संकल्पपर्व हैं विजयादशमी और दीपमालिका

संकल्पपर्व हैं विजयादशमी और दीपमालिका



      विजयादशमी आसुरी शक्ति-प्रवृति और मानवीय मूल्यों के क्षरण में संलग्न दाम्भिक आचरण के वाहक के दम्भ-दलन का प्रेरक पर्व है तो संकल्प का पर्व है दीपमलिका। एक संप्रभु, स्वतन्त्र और विश्व में गरिमापूर्ण राष्ट्र के रूप में इस महान भारत, आर्यावर्त हिन्दुस्थान की विद्यमान स्थिति के आकलन की भी यह बेला है। बीते का हिसाब और भविष्य का ख्वाब, यह परिपाटी दीपपर्व से सम्बद्ध है। इतिहास के पन्नों में सुरक्षित है यह प्रेरक गाथा कि विजयादशमी ही अपने उस प्रेरक इतिहास का स्मरणीय दिवस है, जब सहस्रों वर्षों पूर्व आतंकवाद, अन्याय, अत्याचार और मर्यादाओं की अवहेलना के प्रतीक रावण पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने निर्णायक विजय का वरण किया था। जबकि दीपमलिका का पर्व स्मृति दिलाता है इस प्रेरक गाथा की कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम वनवास की अवधि बिता कर उसी अवधि में अन्याय, अनीति, आतंकवाद, दुर्नीति, दम्भ तथा असत्य की शक्तियों के समुच्चय लंकेश को परास्त कर, विजयोत्सव मनाने के पश्चात् अयोध्या लौटे थे। न्याय, सत्य और ज्ञान की विजय के सूत्रधार तथा आसुरी संस्कृति के मेरुदंड पर वज्रप्रहार करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आगमन की उस प्रेरक बेला में अयोध्या के हर गृह-आंगन, डगर आर वीथिका में जल उठे थे असंख्य दीप। अमावस्या के गहन अंधकार को दीपों की कतारों ने चुनौती दी थी और धरा पर साकार हुआ था वेद का आह्वान 'तमसो मा ज्योतिर्गमय।'


       आर्य जाति के महान उन्नायक महर्षि दयानन्द ने भी अग-जग में व्याप्त अंधकार को विदीर्ण करने के उपरान्त स्व-कर्त्तव्य की पूर्ति का समाधान लिए, अपनी नश्वर काया का अजयमेरू (अजमेर) में परित्याग इसी दिन किया था। यही संदेश दिया था उन्होंने अपने अनुयायियों को कि "लौटो वेदों की ओर।" वेदप्रदर्शित पथ के अनुगमन में ही विश्वबंधुत्व की भावना को वास्तविक अर्थों में व्यावहारिक रूप देने का बल निहित है। साथ ही उन्होंने अपनी महाप्रयाण बेला में अपने अनुरक्त जनों से किया था यह आह्वान भी "खिड़कियां खोले रखना।" उनके इस आह्वान का तात्पर्य यही था कि कूप-मंडूकता की प्रवृत्ति से सर्वथा मुक्त होकर वेद का पावन, प्रेरक ज्ञान, विश्व के भ्रान्त, क्लान्त और अशान्त, मानव को प्रदान करें, अपने दायित्व का निर्वहन करते रहें।


       आतंकवाद का अजगर अपनी फुकार से समग्र राष्ट्र को दग्ध करने को आतुर है। देश की राजधानी दिल्ली में भी हुए विस्फोट पर राष्ट्र के लिए विकट संकट की घंटा-ध्वनि हैअक्तूबर 2005 को, दिल्ली में बम विस्फोट के पश्चात् इस 13 सितम्बर को हुए बम धमाके यही दर्शाते हैं कि देश का सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र अभी भी आतंकवादी रावण के प्रहारों से सर्वथा महफूज नहीं है। उसके इन्डियन मुजाहिदीन और सिमी जैसे मुखौटे, जिहादी आंतकवादी खुद को एक मजहबी प्रतीक के रूप में स्थापित करने का प्रयास करते हैं, इसलिए उन्हें मजहबी उन्मादियों का भी आसानी से सहारा मिल जाता है। घटनाक्रम गवाह है कि भारत आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित देशों में अग्रगण्य है।


