इस्लामिक मापदण्डों के


       आधार पर विवादित ढांचा मस्जिद नहीं था, विवादित स्थल वैदिक काल से श्री राम जन्मभूमि के रूप में पूज्य था, मुगल शासक के द्वारा मूर्ति भंग किये जाने पर भी भगवान श्री राम वहाँ से विस्थापित नहीं हुए क्योंकि वह सर्वदा अदृश्य रूप में वहाँ विराजमान थे और भक्तगण जन्मभूमि में ही उनकी उपस्थिति मानकर उनकी पूजा करते थे। विग्रह के न रहने से हिन्दूधर्मदाय का अस्तित्व नहीं समाप्त होता क्योंकि जिस प्रयोजन से वह स्थापित किया जाता है वह प्रयोजन तो सदैव ही बना रहता है। मैंने बाबरनामा, हुमायूँनामा, आइन-ई-अकबरी मुन्तखब उत तवारीख, अर्ली ट्रेवेल इन इंडिया १५८३-१६१६ बाई विलियम फॉस्टर में वर्णित विलियम फिंच की यात्रा वृत्तांत ५-१६११, औरंगजेब के एक सैन्य नायक निकोलो मनूची द्वारा १६८० में लिखित 'स्टोरिया डी मोगर' (हिस्ट्री ऑफ मुगल) जोसेफ टिफेनथेलर द्वारा १७७० ई. में लिखित पुस्तक 'डिस्क्रिप्शन हिस्टोरिक इट जिओग्राफिक डी।' 'इन्डे' का आंग्ल अनुवाद, ईस्ट इण्डिया कम्पनी का १८२८ का गजेटियर, आर्कियोलोजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया द्वारा १८८६ से १६६४ तक प्रकाशित शिलालेखों के पाठों से युक्त अनेक पुस्तकें, १८५८ का गजेटियर १८७७-७८ का अवध कापुस्तकें, १८५८ का गजेटियर १८७७-७८ का अवध का गजेटियर आदि से प्रमाणित साक्ष्य प्रस्तुत कर यह सिद्ध कर दिया कि आदि काल से सन १८५६ तक श्रीराम जन्मभूमि पर हिन्दुओं की पूजा-उपासना अबाध गति से निरन्तर चलती रही और उक्त भूखण्ड पर उनका प्रभुत्व व आधिपत्य सर्वदा बना रहा। १८५६ के बाद भी जब हिन्दू-मुसलमानों में विवाद हुआ तब भी जन्मभूमि परिसर के बाहरी अहाते पर हिन्दुओं का पूर्ण प्रभुत्व बना रहा और अन्दरी अहाते में भी वे निरन्तर पूजा करते रहे, मात्र शुक्रवार-शुक्रवार को पुलिस । बल की सहायता से इस अवधि में मुसलमान आन्तरिक अहाते में यदा-कदा नमाज पढ़ते रहे। मैंने अथर्ववेद, स्कन्द पुराण, नरसिंह पुराण, बाल्मीकि रामायण, केनोपनिषद्, मीमांसा (जैमिनी कृत), कौतूहल वृत्ति अनेक स्मृतियाँ, रामचरित मानस, रुद्रयामल, अयोध्या माहात्म्य, हैंस बेकर कृत अयोध्या, अनेक गजेटियरों, आइन-ई-अकबरी, सत्यार्थप्रकाश (विशेषकर अल्लोपनिषद्) आदि के प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया कि वैदिक काल से ही विवादास्पद स्थल पर हिन्दू उसे श्रीराम जन्म भूमि मानकर पूजा करते चले आ रहे थे। उक्त प्रमाणों के आधार पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्तियों श्री एस.यू. खान व श्री सुधीर अगरवाल केद्वारा लिखित लगभग साढे पाँच हजार पृष्ठ के बहुमत के निर्णय द्वारा मुस्लिम और निर्मोही अखाड़े के वादों को कालबाधित करार देते हुए भी श्री रामलला के वाद में उन लोगों को भी १/३, १/३ हिस्सा देने का न्यायादेश दिनांक ३० सितम्बर २०१० को पारित कर दिया। न्यायमूर्ति श्री धरमवीर शर्मा ने अपना अल्प मत का फैसला अलग से देते हुए सम्पूर्ण विवादास्पद भूमि श्रीराम को देते हुए न्यायादेश दिया कि राजकीय धन से पुनः मन्दिर का निर्माण किया जाय।


        उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध हिन्दू और मुस्लिम पक्षकारों की ओर से वर्ष २०१० और २०११ में कुल १४ अपीलें संस्थित की गयीं। प्रथम २ अपीलें थीं- सिविल अपील संख्या १०८६६-१०८६७/२०१० एम् सिद्दीकी (डी) श्रू एल.आर. बनाम महन्त सुरेश दास एंड अदर्स। अ.भ. श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति की ओर से सिविल अपील संख्या ६६५५/२०११ अखिल भारतीय श्रीराम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति बनाम श्री राजेन्द्र सिंह एंड अदर्स अपील संस्थित की गयी थी।


       मैंने उच्चतम न्यायालय में सी.ए.नंबर ६६५५/२०११ के पक्ष में कुल ५ दिन बहस की इसमें अतिरिक्त २ दिन अंशतः उत्तर और प्रत्युत्तर हेतु बहस की गयी। दो अन्य दिन मैंने सत्य-पूर्ति हेतु अंशतः बहस की। सभी पक्षकारों की ६ अगस्त २०१६ से १६ अक्टूबर २०१६ के मध्य कुल ४१ दिनों तक माननीय उच्चतम न्यायालय के ५ न्यायाधीशों की पीठ जिसमें मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गगोई, न्यायमूर्ति श्री शरद अरन्विद बोबडे, न्यायमूर्ति यशवंत चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति श्री अशोक भूषण और न्यायमूर्ति श्री अब्दुल नजीर शामिल थे ने, दिनांक ६ नवम्बर २०१६ । को अपना निर्णय सुना दिया। अपने निर्णय में मेरे द्वारा उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में की गयी बहसों को लगभग २०० से अधिक पैराग्राफों में लिपिबद्ध करते हए l सर्वसम्मति से विवादित जन्मस्थल को श्री रामजन्मभूमि घोषित करते हुए उसे श्रीराम लला विराजमान को देते हुए भारत सरकार को निर्देश दिया कि वह अयोध्या निर्दिष्ट क्षेत्र-अधिग्रहण अधिनियम १६६३ की धारा ६ व ७ के प्रावधानों के अनुसार ट्रस्ट की संस्थापना/व्यवस्था कर सम्पूर्ण विवादास्पद भूमि उक्त ट्रस्ट को सौंप कर श्रीराम मन्दिर निर्माण हेतु सभी आनुषांगिक व अहम कार्य करेसाथ ही माननीय उच्चतम न्यायलय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद १४२ द्वारा प्रदत्त अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मुसलमानों के मालिकाने दावों को खारिज करने के बावजूद भी पक्षकारों के मध्य पूर्ण न्याय करने के उद्देश्य से अधिगृहीत ६६.७७ एकड़ भूमि में से अथवा राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध करायी गयी अयोध्या नगर के प्रमुख स्थान पर ५ एकड़ भूमि को सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड को देने को कहा जिससे कि वह संस्था यदि चाहे तो वहाँ मस्जिद बना सके l


       यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि विवादास्पद भवन पर इस सन्दर्भ में कि वह मन्दिर था या मस्जिद अपना कोई निष्कर्ष नहीं दिया है। उन्होंने कहा कि हिन्दू उसे मन्दिर मानते थे तो वह उनकी आस्था के अनुसार उनके लिए मन्दिर था और मुस्लिम मस्जिद मानते थे तो उनकी आस्था के अनुसार वह मस्जिद था। एक धर्म-निरपेक्ष देश की न्यायालय होने के कारण हम दोनों समुदायों की आस्था को बराबर मानते हैं अतः हम आस्था पर निष्कर्ष नहीं देते हैं, परन्तु जहाँ तक मालिकाना अधिकार का प्रश्न है वह हम सिविल लॉ (व्यवहार विधि) के आधार पर हिन्दुओं के पक्ष में उद्घोषित करते हैं। न्यायालय अत्यधिक प्राचीन अधिकार कासामान्यतया परिपालन सुनिश्चित नहीं करता परन्तु यदि प्राचीन अधिकार पूर्व सम्प्रभुताओं द्वारा मान्यता प्राप्त हो तब उसका परिपालन न्यायालय अवश्य सुनिश्चित कराएगा। इस मामले में साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि राम जन्मभूमि पर हिन्दुओं की पूजा के अधिकार को मुगल पूर्व, मुगल, ईस्ट इण्डिया कम्पनी, ब्रिटिश इण्डिया आदि पूर्व की सम्प्रभुताओं ने मान्यता दी थी। यह न्यायालय उनके अधिकार का अवश्य परिपालन सुनिश्चित करेगा। अब जबकि निर्विवाद मालिक उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने मालिकाना अधिकार का त्याग कर दिया है l


