संस्कार भूमिका

वैदिक सोलह संस्कार


भूषणभूत सम्यकीकरण को संस्कार कहते हैं। अर्थात् जिस क्रिया से शरीर, मन और आत्मा उत्तम हो उसे संस्कार कहते हैं। वैदिक सोलह संस्कार मानव जीवन निर्माण योजना है।
संस्कार बीज से कर्मवृक्ष का विस्तार होता है। संस्कार संस्कृति को जन्म देते हैं। संस्कृति का अर्थ है शोभामय सम्यक् कृति। मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक सर्वाभ्युदय के अनुकूल आचार-विचार ही संस्कारमय वर्णाश्रम प्रणाली का उद्देश्य है। संस्कार रूपी क्रिया से मनुष्य का शरीर और आत्मा सुसंकृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। शरीर और आत्मा सुसंस्कृति भावना संस्कार प्रारम्भ में ही है, जब संस्कारी और संस्कारकर्ता ब्रह्म हमारा बिछौना ओढ़ना हो कहकर सत्य, यश, श्री, समृद्धिपूर्ण जीवन की कामना करता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि ग्रन्थ में सोलह संस्कारों का विधान किया है। जिनमें तीन गर्भावस्था सम्बन्धित, आठ ब्रह्मचर्यावस्था सम्बन्धित, दो गृहस्थावस्था सम्बन्धित, एक वानप्रस्थ तथा एक संन्यास सम्बन्धित है एवं अन्तिम संस्कार मरणोपरान्त पार्थीव शरीर पर किया जाता है।


वे सोलह संस्कार निम्न हैं-


(1) गर्भाधान संस्कार, (2) पुंसवन संस्कार, (3) सीमन्तोन्नयन संस्कार, (4) जातकर्म संस्कार, (5) नामकरण संस्कार, (6) निष्क्रमण संस्कार, (7) अन्नप्राशन संस्कार, (8) चूडाकर्म संस्कार, (9) कर्णवेध संस्कार, (10) उपनयन संस्कार, (11) वेदारम्भ संस्कार, (12) समावर्त्तन संस्कार, (13) विवाह संस्कार, (14) वानप्रस्थ संस्कार, (15) संन्यास संस्कार, (16) अन्त्येष्टि संस्कार।


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