       विजयदशमी का पावन पर्व भारत के शांति-सौख्य के यज्ञ का विध्वंसन करने के नापाक इरादों में संलग्न इस युग के दशकन्धर (आतंकवाद) के उन्मूलन की स्मृति तो दिलाता ही है, साथ ही यह पूर्व इस लक्ष्य की सिद्धि का पथ भी स्मरण कराता है कि श्रीराम ने लंकेश के क्लेश से निरीहजन को मुक्त कराने के लिए वनवासियों और सामान्य जन की सहयोग प्राप्ति का अभियान चलाया थाआज भी आंतकवाद की महाव्याधि से स्वदेश को मुक्ति दिलाने के उससे संघर्ष हेतु सामूहिक समन्वित प्रयास और उसकी सफलतार्थ जन-जागरण अपेक्षित है। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि आतंकवादी घटनाओं में निरीह जन ही मारे जाते हैंऐसी हर घटना के बाद सत्तासीन जन का बयान आता है कि हमें आंतकवाद का सामना दृढ़ता से करना है। प्रश्न उपस्थित है कि आखिर कब तक देश के सामान्य जन इस तरह के भय के साए में दिन गुजारने को विवश रहेंगे। आतंकवाद वस्तुतः भारत और उस के नागरिकों के विरुद्ध जंग है। इस तथ्य की गम्भीरता हमारी सरकार को जितनी शीघ्र महसूस होगी, उतना ही शुभ होगा। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के दिशा दान का अनुगमन ही युग की मांग है। ऐसे शत्रु को ठिकाने लगाना ही महायज्ञ है, जो हमें मिटाने को आतुर है। समय की पुकार है कि हमारे नेता किसी भी किस्म की राजनीति से ऊपर उठे और राष्ट्र की अखडंता और सम्प्रभुता के रक्षार्थ कठोर कदम उठाने की आवश्यकताअनुभूत करें। सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि आतंकवाद के विरुद्ध कठोर कानून बने और उस पर पूरी तत्परता, दृढ़ता और सतर्कता सहित अमल हो। एक दूसरे पर दोषारोपण की प्रवृत्ति का परित्याग किया जाए और आंतकवाद के मुद्दे पर हमारा मानस द्वन्द्वरहित हो। यह मानकर चलें कि आतंकवाद का खात्मा करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहींविजयदशमी पर्व पर रावण के पुतले को अग्निदाह के लिए आग्नेयवाण का उपयोग भी यही संदेश देता है कि वर्तमान दशकन्धर (आतंकवाद) से निपटने का ब्रह्मास्त्र कठोर कदम उठाना ही है।


      विजयदशमी पर्व के पश्चात् आने वाला दीपोत्सव-देव दयानन्द का निर्वाण दिवस भी हर राष्ट्रभक्त क्या कर रहा है का हम संकल्प ग्रहण कर राष्ट्र को संतप्त कर रहे भ्रान्त माहौल के स्थान पर वास्तविक अर्थ में सव पंथ समभाव के प्रेरक वायुमंडल का सृजन करें।


      माटी, गारे से बने कुटीरों से अट्टालिकाओं तक में जगमग दीप पंक्तिका के साथ ही हम एक और दीपक जलाएं, जो हमारे इस संकल्प का परिचायक हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मदायिनी यह धरा, यह नमन की वसुन्धरा, परकीय प्रभावों के वशीभूत तथाकथित बुद्धिजीवियों के चिन्तन पर पड़ी तुष्टीकरण की छाया से मुक्त हो। उस काली छाया के निवारण का हम व्रत लें जिससे आच्छादित उपनेतों में राष्ट्रीयता का अहसास होता है। सत्य दृष्टि से राष्ट्र को चैतन्य बनाने का दायित्व उनके द्वारा प्रदत्त दायित्वों की पूर्ति हेतु कर्मक्षेत्र में सक्रियता के निर्वहन में नये संकल्प के साथ जुटने का भी आह्वान है। साम्प्रदायिकता के जिस अजगर की फुकारों से आज समग्र राष्ट्र दग्ध है। कुछ शक्तियाँ राष्ट्र के वनवासियों को विदेशी संस्कृति के प्रसार के लिए फसल के तौर पर पेश कर रही हैं, उनसे सजगता समय की पुकार है।