       तब हम भोग-दखल (भू-आधिपत्य अधिनियम) के आधार पर मालिकाना अधिकार तय करते हैं। हिन्दू पक्षकार प्राचीन काल से १८५६ तक अपना पूर्ण दखल और १८५६ के बाद बाहरी अहाते में पूर्ण दखल और भीतरी अहाते में निर्विवाद पूजा करना प्रमाणित कर चुके हैं तब हम श्री रामलला विराजमान को मालिक घोषित करते हैं। यद्यपि मुस्लिम अपना पूर्ण भोग-दखल सिद्ध करने में असफल रहे परन्तु उनको १६४६ में उपासना से विधि का उल्लंघन कर वंचित किया गया और १६६२ में जिस ढाँचे को वे मस्जिद मानते थे उसे विधि-विरुद्ध गिराकर आहत किया गया इसलिए हम अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए अयोध्या में उन्हें ५ एकड़ भूमि देने को कहते हैं। माननीय न्यायालय ने अपना यह कहीं निष्कर्ष नहीं दिया है कि विवादास्पद भवन बाबर ने बनाया था या औरंगजेब ने परन्तु यह कहा है कि जब मुस्लिम वादी और रामलला विराजमान वाद के वादी दोनों ही अपने वादपत्रों में इसे बाबर अथवा उसके सेनापति मीरबाकी द्वारा बनाया जाना कहते हैं तो हमें किसने ढाँचे को बनाया इसका निर्धारण करने की आवश्यकता नहीं है और विवाद के निर्धारण में भी इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। न्यायालय ने यह भी निष्कर्ष दिया कि इस्लाम की उच्चतर व्याख्या एवं मान-बिन्दुओं के अनुसार विवादास्पद ढांचा मस्जिद न भी हो तो भी परिवर्तित सांस्कृतिक परिवेश, सूफी विचारधारा एवं मुसलमानों की वर्तमान मान्यताओं के आधार पर यदि वे ढाँचे को मस्जिद कहते हैं तो वह उनकी बदली मान्यताओं के आधार पर मस्जिद ही कही जायेगी। यह निर्णय देश के सर्वोत्तम निर्णयों में से एक है। यह इस दृष्टिकोण से भी ऐतिहासिक है कि दो धार्मिक समुदायों के विवाद में दो धर्मों के मतावलम्बी न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से निर्णय देते हुए विवादित पूजा स्थल का अधिकार हिन्दुओं के देवता के पक्ष में घोषित किया है। इसके अतिरिक्त इस निर्णय में इस्लाम की चरम-पंथी बहावी आदि एवं सउदी अरब व पाकिस्तानी व्याख्या (जहाँ के व्याख्याकारों के धर्मग्रन्थ प्रस्तुत किये गए थे) को नकार कर इस्लाम की बदले हुए परिवेश में सांस्कृतिक प्रभाव को स्वीकार करते हुए सौहार्द स्थापित करने वाली स्वदेशीय व्याख्या को स्वीकार करने की अवधारणा को प्रतिपादित किया है। इस्लाम की यह व्याख्या कि 'एक बार मस्जिद तो कयामत तक मस्जिद' की व्याख्या को न्यायालय ने खारिज कर दिया है। मस्जिद स्थानांतरित की जा सकती है, यह भी विविक्षित रूप से प्रतिपादित कर दिया है।


       मस्जिद अपनी जमीन पर बनायी जा सकती है दूसरे की जमीन पर जबरन बनाया गया भवन मस्जिद नहीं हो सकती यह सर्वमान्य इस्लामिक विधि है। अब जबकि न्यायालय ने मालिकाना अधिकार देवता का घोषित कर दिया है, विधि के अनुसार ध्वस्त भवन कभी भी विधितः व धर्मतः मस्जिद नहीं रहा-डॉ. परमेश्वरनाथ मिश्र न्यायविद्, अधिवक्ता उच्चतम न्यायालय, भारत ।


वाणी का संयम 


स्वामी श्रद्धानन्द जी की कलम ...... 


       हर आर्यसमाजी उपदेशक है, प्रत्येक आर्य को पौरोहित्य कर्म करणीय है, यह मान अशुद्ध उच्चारण को भी स्वीकार्य बनाना और आर्य समाज का सेवक भी शास्त्रार्थ महारथी है ऐसा कहना, हमें आज गौरव की अनुभूति तो कराता है, पर प्रतीत होता है महाराज मनु और पूज्य स्वामी श्रद्धानन्द का कुछ और अभिमत है l


 कस्यचिद् ब्रूयान्नचान्यायेन पृच्छतः।


जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेता ll 


        जानन्नपि शब्दार्थ- (अपृष्टः) मनुष्य बिना पूछे (कस्यचित् न ब्रूयात्) किसी से वार्तालाप न करे (न च) और नही (अन्यायेन पृच्छतः) अन्याय से पूछने वाले के साथ बात करेअपितु (मेधावी) बुद्धिमान् मनुष्य (जानन्नप) जानकार होकर भी इन लोगों के साथ (जड़वत आचरेत) मूर्ख की तरह आचरण करे। उपदेश- इस समय प्रायः संसार को बहुत बोलने वालों ने वश में कर रखा है। पश्चिमीय अनकरण में प्रत्येक शिक्षित भारतवासी सारे संसार को शिक्षा देना अपना कर्तव्य समझता है। और जो गरीब चुप रहने का स्वभाव रखते हैं उनको भी इस प्रकार तंग किया है कि वे बोलने के लिए बाधित हो जाते हैंइस समय भारतवर्ष में विशेषतः उपदेशक ही उपदेशक दिखाई देते हैं। हर प्रकार के सुधार के लिए धारा प्रवाह वक्तृतायें होती हैं। परन्तु शोक है कि इतने अधिक उपदेशकों के होते हुए भी किसी प्रकार की भी दशा सुधरती दिखाई नहीं देती। इसका कारण क्या है? वही मनु का निश्चित किया हुआ सिद्धान्त कि बिना पूछे नहीं बोलना चाहिए। जब तक कि किसी को यह अनुभव न हो कि परमात्मा की ओर से उसे किसी कार्य के लिए विशेष नियुक्त किया है और जब तक उसने वैदिक साधनों से यह निश्चय न कर लिया हो कि उसका ऐसा विचार धोखे के आधार पर नहीं है बल्कि उसके पूर्व कर्मों का ही परिणाम है, तब तक उसे मनुष्यों के सुधार के लिए क्षेत्र में कदाचित नहीं उतरना चाहिए। ऐसा मनष्य जब कार्य आरम्भ करेगा तब अपने बल को सोच समझ कर प्रयोग करेगा l


       आर्यावर्त्त के प्राचीन ऋषियों के इतिहास पढ़ जाइये। आपको ज्ञात होगा कि वे आश्रम में बैठे हुए ही उपदेश किया करते थे और वहाँ भी उपदेश देने से पहले जिज्ञासु की योग्यता की पड़ताल करके ही पात्र के अतिरिक्त किसी को भी सम्बोधन नहीं करते थे। ईसा ने भी अपने उपदेशों में यही कहा था कि 'सुअर के आगे मोती नहीं बिखेरना चाहिए।


       परन्तु इसके अनुयायी स्टेज पर खड़े होकर हर अच्छे बुरे को अपने जत्थे के अन्दर बुलाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन ईसाइयों के अनुकरण में आर्य सन्तान ने भी अपने काम करने का ढंग बना छोड़ा है। आर्य समाज के सभासदों को न्यून से न्यून मनु जी के ऊपर कहे हुए वाक्य का बड़ा मान करना चाहिए। ऋषि दयानन्द का अधिकार था कि वह प्रत्येक मनुष्य को अपनी प्रबल आकर्षण शक्ति से खींचने की कोशिश करते। परन्तु यहाँ प्रत्येक बुरा-भला इसी अधिकार के साथ खड़ा होता है जो कि एक सच्चे संन्यासी की शोभा है। इसमें सन्देह नहीं कि उत्तम उपदेशकों के अभाव से ही संसार के अन्दर अन्धकार फैलता है, परन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि जब तक सच्ची श्रद्धा से सुनने वाले श्रोता नहीं होते तब तक सच्चे उपदेशक का यत्न भी बहुत कम फल लाता है। बुद्धिमान् किसान भूमि में बीज बोने से पहले खाद आदि डाल और हल चला कर भूमि को इस योग्य बना लेता है, जिससे बीज बोने से पूरा लाभ हो सके। इसीलिए प्रत्येक उपदेशक के लिए आवश्यक है कि इसके पहले कि वह मनुष्यों को उपदेश देने के लिए उद्यत हो, अपना क्रियात्मक जीवन ऐसा बना ले कि वह सुगमता से उसके उपदेश को ग्रहण कर सके। परन्तु जहाँ प्रत्येक मनुष्य अपने आपको उपदेश देने के योग्य समझता हो और उपदेश सुनने के लिए कोई भी तैयार न हो वहाँ यदि बहुत ही दुर्दशा हो तो आश्चर्य नहीं समझना चाहिए।


      भारतवर्ष में प्रत्येक मनुष्य क्यों अपने आपको उपदेशक समझता है? इसलिए कि उनके अन्दर स्वयं क्रियात्मक जीवन बहुत कम देखा जाता है और जिनके अन्दर क्रियात्मक जीवन न होवे सिवाय जिहा के और किस इन्द्रिय का प्रयोग कर सकते हैं? हरेक मनुष्य को आचरण द्वारा उसे सीधे मार्ग पर लाने वाले संसार में बहुत कम मनुष्य हैं। यही कारण है कि पूर्ण वैरागी के लिए संन्यास आश्रम में प्रवेश होने की आज्ञा थी और उपदेश का अधिकार भी उसी को था। और वह इसलिए कि संन्यासी हर प्रकार के दिखावे से मुक्त हुआ करता है।


