संपादकीय राजवीर कदंब,काव्यमेध यज्ञ महान्।

संपादकीय राजवीर कदंब,काव्यमेध यज्ञ महान्।
प्रज्ञासृजित काव्य को,किया संगम संस्थान।।
कविता को पूजा जिसने,सच्चा वह इंसान।
ना जानें क्यूँ भ्रम में है,नहीं मधुुर मुस्कान।।
अंतस अभिलाषा जगाओ,हिय में रखो पहचान।
किस्मत की लकीरें स्वयं बना,जीवन पथ का करें निर्मान।।
मिलें फरिश्ता तभी उनको,हो कुदरत की कृृपा जान।
नारीत्व की करो रक्षा,कभी करो न उनका अपमान।
वह घर सुंंदर स्वर्ग बने,जहाँ मिले उन्हें सम्मान।
"जुबां" काव्य से बोध मिले,मुख से बोलो तौल बान।
कैंची सी मत चलाओ उसे, अंकुश लगाओ जुबान।।
मेह कागज की नाव,और रिश्वत की मार।
माँ ममता की वात्सल्य मूर्ति है,अश्रु बहाती बार-बार।।
मानव ही मनव का शत्रु बना,हुआ हृदय अभिमान
दया प्रेम का भाव जगाओ, ने क बनो सभी इंसान।।


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