      वेद 'वसुधैव कुटम्बकम्' का उद्गाता है साथ ही कृण्वन्तो विश्वमार्यम् अपघ्नातः रावणः का नाद भी गुंजाता है। हमें आज दीप जलाना होगा इस संकल्प का कि जो भी इस देश की माटी के प्रति ममता रखता है, वह चाहे किसी जाति, पन्थ, मत, मतान्तर, मजहब का अनुयायी हों, वह सहोदर तुल्य है। हमें करना होगा संकल्प कि (जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी) का जो संदेश हमें श्रीराम ने दिया था, वही हमारे व्यवहार का आधार बनेगाहमें आरक्षण की चाह के स्थान पर राष्ट्र और भारतीय मर्यादा तथा संस्कृति के रक्षण हेतु भारतभूमि के कण-कण के प्रति आस्था और श्रद्धा का भाव जगाना होगातभी भारत एक अजेय राष्ट्र का रूप प्राप्त कर विश्व रंगमंच पर अपने उस दायित्व का निर्वहन कर सकेगा जो इस उद्घोष में निहित है “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः''।


आओ फिर हम दीप जलाएं


किन्तु तथ्य ये भूल न जाएं


      दीपोत्सव का पर्व राष्ट्र में एकता की शाश्वत भावना को सम्पुष्ट करने वाली घड़ी हैइस अवसर पर हमें स्मरण रखना होगा, गुजरात, राजस्थान व बिहार के उन बाढ़-पीड़ित सहस्रों आबाल वृद्ध नर-नारियों का जो दुश्वारियां झेल रहे हैं। उचित यही होगा कि हम अपने परिवारों में अतिशबाजी और पटाखों पर होने वाले व्यय में से कुछ न कुछ बचाकर उन पीडित बन्धुओं के सहायतार्थ भिजवाएं और उनकी पीड़ा को किसी न किसी सीमा तक कम करने में सहयोग दें। सन्त तुलसी की यह उक्ति हमारी प्रेरणा बने :-


परहित सरस धरम नहीं भाई, पर-पीड़ा सम नहीं अधमाई।


      तुलसी ने अपने इन शब्दों में धर्म का जो मर्म बताया है, वह हमारी प्रेरणा बने। साथ ही इस अवसर पर हम अपने उन बन्धुओं को भी स्मरण करें जो बांग्लादेश में पीड़ा और वेदना का भी जीवन जी रहे हैंजिन उत्पीड़न और दारुण की करुण कहानियों ने तसलीमा नसरीन सरीखी लेखिकाओं को भी गमगीन कर दिया है। बांग्लादेश में अल्पसंख्यक होने की त्रासदी भोग रहे उन हिन्दू जन का करुण क्रन्दन हिन्दुत्व के प्रति आस्थावान हर हृदय को द्रवित कर रहा हैहर्षोल्लास के इस पर्व पर हम दीप जला रहे हैं तो वे अपनी धार्मिक निष्ठाओं को कायम रखने में भी असमर्थ से हुए जा रहे हैं। हिन्दुत्व तो "सर्वे भवन्तु सुखिनः' की कामना करता है। हम वन्दन के इन क्षणों में उनका भी स्मरण करें और कामना करें कि वे तिमिराच्छन्न वर्तमान से सुखद भविष्य की ओर बढ़ने में समर्थ हों। हम विश्व-जनमत को उनकी पीड़ा से अवगत कराने का अपना मानवीय दायित्व निभाने का भी इस पावन पर्व पर व्रत लें।