       न उसे आत्मसम्मान का विचार रहे और न ही किसी के पक्षपात का विचार। वह हर समय सत्य के प्रचार में आरूढ़ रहता है। उपदेशक बड़ा दृढ़ हृदय होना चाहिए इसलिए मनु जी की आज्ञा है कि जहाँ अन्याय से कछ पछा जाय वहाँ भी सत्य उत्तर दे या मौन रहे। भारतवर्ष के प्रतिष्ठित महानुभावों में श्री बहरामजी मालाबारी पारसी की भी गणना है। यह पहले सज्जन हैं जिन्होंने गवर्नमेंट के खिताब मिलने पर विशेष आत्मिक सिद्धान्तों के अनुसार उसके ग्रहण करने से इन्कार कर दिया था। उनके विषय में यह बात प्रसिद्ध है कि एक अंग्रेज साथी यात्री ने बड़े अभिमान और घृणा के ढंग पर अंग्रेज साथी यात्री ने बड़े अभिमान और घृणा के ढंग पर उनका नाम पूछा तो उन्होंने उत्तर में मौन से काम लियाअर्थात् जैसे को तैसा जवाब देना एक बुद्धिमान् का ढंग नहीं होना चाहिए और नहीं दब कर बोलना एक धार्मिक मनुष्य का। यदि अन्याय से जबर्दस्ती पूछा जाय तो जहाँ क्रोध को समीप न आने दे वहाँ नेक पुरुष के लिए यह भी आज्ञा है कि ऐसी अवस्था में बिल्कुल बोले ही नहीं जिससे कि उसके वचनों पर किसी प्रकार का भी बाह्य प्रभाव न आ सके। केवल दिखावा और व्यर्थ प्रलाप के जीवन में तो मनुष्य भला पश-पक्षियों का क्या मुकाबिला कर सकेगा? स्वाभाविक ताज जो विशेष परिन्दों को मिला है क्या उसके मुकाबिले में दुनियाँ के बड़े से बड़े ताज का कोई साम्य है? क्या मोर की मस्तानीचाल का आज तक किसी मनुष्य ने मुकाबला किया है? क्या कोयल की हृदयस्पर्शी सुरीली आवाज का उत्तर कुछ भी मानवीय जगत् में उपस्थित है? प्रिय पाठकगण! थोड़ी देर के लिए विचार करो कि हम सब किस गड्ढे में गिरे चले जाते हैं। वेद भगवान् ने बतलाया है कि सारे संसार का प्राण वाणी है। परमात्मा के दिये हुये ज्ञान के भण्डार वेद के प्रकाश करने का साधन यही वाणी (इमाम् वाचम्) है। इसलिये उसकी रक्षा के लिए हर समय दृढ़ता से सचेत रहना चाहिये। बहुमूल्य वस्तु को आवश्यकता के बिना बुद्धिमान् मनुष्य खर्च नहीं करताजिस पर संसार की भलाई और बराई अधिक निर्भर हो उसके प्रयोग में जितना सावधान रहे थोड़ा है।


       मनुष्य को एक-एक पल परमात्मा के समीप पहुँचने के लिए दिया गया है। यह कर्मयोनि इसलिए दी गई है कि मनुष्य अपने आदर्श की ओर चल सके। मार्ग विकट और दूर है। मानवीय आयु इस मार्ग की कठिनाइयों का अनुमान लगा कर निश्चित की गई है। ऐसे उत्तम समय को भी अगर हम व्यर्थ दिखावे और व्यर्थ प्रलाप में गंवा तो हमसे अधिक मूर्ख कौन है? वाणी को जितना अधिक बखेरा जावे उतना ही उसका बल कम हो जाता है। जितनी उसकी रक्षा की जाय उसका बेमौका प्रयोग बन्द किया जाय उतना ही उसका बल बढ़ता है। इसलिए भारतवर्ष के हरेक समाज संशोधक का कर्त्तव्य है कि वह अपनी वाणी का आवश्यकतानसार ही प्रयोग करे और वह तब हो सकता है जबकि अभिमान, प्रतिष्ठा और दिखावे के विचारों को दिल से निकाल दिया जाय। दयासागर! हम सब भारत निवासी गुमराह हैं, अपने कर्तव्य को भूले हुये हैंजल, वायु, अग्नि और पृथिवी का अनन्त दान देने वाले आप ही समर्थ हैं कि हमारे मन्द कर्मों को दृष्टि में रखते हये हम सबको ब्रह्मचर्य का सर्वोत्तम दान दें, जिससे हम सब अपनी वाणी को वश में करते हए आपकी आज्ञा पालन करने के योग्य होकर अपने और अपने भाइयों (सब प्राणधारियों) के कल्याण का साधन बन सकें।  


विश्व भर से सहस्रों की संख्या में आने वाले दर्शकों के नवलखा महल, उदयपुर के बारे में विचार



  • (नवलखा महल की आर्ट गैलेरी में)  चन्द्रकान्त आर्य साहब से मुलाकात हुई। उन्होंने बहुत अच्छी बातें बतलायीं। यदि इसी तरह की बातें पूरे समाज में सभी लोगों को पता चले तो मानवता का धर्म जीवित होगा। __ -                                          -अयूब खान, अहमदाबाद

  • मुझे वेद की जानकारी का इतना पता नहीं था। मुझे जिन्दगी में पहली बार महर्षि स्वामी दयानन्द के जीवन की वास्तविक बातों का पता चला। जिन्दगी में क्या गलत है का भी पता चला। मुझे जीने का मकसद मिल गया। हमेशा सच की राह पर चलना चाहिए। _ अभय सिंह सिसोदिया, उदयपुर

  • मुझे यहाँ आकर वैदिक संस्कृति के बारे में जानकारी मिली। पहले हमें वेदों के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। लोगों से जैसा सुन लेते थे, उसी सुने सुनाए पर विश्वास कर लेते थे। लेकिन यहाँ आकर वेदों के बारे में वास्तविकता का पता चला। -     किशनाराम पटेल, बाडमेर तीसरीआंख (THIRD EYE)


       प्रत्येक प्राणी को दो ही आँखें जन्म के साथ मिलती हैं। शारीरिक रचना में अगर कमी रह जाए तो कभी-कभी जीव को एक आँख या अन्धापन भी मिल सकता है या जन्म लेने के बाद किन्हीं कारणों से एक आँख या अन्धापन मिल सकता है परन्तु तीसरी आँख मिलना सम्भव नहीं है। परमात्मा ने शारीरिक रचना करते समय दो आँखों का प्रावधान रखा है जो युक्ति संगत है। यदि शरीर में अगल बगल या पीछे आँखों की रचना होती तो दृष्टिगत निर्णयों में गलतियाँ होती और प्राणी किसी भी एक निर्णय पर नहीं पहुँच पाता। दो आँखों से देखने के बाद भी यह शरीर ठीक निर्णय लेने में भ्रमित हो जाता है फिर तो तीसरी आँख और भी भ्रमित कर देतीवास्तव में तीसरी आँख शरीर की बनावट में नहीं होती। यह भौतिक आँख नहीं है। यह आध्यात्मिक आँख है। तीसरी आँख का विवेचन विवेक एवं दूरदर्शिता के लिए किया जाता है। किसी प्राणी के पास की आँख कमजोर है तो किसी की दूर की। तभी तो डॉक्टर के पास जाकर चश्मे लगवाने की आवश्यकता पड़ती है। तब प्रश्न उठता है कि तीसरी आँख क्या है? कहते हैं देवाधिदेव शिवजी के तीसरी आँख थी। जो यदा कदा खोलते थे तथा वह ललाट में दोनों भृकुटियों के मध्य थी। उनका तीसरा नेत्र बुराई को नष्ट करने के लिए खुलता था आत्मध्यान या आत्मउत्थान हेतु भीतर खुलता था इसी कारण कलाकारों ने शिवजी के तीसरे नेत्र का स्थान भृकुटी के मध्य निर्मित किया। कहते हैं कि जब शिवजी तपस्या में थे और कामदेव ने उनकी तपस्या में व्यवधान डाला तो उन्होंने उसे तीसरे नेत्र की ज्योति से भस्म कर दियाजब कभी वे उच्च स्तरीय निर्णय लेते थे तो तीसरे नेत्र से जाँच करते थे। यह तीसरा नेत्र ऐसा टेलिस्कोप है जिससे हम दूर की बुराई या भलाई को परख कर उचित निर्णय ले सकें। तीसरी आँख दिव्य दृष्टि है जो भीतर तक गहराई में प्रवेश कर वास्तविकता को जान सकती है। इस आँख में टेलिस्कोप व माइक्रोस्कोप लगे हैं जो दर व पास की वास्तविकता को देख व परख सकती है। जब मरीज डॉक्टर के पास जाता है तो डॉक्टर मरीज के भीतरी अंगों को न देखते हुए अपने अनुभव की आँख से भीतर की बीमारी को समझकर इलाज करता है। आवश्यकता पड़ने पर मशीनों से यथास्थिति जानकर ऑपरेशन कर जीवनदान देता है।


       अगर हमारा तीसरा नेत्र खुल जाए तो हम भविष्य को उज्ज्वल व साकार बना सकते हैं। शरीर में दो गांठें हैं। एक का नाम पिट्यूटरी ग्लैंड व दूसरी का नाम पीनियल ग्लैंड है। इनका आपस में चक्र बनता है जिसको आज्ञा चक्र कहते हैं। फिजिकल साइन्स भी इसको मानता हैअध्यात्म की भाषा में शिवत्व प्राप्त करने हेतु तीसरा नेत्र खोलने का अभ्यासकरना पड़ेगा। शिवसंकल्पमस्तु की भावना में उच्च स्तरीय भावनाओं को प्रवेश देकर आज्ञाचक्र को गति देकर दिव्य दृष्टि वाला तीसरा नेत्र खोल सकते हैं।


       आजकल मनुष्य दो नेत्रों से भौतिकता को देख रहा है तथा इन्द्रिय-वशीभूत होकर कितने निम्न स्तर व अमानुषिकता पर उतर आया है, हम कल्पना भी नहीं कर सकते। अगर विवेक, ज्ञान, दूरदर्शिता उसे दिखाई देने लगे तो यही तीसरा नेत्र उसके भविष्य को संवार देगा। संसार में मनुष्यों में प्रेम, दया, सहयोग, आत्मीयता, सेवा, समर्पण व ईश्वर भक्ति का पुंज जगा देगा जिससे प्राणिमात्र का उद्धार होगा व 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सिद्धान्त या जीओ और जीने दो की परम्परा पल्लवित होगी तथा हम उसके फलों का रसास्वादन कर सकेंगे व दूसरों को करा सकेंगे।


