ऋषि वाणी

ऋषि वाणी



       *यह जो यज्ञशाला है यह त्याग की भावना देती है।
       *जितने भी हमसुन्दर कार्य करते हैं वह यज्ञ कहलाते हैं।
       *कर्त्तव्य को लेकर जो कार्य किया जाता है वह यज्ञ कर्म सर्वश्रेष्ठ कहलाता है।
       *निष्काम यज्ञ श्रैष्ठ होता है।
       *मन वचन और कर्म के द्वारा हम सुन्दर-सुन्दर यज्ञ कर्म करते चले जाएं।
       *यज्ञ वह पदार्थ है जो मनुष्य का परमात्मा से मिलन कराता है।
       *यज्ञ करो ऐसा सुन्दर करो, ऐसी आन्तरिक भावनाओं से करो कि तुम्हारा मिलान परमात्मा से हो जाए।
      *इस मिलान के लिए भौतिक यज्ञ के साथ-साथ हमें आत्मिक यज्ञ भी अवश्यमेव करना चाहिए।
      *जब हम काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह सब की सामग्री बना लेते हैं-और ज्ञान रूपी अग्नि में आत्मिक यज्ञवेदी में भस्म कर देते हैं उस समय हमारा आत्मिक यज्ञ हो जाता है।
      * हमारा जीवन जो परमात्मा ने रचा है वह तप, त्याग और दान द्वारा यज्ञ कर्म करने के लिए रचा है।
      *आज हमें ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए कि भोग हमें भोग लें।
        जैसे जल से तृषा शान्त हो जाती है उसी प्रकार ज्ञान के निध्यासन से हमारे मल विक्षेप आवरण शान्त हो जाते हैं।
      *मनुष्य सब कुछ देखो परमात्मा के अर्पण कर देता है, उस मनुष्य का हृदय निर्मल और स्वच्छ हो जाता है।
       सन्ध्याके शाश्वत एवं सात्त्विक  समर्पण केअनुकरण से मनुष्य का हृदय निर्मल और स्वच्छ बनाने जाता है।
       आत्मा की व्याहृतियों को जानने वाले कोदेवता* कहते हैं।
        संसार में दूसरों के कल्याण की भावना जिनके हृदयों में रहती हैं,वे *देवताकहलाते हैं।
     *वेद पर के पथिक बनें।


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