“ सन्नाटा सुन लो सर्दी का “
अभी पूस की रात, ज़रा
सन्नाटा सुन लो सर्दी का।
फटे फूस के छप्पर में जब,
हाड़ काँपते ठिठुरन से।
जालीदार रज़ाई में तब,
नर्त्तन हो बेदर्दी का।
अभी पूस की रात ज़रा,
सन्नाटा सुन लो सर्दी का।
नींद भरी है आँखों में पर,
स्वप्न नहीं सोने देते।
शायद कोई, गीत गुनगुनादे,
आकर हमदर्दी का।
अभी पूस की रात जरा,
सन्नाटा सुन लो सर्दी का।
फ़ुरसत कहाँ सियासतदाँ को,
सुध ले इन बेकदरों की।
ये भी कोई वक़्त और,
क्या मौसम है सिरदर्दी का।
अभी पूस की रात ज़रा,
सन्नाटा सुन लो सर्दी का।
गाँवों, कसबोँ,नगरोँ में,
बेदर्द नजारे भरे पड़े।
कफ़न खसोटोँ की दुनिया है,
चलन यहाँ खुदगर्जी का।
अभी पूस की रात जरा,
सन्नाटा सुन लो सर्दी का।
ऐसी वैसी बात कभी हो,
शुरु सियासत हो जाती।
अपना अपना मतलब छाँटे,
हो फ़र्ज़ी, पर मर्जी का।
अभी पूस की रात जरा,
सन्नाटा सुन लो सर्दी का।