       शिव की मुंडमाला व भस्म भी हमें मृत्यु व जीवन के रहस्य को बताती है। हमारी प्रगति की गाड़ी जीवन व मौत के दो पहियों पर चलती है। सिकन्दर ने तो जीवन भर लूटने व हत्या के अलावा कुछ भी नहीं किया किन्तु मरते समय दोनों हाथ ताबूत से बाहर खाली लटकाने के लिए कहा। वह जीवन व मृत्यु को तीसरी आँख से समझ ही नहीं सका। उसने दोनों आँखों से केवल दुनिया के मायावाद को ही जाना व देखा होता तो आज उनके द्वारा खोले गए तीसरे नेत्र के प्रकाश में हमें अँधेरे से दूर कर प्रकाश की राह दिखा रहा होता। शिवत्व का चन्द्रमा शीतलता व संयम का पाठ पढ़ाता है। उनके सिर से ज्ञान की गंगा बहती है जो उच्चस्तरीय विचारों को प्रवाहित करती है। चन्द्रमा व गंगा तीसरे नेत्र के सोच को आगे बढ़ाते हैं। इसलिए हमें तीसरे नेत्र की कल्पना पर मनन करना चाहिए तथा यह सन्देश औरों तक पहुँचाना चाहिए जिससे समष्टि में शान्ति, प्रेम, सद्भाव व समरसता बनी -- सुरेश चन्द्र दीक्षित 'सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य' 


. हारा हुआ गुआरी           (प्रो शामलाल कौशल )


       स्व. राजकपूर ने अपनी एक फिल्म 'तीसरी कसम' में गाना गाया था- 'दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, तूने काहे को दुनिया बनाई'। यह सचमुच ही एक दार्शनिक तथा कठिनतम प्रश्न है। जिसकी खोज तथा विश्लेषण युगों युगान्तरों में ऋषि, मुनि, विद्वान् तथा आध्यात्मिकता से जुड़े लोग करते रहे हैं। उनमें इस विषय पर इतने मतभेद हैं कि किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। खैर, परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना अपने हिसाब से कर दी।मनुष्य, पक्षी, पेड़, पौधे, पहाड़, नदियाँ भी बना दीं। मेरा मानना है कि इस दुनिया का संचालन, निर्देशन तथा नियंत्रण तो परमात्मा ने अपने हाथ में रखा है सभी जीव जन्तु तथा प्राणी तो उसके खिलौने मात्र हैं। सभी लोगों को परमात्मा ने अपना रूप देकर इस धरती पर उतारा है। परमात्मा की ज्योति आत्मा के तौर पर सभी प्राणियों में विद्यमान है। सभी पुरुष, स्त्री, बच्चे, बूढ़े, जवान अपनी-अपनी इच्छा, प्रकृति तथा जरूरत के मुताबिक व्यवहार/काम करने के लिए स्वतन्त्र हैं। लेकिन परमात्मा सभी लोगों से उनके जीवन में किये गये अच्छे-बुरे कामों का हिसाब-किताब जरूर माँगता हैआमतौर पर हम सभी लोग अपने अच्छे कामों से संतोष, आनन्द तथा यश कीर्ति प्राप्त करते हैं- लोग इसके फलस्वरूप स्वर्ग प्राप्ति की बात कहते हैं; तथा बुरे कामों से हमें दुःख, तनाव, क्लेश तथा बदनामी मिलती है- लोग इसके फलस्वरूप नर्क प्राप्ति की बात कहते हैंजो लोग परमात्मा का नाम जपते हैं, उसका सिमरन करते हैं, परहित को समर्पित होते हैं, दया, धर्म, दान, पुण्य, सत्चरित्र, परिश्रम, ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ते वे मरने पर ईश्वर के सान्निध्य में चले जाते हैं- वे मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं, उन्हेंदुबारा जन्म नहीं लेना पड़ता और वे बार-बार जन्म/मरण के दुःख, संताप, क्लेश से दूर होकर इस भवसागर से पार हो जाते हैं। यहाँ यह बात समझने वाली है कि प्राणियों में पशु, पक्षियों तथा अन्य जीवनों में से मनुष्यों को छोड़कर किसी को भी अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता और इनमें से कोई भी सात्विक जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। केवल मनुष्य ही परमात्मा का सिमरन, जनसेवा, धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन, सत्संग, दान-पुण्य, माता-पिता, गुरुजनों तथा बुजुर्गों की सेवा का ज्ञान रखता है।


       मनुष्य को परमात्मा भेजता तो इस जग में इसलिए है कि वह अपना लोक-परलोक सुधारे, परन्तु मनुष्य यहाँ अनेक प्रकार के पचड़ों में पड़ जाता है। यह दुनिया तो उसके लिए एक मुसाफिरखाना है, जहाँ उसने कुछ दिन रहकर वापिस ऐसे लोक-यानि परलोक में चले जाना है जिसके बारे में किसी को पता ही नहीं। वह इस दुनिया को ही असली दुनिया समझने लगता है। परिवार के सदस्यों से प्यार करने लगता है, उनके लिए धन तथा अन्य सुविधाएँ जुटाने के लिए जायज/नाजायज तरीके इस्तेमाल करते हुए अनेक झूठ,कपट, पाप, हेराफेरी, पाखण्ड, धोखा करने लगता है। वह भूल जाता है कि जब वह मरेगा, यमदूत उसे यातनाएँ देते हुए यमराज के पास ले जायेंगे उसे कोई बचा नहीं सकेगासारी उम्र तो वह काम क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार के वश में होकर पाप करता है। उसे यह कभी याद आता ही नहीं कि परमात्मा ने उसे इस लोक में किस लिए भेजा है।


       उसने कभी परहित की तरफ ध्यान नहीं दिया, कभी परमात्मा का सिमरन नहीं किया, वह कभी सत्संग में नहीं गया, कभी परमात्मा का यशगान नहीं गाया, उसने सुख सुविधायें देने के लिए कभी परमात्मा का शुक्र नहीं कियाअब जब उसकी जीवन लीला समाप्त हो रही है। वह बूढ़ा हो गया, उसके शरीर के अंग काम नहीं कर रहे, वह खाने, पीने, बैठने, चलने, सुनने तथा बातचीत करने में भी लाचारीमहसूस करता है, ट्टटी-पेशाब बीच में ही कर देता है, जिन घर वालों के लिए उसने हीरा जन्म मिट्टी में मिला दिया, वे भी अब यह कहने लगे हैं कि इस बूढ़े आदमी को तो अब परमात्मा के पास चले जाना चाहिए उसके मरने के लिए परमात्मा से दुआ करते हैं। यह सब कुछ देखकर मनुष्य को बहुत ही पछतावा होता है। पछतावा इसलिए होता है कि जिन घरवालों के लिए उसने अपना सारा जीवन, सुख, आराम दाव पर लगा दिया था वे इतने स्वार्थी निकले कि इससे जल्दी से जल्दी छुटकारा पा लेना चाहते हैं। इनकी सेवा, भलाई तथा देखभाल में उसने अपना बहुमूल्य समय ऐसे ही बर्बाद कर दिया। उसे पछतावा इसलिए भी हो रहा है कि अब जब उसका अन्त समय आ गया है, वह मरने के बिल्कुल नजदीक है, परमात्मा के बैंक में उसने उसका सिमरन तथा जनसेवा करके कोई पुण्य जमा नहीं कराये। वह सोचता है कि काश! परमात्मा उसको कुछ समय का और जीवन दान दे देता तो वह अपना परलोक सुधारने के लिए परमात्मा का नाम जपता, उसका सिमरन करता, सेवा करता, पापों से तौबा करता. निन्दा, चगली, बराई. विषय-विकारों. अहंकार. क्रोध, लोभ से बचता। लेकिन अफसोस कि अब सब कुछ खत्म हो रहा है। उसकी दशा हारे हुए जुआरी जैसी हो रहीवायदे किये थे,कसमें खाई थीं, गिड़गिड़ाया था कि हे ईश्वर! तू मुझे इस नर्क से निकाल । मैं बाहर आकर, जन्म लेकर तेरा नाम जपूँगा, गुणगान करूँगा, अच्छे कामों में समय तथा साधन इस्तेमाल करूँगा, पुण्य कर्मों के द्वारा लाख चौरासी से छुटकारा पाने के लिए सब कुछ करूँगा। लेकिन वह बाहर आकर सब कुछ भूल गया। करने योग्य अच्छे काम नहीं किये, ना करने योग्य बुरे काम करता रहा। वह परमात्मा का उसे जन्म देने का विश्वास खो चुका है। पता नहीं परमात्मा उसे घोर नर्क में फेंक कर क्या सजा देगा। कुत्ता, बिल्ली, सांप, छिपकली, नाली का कीड़ा वगैरह बना देगा।


       प्रत्येक जूनी में उसकी जिन्दगी तड़प-तड़प कर बहुत मुश्किल से बीतेगी। पता नहीं उसे मानव जीवन फिर कभी मिलेगा भी या नहीं। वह अपने पीछे रहने वाले लोगों को यह सलाह देता है कि वे धन दौलत, विषय-विकारों, पारिवारिक मोह, शोहरत को लेकर परमात्मा को ना भूलें, पर-सेवा, माता-पिता, गुरुजनों, बुजुर्गों, कमजोरों, लाचारों, अनाथों के प्रति अपने कर्तव्यों को सदा याद रखें। जैसे मरते समय वह हारे हुए जुआरी की तरह यह हीरा जन्म व्यर्थ जाने पर पश्चाताप के आँसू बहा रहा है, इससे और लोग शिक्षा लें तथा अपने जीवन को सुधार कर परमात्मा की कृपा के पात्र बनें l 