      राष्ट्र के समक्ष चुनौतियों का चक्र दिन-प्रतिदिन उग्रता पा रहा है। भारतभूमि के अभिन्न अंग कश्मीर की केसर-क्यारियों में पाकिस्तान के क्रीतदास अंगारे बिछा रहे हैं, उस नन्दनवन में साम्प्रदायिकता का दावानल भड़का रहे हैं। घाटी के लाखों हिन्दू अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर बाध्य हुएउनका दोष मात्र यही है कि उन्होंने भारतीय राष्ट्र के प्रति अपनी अनन्यनिष्ठा का प्रदर्शन किया और इस महान देश की सांस्कृतिक धारा से स्वयं को हर प्रकार के दबाव और प्रमाद के बावजूद पृथक् करने से इन्कार कर दिया है। उनकी व्यथा-कथा हमारे अन्तर्मन को उद्वेलित और आन्दोलित कर रही है। देश के पूर्वांचल में भी इस देश का खाकर भी इसकी विरुदावलि न गाकर विदेशी साम्राज्यवादियों के स्वर-ताल में अपनी ताल मिलाने वाले अनेक घर के भेदी दुरभिसंधियों में संलग्न हैं।


        यह सारा परिदृश्य किसी भी राष्ट्रभक्त भारतीय के हृदय में टीस अवश्य ही उभारता है। फिर भी हमें पर्व तो मनाना ही है। अमावस्या के गहन अन्धकार को चुनौती देने का वह दृढ़ संकल्प दोहराना ही है, जो 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के वैदिक आह्वान का प्रतिदान है। हमारा यह राष्ट्र प्रकाश का उपासक हैहमारे पर्वजों ने हमें यही तो संदेश दिया है कि अन्याय, अत्याचार और अनाचार की शक्तियों से सतत संघर्ष ही तुम्हारी जीवन विधा है। संसार में जहां भी अभाव या अन्याय है, उसके विरुद्ध उठना ही तो हमारी परिपाटी है। दीपोत्सव का यह पावन पर्व हमारे समक्ष इतिहास के अनेक दृष्टान्त दोहराता हुआ आता है, जो अस प्रकाश तथा अन्याय पर न्याय की अन्तिम विजय के परिचायक हैं।


       वैदिक संस्कृति प्रकाश की पुजारी है। सदियों से चली आ रही यह दीपवर्तिकाएं सजाने की परिपाटी इसी सत्य की द्योतक है। आर्यसमाज के संस्थापक देव दयानन्द भी अपना जीवन दान करते समय हमें यह सन्देश दे गए थे कि खिड़कियां खोल दो, मेरे पीछे आओ। वस्तुतः उनका यह आह्वान ज्ञान-विज्ञान की साधना। और सत्य सिद्धान्तों के अनुगमन का ही आह्वान था। हमें इस दीपमालिका पर्व पर स्मृति उन अनेक महापुरुषों की भी आती है, जिनकी जीवन स्मृतियां इस पर्व के साथ जुडी हैं। हमें स्मरण आता है स्वामी रामतीर्थ का, तो गौतम बुद्ध और महावीर तथा गुरु गोविन्दसिंह की स्मृतियां भी इस पर्व के साथ गुंथी हैं। इन सभी महापुरुषों ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मदायिनी इस महान भूमि में मानव-हितसाधक उन महान सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया था जो वैदिक संस्कृति का मूलमन्त्र हैं।


      आओ, इस संकल्प की बेला में, स्वदेश की परिस्थितियों का सांगोपांग विवेचन और चिन्तन कर 'एक हृदय हो भारत जननी' की भावना को साकार करने के लिए अपने-अपने घर आंगन में दीप जलाएं, साथ ही स्मरण रखें कि दीपोत्सव ज्ञान की उपासना और अन्याय के अन्धकार को छिन्न-विच्छिन्न करने का मंगल पर्व हैइस पूर्व का अन्तिम लक्ष्य एक ऐसे विश्व का सृजन है जिसमें बलिष्ठ भारत विभ्रान्त मानवता को अन्धकार से प्रकाश की राह दिखाए और “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः" का पावन उद्घोष सार्थक सिद्ध हो जाए।


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