असरदार सरदार


       अखण्ड भारत के निर्माता सरदार वल्लभ भाई पटेल की स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी' जो कि भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री तथा प्रथम गृहमंत्री को समर्पित एक स्मारक है, बनाया गया जो कि भारतीय राज्य गुजरात में स्थित है। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री रहते हुए नरेन्द्र मोदी ने ३१ अक्टूबर २०१३ को सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिवस के मौके पर इस विशालकाय मूर्ति के निर्माण का शिलान्यास किया था। यह स्मारक सरदार सरोवर बाँध से ३२ किमी की दूरी पर भरूच के निकट नर्मदा जिले में साबू बेट नामक स्थान पर है जो नर्मदा नदी पर एक टापू है। सरदार पटेल का जन्म ३१ अक्टूबर १८७५ को नाडियाड शहर में पिता झवेर भाई, माता लाड बाई के घर में हुआ। इनके पिता ने झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना में अग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया था। वे एक किसान परिवार से थे जिनकी आजीविका का एक मात्र साधन कृषि था। इसके लिए उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। इसके बावजूद सम्पूर्ण परिवार तिरछी छत वाले कच्चे दुमंजिला मकान में खुशहाली से रहते थे।


       विद्यालय के समय से ही उनके अंदर निडरता और न्यायप्रियता जैसे संस्कार विकसित हुए। सत्रह साल की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया। आपने १८६७ में मैट्रिक की परीक्षा पास अब वे इंग्लैण्ड जाकर वकालत की डिग्री हासिल करना चाहते थेइसलिए उन्होंने अपराधिक मुकदमे लड़ने शुरू किये तथा पैसे टिकिट एजेण्ट को जमा करवाए किन्तु बड़े भाई के हाथ टिकिट लगने तथा उनके अनुरोध करने पर पटेल जी ने विशाल हृदय का परिचय दिया और टिकट अपने बड़े भाई को दे दिया। १६०६ में पत्नी का देहान्त हो गया किन्तु वे विचलित नहीं हुए


       जुलाई १६१० में इंग्लैण्ड जाने का मौका मिला इस प्रकार उनका सालों पुराना सपना पूरा हुआ। उन्होंने मिडिल टैंपल से महज बीस माह में वकालत की परीक्षा पास कर ली और वे वकील बनने में कामयाब रहे। एक किसान का बेटा जो कॉलेज या विश्वविद्यालय नहीं गया, उसकी कड़ी मेहनत ने उनके सपने को साकार किया। जब आपको स्वयं पर विश्वास हो तो आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता किन्तु जब सभी आप पर विश्वास करें और आप स्वयं न करें तो आपको असफल होने से कोई नहीं बचा सकता है। यही सफलता का मूलमंत्र है। यही आत्मविश्वास सरदार के व्यक्तित्व के केन्द्र में सदैव रहा।


      १६१३ में स्वदेश लौटकर अहमदाबाद से वकालत शुरू कीइंग्लैण्ड में रहने से उनके जीवन पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव काफी ज्यादा था किन्तु १६१७ में गाँधी जी द्वारा स्वाधीनता की माँग को लेकर गोधरा में हुई मुलाकात से तथा भारत की तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर वे स्वतंत्रता सेनानी बन गए। १६२० में असहयोग आन्दोलन में भाग लिया तथा इस दौरान उन्हें गुजरात प्रान्त की कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया। १६२२ में गुजरात के एक छोटे से जिले बारडोली में सत्याग्रह आन्दोलन किया जिसमें महिलाओं ने भी बराबर सहयोग किया। नेतृत्व कर रहे पटेल को आन्दोलन की सफलता पर उन्हें सरदार की उपाधि प्रदान की गई। १६३१ में सर्वसम्मति से उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया। १६४२ में भारत ने अंग्रेज हुकूमत को आखिरी झटका दिया। क्योंकि दूसरे विश्वयूद्ध ने इंग्लैण्ड की आर्थिक और सैन्य दृष्टि से कमर तोड़ दी। उपयुक्त समय देखकर भारतीय सेनानियों ने अंग्रजों पर प्रहार किया। पटेल ने अहमदाबाद में जोशीला भाषण देते हुए कहा कि- 'यदि कल सारे नेता गिरफ्तार कर भी लिए जाते हैं तो भी आपको अपनी जंग जारी रखनी है। मर मिटो लेकिन पीछे मत हटो।' जिससे क्रान्तिकारियों में नई ऊर्जा का संचरण हुआ। इस समय पटेल सत्तर साल के हो चुके थे। किन्तु वे बिना रुके, बिना थके अपने देश की सेवा में निरन्तर लगे रहे। मौजूदा वायसराय ने भारतीय नेताओं को बुलाकर उन्हें बारह सदस्यों की मंत्रिपरिषद् बनाने को कहा। इस प्रकार प्रथम सरकार बनी। कांग्रेस सदस्यों ने पटेल को प्रधानमंत्री के रूप में चुना किन्तु गाँधी जी का झुकाव नेहरू जी की ओर था। पटेल को सर्वसम्मति से गृहमंत्रालय, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गयी। उन्होंने इस पद को भी सहर्ष स्वीकार किया।


       १५ अगस्त १६४७ को बँटवारे के बाद भी ५६२ राज्य थे जो चारों दिशाओं में फैले थे। जून १६४७ में राज्यों के लिए एक अलग से विभाग बनाया गया जिसका प्रमुख सरदार को बनाया गयापटेल के सुझाव पर माउण्टबेटन ने सभी राज्यों के शासकों को अपने महल में बुलाया और पटेल ने उनसे भारत में सम्मिलित होने का निवेदन करते हुए कहा कि- 'मैं स्पष्ट देख पा रहा हूँ कि यदि आप लोग भारत में शामिल नहीं होते हैं तो देश में अराजकता का माहौल बन जाएगा। उन्होंने इस बात के भी संकेत दिए कि जो राज्य १५ अगस्त से पहले भारतीय संघ में शामिल नहीं होंगे उन पर सख्त कार्यवाही की जाएगी। जूनागढ के गैरजिम्मेदार राजा के पाकिस्तान में सम्मिलित होने की घोषणा करने पर पटेल को लगा कि इससे हैदराबाद और कश्मीर को सम्मिलित करने में अड़चन पैदा हो सकती है। इस कारण एक सैन्य टुकड़ी वहाँ भेज दी जिससे नवाब को करांची भाग जाना पड़ा। १६४८ के अक्टूबर माह में हैदराबाद के निजाम के प्रतिनिधि लायक अली से सरदार ने कहा कि- 'हम देश के एक हिस्से को पूरे देश की अखण्डता को भंग नहीं करने देंगे। आप और निजाम अपना फैसला बताएँ और हमें अपना फैसला लेने दें। मई १६४८ को कैबिनट से सैनिक कार्यवाही की इजाजत ले ली। १२ सितम्बर के दिन


       भारतीय सेनाएँ हैदराबाद में दाखिल हुईं और पाँच दिनों के भीतर हैदराबाद ने हथियार डाल दिये। इस तरह मात्र तेरह महीनों के भीतर सरदार पटेल ने एक करिश्मा कर दिखाया। कश्मीर के अलावा सभी राज्य भारतीय संघ के सदस्य बन चुके थे। कश्मीर का मामला श्री नेहरू ने अपने हाथ में लिया। जो कालक्रम में ऐसा नासूर बन गया जो आज तक रिस रहा है। १ दिसम्बर १६५० को भारत के लौह पुरुष ने यह संसार सदा के लिए छोड़ दिया। अखण्ड भारत के निर्माता पटेल को १६६१ में मरणोपरान्त सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया । - श्रीमती दुर्गा, प्रतापगढ


       बावन साल का एक आदमी मेरे पास परामर्श के लिए आया। वह बहुत निराश था। उसने अपनी निराशा की कहानी सुनायी। उसने कहा, सब कुछ खत्म हो चुका था। उसने जीवनभर जो बनाया था, वह सबका सब बर्बाद हो चुका था। 'सब कुछ?' मैंने पूछा। 'सब कुछ।' उसने दोहराया कि वह पूरी तरह बर्बाद हो चुका है। 'मेरे पास अब कुछ भी नहीं बचा है। सब कुछ चला गया है। अब कोई आशा नहीं है और अब मैं इतना बूढ़ा हो चुका हूँ कि एक बार फिर से शुरुआत नहीं कर सकता। मैंने अपना विश्वास खो दिया है।' स्वाभाविक रूप से मेरे मन में उसके लिए सहानुभूति थी, परन्तु यह स्पष्ट था कि उसकी प्रमुख समस्या यह थी कि निराशा की गहरी छाया उसके मस्तिष्क में प्रवेश कर गई थी और इस वजह से उसका नजरिया विकृत हो गया था। उसी के विकृत चिन्तन के कारण उसकी सच्ची शक्तियाँ सामने नहीं आ पा रही थीं और इस वजह से वह कमजोर पड़ा था। 'चलिए,' मैंने कहा, 'हम एक कागज पर लिखें कि आपके पास क्या-क्या बाकी है?' 


       'इससे कोई फायदा नहीं होगा. उसने ठण्डी सांस लेते हए कहा।' 'मेरे पास कुछ नहीं बचा है। मुझे लगता है कि मैंने आपको पहले ही वह बता दिया है। मैंने कहा 'फिर भी देखने में क्या हर्ज है? क्या आपकी पत्नी अब भी आपके साथ है?' 'क्यों नहीं, बिल्कुल है और वह बहुत भली महिला है। हमारी शादी को तीस साल हो गए हैं। चाहे हालात कितने ही बिगड़ जायें, वह कभी मेरा साथ नहीं छोड़ेगी।'


       'बहुत अच्छा, तो हम इस बात को लिख लेते हैं- आपकी पत्नी अब भी आपके साथ है और चाहे कुछ भी हो जाये वह कभी आपका साथ नहीं छोड़ेगी। और आपके बच्चे?' 'मेरे तीन बच्चे हैं,' उसने जवाब दिया, 'और तीनों बहुत अच्छे हैं। जब उन्होंने मुझसे आकर यह कहा तो उनकी बात मेरे दिल को छू गई, 'डैड, हम आपसे प्रेम करते हैं और हम पूरी तरह आपके साथ हैं।' 'अच्छा, मैंने कहा', तो नम्बर दो पर हम यह लिख लेते हैं'कि आपके तीन बच्चे हैं जो आपसे प्रेम करते हैं और आपका साथ देंगे।' 'अब यह बतायें कि क्या आपके दोस्त हैं?' 'हाँ, उसने कहा', 'मेरे कई दोस्त बहुत अच्छे हैं। मुझे मानना पड़ेगा कि वे बहुत ही उदार हैं। वे मेरे पास आये और उन्होंने मुझसे कहा कि वे मेरी मदद करना चाहेंगे। परन्तु वे कर ही क्या सकते हैं? वे कुछ नहीं कर सकते।' 'तो इसे हम तीसरे नम्बर पर लिख लेते हैं- आपके पास कुछ दोस्त हैं जो आपकी मदद करने को तैयार हैं और वे आपका सम्मान करते हैं। और आपकी अन्तरात्मा? क्या आपने कोई गलत काम किया है?'


       'बिल्कल नहीं.' उसने जवाब दिया. 'मेरी अन्तरात्मा बिल्कल साफ है। मैंने हमेशा सही काम करने की कोशिश की है। अब आप यह बतायें कि आपका स्वास्थ्य कैसा है?' 'मेरा स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक है' उसने जवाब दिया। 'मैं बहुत कम बीमार रहता हूँ और मुझे लगता है कि मैं शारीरिक दृष्टि से बिल्कुल फिट हूँ।' 'तो हम इसे नम्बर पाँच पर लिख देते हैं- अच्छा शारीरिक स्वास्थ्य। अब यह बतायें कि अमेरिका के बारे में आपकी क्या राय है? 


       'क्या आपको लगता है कि यह सही दिशा में जा रहा है यह संभावनाओं से भरा देश है?' 'हाँ, उसने कहा।' 'यह दुनिया का इकलौता देश है, जहाँ रहना चाहूँगा। 'तो हम इस बात को नम्बर छह पर लिख लेते हैं- अमेरिका में रहते हैं, जो संभावनाओं से भरा देश है आपको यहीं रहने में खुशी होती है। फिर मैंने उससे 'आपकी धार्मिक आस्था का क्या हाल है? क्या आप ईश्वर विश्वास करते हैं और क्या आप मानते हैं कि ईश्वर आपकी सहायता करेगा?' 'हाँ, उसका जवाब था।' 'मुझे लगता है कि अगर ईश्वर मेरी मदद न की होती, तो मैं इन मुश्किलों को सहन नहीं पाया होता। अब 'मैंने कहा, जरा देखिए तो सही आपके पास कितनी सारी पूंजी है 


१ अद्भुत पत्नी-तीस साल से हमेशा साथ।


२. तीन समर्पित बच्चे- जो आपका साथ देंगे।


३. दोस्त- जो आपकी मदद करने के लिए तैयार हैं और आपका सम्मान करते हैं


४. अच्छा शारीरिक स्वास्थ्य।


५. दुनिया के सबसे महान् देश अमेरिका में रहते हैं।


६. आप में धार्मिक आस्था है। मैंने सूची को उसके सामने टेबल पर रख दिया। इसकी तरफ देखिए। मुझे लगता है कि आपके पास अब भी काफी पूंजी बची हुई है। आपने तो मुझे कहा था उसने शर्माते हुए कहा, मुझे लगता है कि मैंने इन चीजों के बारे में सोचा ही नहीं था। 'मैंने इस तरीके से सोचा नहीं था। शायद परिस्थितियाँ इतनी बुरी नहीं हैं, 'उसने विचार करते हुए कहा।' अगर मुझमें थोड़ा सा विश्वास आ जाये, अगर मुझे ऐसा लगने लगे कि मेरे भीतर शक्ति बची है तो शायद में एक बार फिर से शुरू कर सकता हूँ।' 


      यास्क:-- के बाद मध्यवर्ती काल में यह वैदिक विज्ञान  लुप्त हो गया और आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने इसे फिर से मूल रूप में समझा। उन्होंने घोषणा की कि 'वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है' और इसमें समूचा भौतिक विज्ञान मौजूद है। उन्होंने सभी वेदों का भाष्य करने का बीड़ा उठाया और भूमिकारूप में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न केवल यह घोषणा की अपितु स्थान-स्थान पर भौतिक विज्ञान के नमूने वेदमंत्रों की व्याख्या करके प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक विज्ञान प्रथम कोटि का विज्ञान है और वेद में आत्मा और परमात्मा का भी विज्ञान है। भौतिक विज्ञान, बिना आध्यात्मिक विज्ञान के अधूरा, पंगु और अप्रासंगिक है। आधुनिक विज्ञान में यह उन्होंने नया अध्याय जोड़ा जो कोरेऔर नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं, अपितु विज्ञानजन्य, अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वेदान्त दर्शन में इसी का विस्तार है। वाययान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्यत विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमंत्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किए, जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था। जो उन्होंने 'ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका' में वेद-विषय विचार के प्रसंग में विज्ञानकाण्ड विषय पर एक स्वतंत्र विषय वेद का दिया है। का सर्वप्रथम प्रारम्भिक मंत्र है 'अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्'ll इस मंत्र में ईळे क्रियावाची शब्द है। इसका अर्थ अन्य सभी वेद भाष्यकारों ने अशुद्ध किया है।


       स्वामी दयानन्द ने इसके वास्तविक अर्थ को निरुक्त के आधार पर किया है। निघण्टु में वेद के प्रामाणिक भाष्य पद्धति के व्याख्याता यास्क ने कहा है, 'ईळिरध्येषणा कर्मा' अर्थात् इळ धातु अध्येषणार्थक है। अध्येषणा का अर्थ यास्क ने किया है 'अध्येषणा सत्कार पूर्वको व्यापारः', अर्थात् अध्येषणा का अर्थ है किसी वस्तु के गुणों और क्रियाओं को ठीक-ठीक समझकर उसके उन गुणों के उपयोगार्थ उस वस्तु को उसी प्रकार के काम में लाना। यही अर्थ स्वामी दयानन्द ने भी किया है। यहाँ इस मंत्र का देवता-वर्णनीय विषय-अग्नि है।


       और नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं, अपितु विज्ञानजन्य, अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वेदान्त दर्शन में इसी का विस्तार है। वाययान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्यत विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमंत्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किए, जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था। जो उन्होंने 'ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका' में वेद-विषय विचार के प्रसंग में विज्ञानकाण्ड विषय पर एक स्वतंत्र विषय वेद का दिया है।स्वतंत्र विषय वेद का दिया है। विध्वंसकारी वेदों में विज्ञान के कुछ और नमूने हम पेश करते हैं। ऋग्वेदअतः इसका अर्थ हुआ कि मैं (मनुष्य) अग्नि (भौतिक पदार्थ) को उसके गुण और क्रिया समझ कर उसका उसी प्रकार का उपयोग करूँ। यहाँ अग्नि के कुछ गुण दिए हैं। यहाँ अग्नि को 'देवम' कहा गया है, देव का अर्थ है प्रकाश और गति। (दिवु धातु द्युति और गति अर्थ वाली) स्पष्ट है कि अग्नि के दो गुण प्रकाश और गति का भौतिक विज्ञान में अत्यधिक महत्व है। अग्नि के लिए एक और शब्द 'होतारम्' का यहाँ प्रयोग है जिसका अर्थ है ध्वनि करने वाला हिज़ शब्दे) तथा वस्तुओं को खाने या नष्ट करने वाला (हू दानादनयोः धातु)। अग्नि का विस्फोटक रूप और विध्वंसकारी ध्वनि सर्वविदित ही है। तथा अग्नि अपने में डाली गई प्रत्येक वस्तु को खा डालती, जला डालती या नष्ट मंत्र है:अग्निर्होता कविक्रतुःसत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरागमत।।' यहाअग्निर्होता कविक्रतुःसत्यश्चित्रश्रवस्तमः। देवो देवेभिरागमत।।' यहाँ भौतिक अग्नि के दो और विशेषणों का


कर डालती है। इसी प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त का पाँचवां मंत्र है:


अग्निर्होता कविक्रतुःसत्यश्चित्रश्रवस्तम:l


देवो देवेभिरागमत।।


       उन्होंने यहाँ भौतिक अग्नि के दो और विशेषणों का प्रयोग है। एक है विज्ञान कविक्रतुः जिसका अर्थ पारदर्शक कर्म वाला (कविः क्रान्तदर्शी भवति, यास्क) (क्रतु कर्मपर्याय)। अग्नि पारदर्शक होने से, आधुनिक टेलीविजन, एक्सरे आदि के काम में लाया जाता है। दूसरा गुण है 'चित्रश्रवस्तमः' अग्नि अद्भुत तरीके से समय ध्वनि का श्रवण करवाता है, यह गुण टेलीफोन आदि के कार्यों के आविष्कार का कारण बना है। हमने अग्नि आदि सिद्ध अनेक भौतिक पदार्थों के गुणों को भौतिक विज्ञान के संदर्भ में फार्मूले अपनी पुस्तक (Glorious Vision of the Vedas) में वर्णित किया है, जो हॉलैण्ड से छपी है, पाठक विस्तार से वहीं से देख सकते हैं।


       ऋषि दयानन्द के बाद जयपुर नरेश के राजपंडित मधुसूदन ओझा ने 'वैदिक विज्ञानम्' (१८६४) पुस्तक लिखी, जिसमें घोषणा की कि 'वद सवाः विद्याः सन्ति' जो ऋषि दयानन्द के उन शब्दों का शब्दशः अनुवाद था जो आर्य समाज के तीसरे नियम में लिखा है, 'वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है (सन् १८७५)।


       वेद में सविता और सूर्य इन दो भिन्न भिन्न शब्दों से सूर्य का वर्णन मिलता है, यह क्यों? सविता शब्द की व्युत्पत्ति सर्जनार्थक षुञ् धातु से है अतः सविता का अर्थ है सर्जन करने वाला, सविता सूर्य का वह रूप है जो सर्जन करने वाला हैअतः सविता के वर्णन में सूर्य के सभी सर्जनात्मक रूपों का वर्णन हैऔर सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है गत्यर्थक सृ धातु से जिसका अर्थ है गति देने वाला। अतः सूर्य के वर्णन में उन रूपों का समावेश है जो सूर्य के गतिप्रद रूप हैं इसी प्रकार किरणों के १५ नाम निघण्टु में दिए हैं जो किरणों के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के निदर्शक हैं। आधुनिक विज्ञान को अभी तक सात प्रकार की किरणें ही विदित हैं वेद की शेष किरणों पर शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार यास्क ने वैदिक निघण्टु में पानी के एक सौ नाम दिए हैं जो पानी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के वाचक हैं। अभी तक पानी के रूप, पानी, बादल, भाप, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन आदि ही ज्ञात हैं, शेष पानी के रूप कौन से रूप हैं? शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। वैदिक देवता मरुत और वायु आदि में भी मौलिक अन्तर है, ये एक ही भौतिक पदार्थ के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक भौतिक विज्ञान का बहुत व्यापक विशाल क्षेत्र है जो खोज चाहता है।


       हम यहाँ केवल एक ही और वेद में भौतिक विज्ञान का आधुनिकतम उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देंगे। आइन्सटाइन आधुनिक युग के महान् वैज्ञानिक माने जाते हैं। उन्होंने देश और काल (टाइम एंड स्पेस) के विषय में भौतिक विज्ञान के अद्भुत सिद्धान्तों का आविष्कार करके सृष्टि-विज्ञान की नयी व्याख्या प्रस्तुत की । आइन्सटाइन को अभी-अभी मात दी है स्टीफन हॉकिंग ने। स्टीफन हॉकिंग की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोज यह है कि प्रलय काल में भी समय की सत्ता रहती है। यह तथ्य उन्होंने अपने आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर नये फार्मूले पेश करके सिद्ध किया हैप्रलय अवस्था के काल की गणना करने के फार्मूले भी उन्होंने दिए हैंइसी अपनी वैज्ञानिक नयी खोज का बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक 'story of Creation: From Big-Bang to Big Crunch' में बड़े विस्तार से किया है। 


       यह वैज्ञानिक तथ्य वेद में पहले से ही वर्णित हैं। यह हमने खोजा है। ऋग्वेद के चार सूक्त अर्थात् मं. १०, सू.१२६, १३० मं. १०, सूक्त १५४, मं.१०, सूक्त १६० ये चार सूक्त भाववृत्तम् नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन चारों सूक्तों में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय अवस्था का वर्णन है, अतः ये चारों सूक्त ऋग्वेद के सृष्टि विज्ञान के सूक्त कहे जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सृष्टि विज्ञान के विषय पर स्टीफन हॉकिंग की पुस्तक (स्टोरी ऑफ क्रियेशन) का नाम भी यही 'भाववत्तम' बनता है। लगता है (स्टोरी ऑफ क्रियेशन) भाववृत्तम' का ही अनवाद हो, यह अदभुत संयोग ही कहा जा सकता है। अस्तु, ऋग्वेद के प्रथम भाववृत्तम् सूक्त अर्थात् १०वें मण्डल का १२६वां सूक्त जो नासदीय सूक्त से भी जाना जाता है, इन शब्दों से प्रारम्भ होता है


       नासदासीनो सदासीत्तदानीम्। मन्त्र के इस प्रथम चरण में सृष्टि के पहले प्रलय अवस्था का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि प्रलय अवस्था में सत् और असत दोनों ही नहीं थे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 'सत्' और 'असत्' दोनों ही वैदिक शब्द बड़े वैज्ञानिक तकनीकी अर्थ में प्रयुक्त हैं जिनकी व्याख्या का यहाँ नहीं हैयहाँ हम यह बतलाना चाह रहे हैं कि उस प्रलयावस्था में जिस अवस्था का वर्णन यहाँ ऋग्वेद में 'सत्' और 'असत्' के अभाव के रूप में किया है, एक पदार्थ का भाव स्पष्ट माना है और वह है काल, जिसे तदानीम् शब्द से विज्ञात घोषित किया है। 'तदानीम्' अर्थात् उस समय जब 'सत्' और 'असत्' भी नहीं थे, किन्तु समय (काल) था। स्टीफन हॉकिंग और आइन्सटाइन की काल सम्बन्धी प्रमुख खोज को वेद ने एक ही सहज और सरल शब्द 'तदानीम्' से बतलाकर धराशायी कर दिया। वैदिक विद्वानों ने अभी तक समूचे भाववृत्त सूक्त की वैज्ञानिक व्याख्या तथा इस मंत्र की इस व्याख्या पर ध्यान नहीं दिया हैप्रलय अवस्था में काल की सत्ता और प्रलय अवस्था के काल की गणना जो एक अत्यन्त कठिन वैज्ञानिक चुनौती है, भारतीय दर्शनों में बड़े विस्तार से दी है। प्रलय अवस्था में सूर्य के अभाव में काल गणना का मापक दण्ड या साधन यन्त्र क्या हो यह बड़ी वैज्ञानिक समस्या है। किन्तु प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इस गुत्थी को बड़े वैज्ञानिक तरीके से सफल रूप में सुलझाया हैइस विषय पर हम फिर कभी लिखेंगे। किन्तु संकेत रूप में यहाँ यह बतला दें कि प्रलय अवस्था में भी काल के कार्य कलापों का स्पष्ट और विशद वर्णन 'वाक्य पदीय' नामक प्रसिद्ध भाषिक दर्शनीय ग्रन्थ के काल समुद्देश (का ३, समु ६) में वर्णित है जिस पर शोध कार्य विश्वविद्यालयों में भी बहुत कम हुआ है, आये विद्वानों को तो इसका पता ही नहीं है l


       तो इसका पता ही नहीं हैंखगोलशास्त्र के आधुनिक वैज्ञानिक कार्ल सागम ने इस तथ्य की पुष्टि को 'हिन्दुस्तान टाइम्स' में २६ जनवरी १६६७ को छपे अपने साक्षात्कार में बड़े प्रशंसनीय शब्दों में स्वीकारा है। यहाँ यह सब लिखना सम्भव नहीं हैदो वर्ष पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हमने इस विषय पर शोध लेख पढ़ा था, जिसकी चर्चा स्थानीय समाचार पत्रों में खूब रही थी। अथर्ववेद के कां. १६, सू. ५३ और ५४ में काल का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया हैइस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन इस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन के साथ ही हम अपना लेख समाप्त करने से पहले २१वीं सदी और वैदिक विज्ञान की याद दिलाना चाहेंगे। हमने पहले ही कहा था कि २१वीं सदी पश्चिम के विज्ञान की आँधी औरतूफान लेकर विश्व में आयेगी। वैज्ञानिक आविष्कार प्रकृति के रहस्यों को खोल कर रख देंगे। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियाँ मानव को इतना साधन सम्पन्न बना देंगी कि जीवन के तौर तरीके सर्वथा बदल जायेंगे। समाज और राष्ट्र का एक नया भौतिक रूप उभर कर सामने आयेगा। आधनिक इन्फामेशन टेक्नॉलॉजी, इन्टरनेट, रोबोट, शरीर विज्ञान की नयी खोजें, आने वाले समय का पूर्वाभास करवा रही हैंऐसे समय में आर्य समाज की ही नहीं अपितु समूचे भारत राष्ट्र की परिचायक सत्ता का प्रश्न होगा। वेद औरप्राचीन भारतीय शास्त्रों का ज्ञान-विज्ञान पश्चिम की इस आँधी के साथ टक्कर लेने की पूरी क्षमता रखते हैं, देश की गरिमा को वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही सर्वोपरि स्थान पर रख पायेगा, यही देश और समाज की सबसे महत्वपूर्ण धरोहर होगी जिस पर राष्ट्र गर्व करके पश्चिम के भौतिक अन्धकार में सूर्य के समान विश्व को प्रकाश दिखला सकता है। वैदिक विद्वानों के अतिरिक्त परोपकारिणी सभा जो स्वामी दयानन्द जी महाराज की एकमात्र उत्तराधिकारणी सभा है, का विशेष रूप से यह दायित्व बन जाता है कि ऐसे समय में वैदिक ज्ञान विज्ञान की खोज करके मानव मात्र का प्रकाश स्तम्भ बने, जिससे दयानन्द और वेद की पताका सर्वोपरि लहराती रहे और आधुनिक भौतिक विज्ञान में अपने आपको भूलते हुए मानव को ज्ञान-विज्ञान की चरम पराकाष्ठा आध्यात्मिक चेतना की याद दिलाती रहे, जो अखण्ड समष्टि के दर्शन की समची वैज्ञानिक व्याख्या है।


       ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में स्वामी दयानन्द के अनुसार समग्र भौतिक विज्ञान का मर्म इसी आध्यात्मिक चेतना के विज्ञान में होता है जो वेदों में मानवीय चेतना का अन्तिम लक्ष्य कहा गया हैआध्यात्मिक विज्ञान के बिना केवल भौतिक विज्ञान ऐसे ही अर्थहीन, पंगु और अधूरा है जैसे शरीर विज्ञान चेतन जीव-विज्ञान के बिना निष्प्रयोजन और असंगत है, क्योंकि चेतना के बिना जीवन की व्याख्या अधूरी और अप्रासंगिक है और केवल भौतिक शरीर मत और मिट्टी है। चेतना की सुरक्षा ही शरीर विज्ञान पर आधारित चिकित्सा पद्धति का ध्येय है। भौतिक विज्ञान बाह्य-पदार्थ-विषयक (ऑब्जेक्टिव) है तो दूसरी ओर आध्यात्मिक विज्ञान अन्तश्चेतन तत्व आत्मविषयक (सब्जेक्टिव) है। स्वयंज्ञाता-विषयक है जहा सब्जेक्ट ही आब्जेक्ट बना है, ज्ञाता ही ज्ञान का विषय बन जाता है। यह वैयक्तिक चेतना विज्ञान अन्ततोगत्वा सामष्टिक चेतना का बोध करवाती है जो अनन्त और सर्वनिरपेक्ष (आब्सोल्यूट) की स्थिति है। भौतिक विज्ञान के ऊपर यह पराविज्ञान (सुपर साइन्स) है। ये दोनों मिलकर सर्वांगीण विज्ञान बनते हैं जिसे वेद के माध्यम से स्वामी दयानन्द आधुनिक भौतिक विज्ञान को देना चाहते हैं, जो आज के भौतिक विज्ञान की सबसे बड़ी समस्या और आगे प्रगति में बाधा का एकमात्र समाधान है। डॉ. महावीर मीमांसक  


कथा सरित  


      बहुत समय पहले की बात है, एक जंगल में नदी के किनारे पर एक साधू की कुटिया थी। एक दिन साधू ने देखा कि उनकी कुटिया के सामने वाली नदी में एक सेब तैरता हुआ आ रहा है। साधू ने सेब को नदी से निकाला और अपनी कुटिया में ले आए। महात्मा सेब को खाने ही कुटिया में ले आए। महात्मा सेब को खाने ही वाले थे कि तभी उनके अंतर्मन से एक आवाज आई- 'क्या यह तेरी सम्पत्ति है? यदि तुमने इसे अपने परिश्रम से पैदा नहीं किया है तो क्या इस सेब पर तुम्हारा अधिकार है ? अपने अंतर्मन की आवाज सुन साधू को आभास हुआ कि उसे इस फल को रखने और खाने का कोई अधिकार नहीं है। इतना सोचकर साधू सेब को अपने झोले में डालकर सेब के असली स्वामी की खोज में निकल पड़े। थोड़ी दूर जाने पर साधू को एक सेब का बाग दिखाई दिया। उन्होंने बाग के स्वामी से जाकर कहा- 'आपके पेड़ से यह सेब गिरकर नदी में बहते-बहते मेरी कुटिया तक आ गया था, इसलिए मैं आपकी संपत्ति लौटाने आया हूँ।' वह बोला, 'महात्मा, मैं तो इस बाग का रखवाला मात्र हूँ! इस बाग की स्वामी राज्य की रानी है।' बाग के रखवाले की बात सुनकर साधू महात्मा सेब को देने रानी के पास पहुँचे। रानी को जब साधू के सेब को यहाँ तक पहुँचाने के लिए लम्बी यात्रा की बात पता चली तो वह बहुत आश्चर्यचकित हुई।


       उन्होंने एक छोटे से सेब के लिए इतनी लम्बी यात्रा का कारण साधू से पूछा। साधू बोले, 'महारानी साहिबा! यह यात्रा मैंने सेब के लिए नहीं बल्कि अपने जमीर के लिए की है। यदि मेरा जमीर भ्रष्ट हो जाता तो मेरी जीवन भर की तपस्या नष्ट हो जाती। साधू की ईमानदारी से महारानी बड़ी प्रसन्न हुई और उन्होंने साधू महात्मा को राजगुरु की उपाधि से सम्मानित कर उन्हें अपने राज घराने में रहने का निमंत्रण दिया। तो मित्रो! इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हमें हर परिस्थिति में ईमानदार रहना चाहिए क्योंकि ईमानदार व्यक्ति हमेशा सम्मान पाता है। । __- साभार-अन्तर्जाल संरक्षक मण्डल -


ईश्वर सर्वव्यापक है l 


       ईश्वर सर्वव्यापक है:- जैसा कि हमने पूर्व में लिखा है इस सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता एक ही है क्योंकि सर्वत्र रचना साम्य व नियम साम्य इस बात को प्रमाणित करते हैं। इसलिए सृष्टिकर्ता अर्थात् ईश्वर का सम्पूर्ण सृष्टि के कण कण में व्यापक होना आवश्यक है क्योंकि अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का होना संभव नहीं। सर्वत्र ईश्वर की क्रिया उसके सर्वव्यापक होने की द्योतक है।


ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक


नहि नु ते महिमनः समस्यनमघवन्मघवत्त्वस्य विद्म!


नराधसोराधसोनूतनस्येन्द्र नकिर्ददृश इन्द्रियं तेll -


       हे मनुष्यों! जिसकी महिमा के समान महिमा और ऐश्वर्य सामर्थ्य (किसी अन्य का) नहीं है, जिसका कोई आकार नहीं है, उसी सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर का तुम ध्यान करो।ईश्वर को सर्वव्यापक न मानने पर वह सर्वज्ञ व सर्वान्तर्यामी न । न रहेगा। ईश्वर को निष्पक्ष सर्वोपरि न्यायाधीश इसीलिए कहा जाता है कि वह व्यक्ति के मन के अन्दर छिपी बात को भी जानता है। वह कृत कमों का तो क्या वरन् जैसे ही व्यक्ति के मन में कोई विचार मात्र उठता है तुरन्त उसका साक्षी हो जाता है। इसी कारण सब कुछ यथार्थ रूप में जानने के कारण उसका न्याय कभी दूषित नहीं होता। उसे सर्वव्यापक न मानने से वह अनेक सन्दर्भो में अज्ञानी होने के कारण ईश्वर ही नहीं रहेगा। भगवती श्रति में तो ईश्वर को भूरिशःसर्वव्यापक ही माना है। 


ईशा वास्यमिदसर्व यत्किञ्च जगत्या जगत्


        इस जगत में जो कुछ भी है सबमें ईश्वर समाया है। श्वेताश्वेतरोपनिषद् में कहा है- जिस प्रकार दूध में घी अदृश्य रूप में विद्यमान रहता है उसी प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि में परमात्मा व्याप्त है। कुछ अन्य मनीषियों ने भी इसे स्वीकार किया है। निम्न उदाहरण दृष्टव्य हैंगोस्वामी तुलसीदास जी- हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम भगति प्रकटे सब जाना। संत कबीर- ज्यों तिल माँहि तेल है ज्यों चकमक में आगतेरा साँई तुझ में है, जाग सके तो जाग।। कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूढ़े वन माँहि। ऐसे ही घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि।। 


गीता- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति,


       आर्थात हे गीता- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति, 'अर्थात् हे अर्जुन! ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में रहता है।' पौराणिक भाईयों को कम से कम भगवान श्री कृष्ण की बात मानकर ईश्वर को सर्वव्यापक मानना और जानना चाहिये। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में सत्य ही लिखा है(ईश्वर) व्यापक है क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यायी, सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता, सबका स्रष्टा सबका धर्ता और प्रलयकर्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्ता की क्रिया का होना असम्भव है।


सर्वव्यापक-


       ईश्वर उपदेश करता है- 'मैं कार्यकारण युक्त संसार में व्याप्त हूँ। मेरे बिना एक परमाणु भी अव्याप्त नहीं है।


सर्वशक्तिमान-


       ईश्वर को सर्वशक्तिमान तो सभी ईश्वरवादी मानते हैं पर प्रायः धार्मिक सम्प्रदायों में इस सर्वशक्तिमत्ता को समस्त नियम कायदों से ऊपर माना है। उनकी दृष्टि में ईश्वर जो चाहे कर सकता है। अपने ही बनाए सारे नियमों को तोड सकता है। उदाहरण के लिए मत्य पश्चात जीव अपने कमों के अनसार परमात्मा की व्यवस्था में नवीन शरीर प्राप्त करता है। परन्तु परमात्मा को उक्त रूप में सर्वशक्तिमान मानने वालों ने अनेक दष्टान्त गढे हैं। जैसे कि मत्य पश्चात भी मृतक के सम्बन्धी भक्त ने जब ईश्वर से अनुनय विनय की, अपनी भक्ति का वास्ता दिया, प्रथम बार ही कुछ माँगने का वास्ता दिया तथा इच्छा पूर्ति न करने पर उसकी भक्ति सदैव के लिए छोड़ देने की धमकी दी तो ईश्वर ने मतक को जीवित कर दिया। इसी प्रकार इनके अनुसार ईश्वर की विशेष कृपा प्राप्त महामना कुछ भी कर सकते हैं चाहे उनके कार्य सृष्टि विज्ञान के प्रतिकूल ही क्यों न हों। ऐसे ही लोगों के ग्रन्थों में किसी के द्वारा सूर्य को निगलने का वर्णन है तो किसी के मनुष्य और मछली के संयोग से पैदा होने का, किसी के मात्र स्त्री से ही उत्पन्न होने का भी। किसी ने अंगली के इशारे से चन्द्रमा के टकडे कर दिये, कोई पृथ्वी को चटाई की तरह सिरहाने लगाकर सो गया। कोई मृत्यु के पश्चात् कब्र में से जीवित निकल समस्त अनुयाइयों के पापों का बोझ उठा सशरीर स्वर्ग चला गया आदि-आदि।


-अशोक आर्य 


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