‘ऋषि दयानन्द के पत्रों की संग्रहकर्ता व प्रकाशक विभूतियां’
'ऋषि दयानन्द के पत्रों की संग्रहकर्ता व प्रकाशक विभूतियां'
महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से आर्ष ज्ञान व शिक्षा का अध्ययन कर संसार से अज्ञानान्धकार वा धार्मिक तिमिर का नाश करने के लिए वेद प्रचार का कार्य किया। इसके लिए उन्होंने मौखिक उपदेश, प्रवचन व व्याख्यानों सहित वार्तालाप व शास्त्रार्थ और अपनी विचारधारा व मान्यताओं के ग्रन्थों का प्रकाशन किया जिनमें प्रमुख सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, वेदभाष्य आदि हैं। इन कार्यों को करते हुए आप स्थान-स्थान की यात्रायें भी करते थे और लोगों से पत्रव्यवहार भी करते थे। नये स्थानों पर जाकर लोगों को जानकारी देने के लिए विज्ञापन प्रकाशित कर उनको उपदेशामृत का पान कराने व शंका-समाधान सहित शास्त्रार्थ आदि की चुनौती भी दिया करते थे। उनके ग्रन्थों की ही भांति उनके पत्रों एवं विज्ञापनों का भी अपना विशिष्ट महत्व है जिससे उनके जीवन की घटनाओं, निजी विचारों व ऐसी घटनाओं व समस्याओं आदि पर प्रकाश पड़ता है जिनका उल्लेख उनके साहित्य व किसी अन्य प्रकार से प्राप्त नहीं होता। इससे उनके सम्पर्क में आये लोगों सहित उनके यात्रा कार्यक्रमों की जानकारी भी मिलती है। यह हमारा सौभाग्य है कि आज पं. लेखराम, महात्मा मुंशीराम वा स्वामी श्रद्धानन्द जी, श्री पण्डित भगवद्दत्त जी, श्री महाशय मामराजजी, श्री पं. चमूपति जी एम.ए. और पं. युधिष्ठिर मीमांसक महामहोपाध्याय के प्रयत्नों से एकत्रित, सम्पादित वा प्रकाशित उनके पत्रों, विज्ञापनों आदि की एक विशाल राशि चार खण्डों में उपलब्ध है।
पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास लिखा है। यह अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य हो गया है। आर्यसमाज में महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन आर्यसमाज की स्थापना के काल से ही प्रभावित होता आ रहा है। इसी कारण अनेक ग्रन्थ प्रकाश में ही नहीं आ पाये व आ पाते हैं। आशा करते हैं कि इस ग्रन्थ का निकट भविष्य में प्रकाशन हो सकेगा? यह भी उल्लेखनीय है कि आर्यसमाज में दिन प्रतिदिन स्वाध्याय के प्रति लोगों की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। यह मुख्य बाधा है साहित्य के प्रकाशन की। यदि साहित्य बिकेगा नहीं तो छपेगा भी नहीं। वही साहित्य छपा करता है जिसको पाठक पसन्द करते हैं वा जिसकी बिक्री होती है। यही सिद्धान्त आर्य वैदिक साहित्य पर भी लागू होता है, अस्तु। आज हम इस लेख में महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापनों की खोज कर उन्हें सुरक्षित करने व प्रकाश में लाने वाले महर्षि दयानन्द के कुछ महान अनुयायियों का वर्णन कर रहे हैं जिसका आधार पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी का ग्रन्थ 'ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास' है।
ऋषि दयानन्द के पत्रों व विज्ञापनों के प्रथम व मुख्य संग्रहकर्ता महर्षि दयानन्द की मुख्य व विस्तृत जीवनी के लेखक पं. लेखराम जी हैं। इनका परिचय देते हुए मीमांसक जी ने लिखा है कि श्री पण्डित लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द के जीवनचरित लिखने के लिए प्रायः समस्त उत्तर भारत में भ्रमण किया था। उन्होंने ऋषि के जीवन की घटनाओं के संग्रह के साथ-साथ ऋषि के लिखे हुए पत्रों और विज्ञापनों तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा ऋषि दयानन्द के प्रति लिखे गये पत्रों और विज्ञापनों का भी संग्रह किया था। वह संग्रह उनके द्वारा संकलित उर्दू भाषा में प्रकाशित ऋषि दयानन्द के वृहद् जीवनचरित में प्रसंगवश यत्र तत्र छपा है। यह जीवनचरित ऋषि दयानन्द जीवन से सम्बद्ध घटनाओं और दस्तावेजों का ऐसा अपूर्व संग्रह है कि इसके विना अगला कोई भी चरित–लेखक एक कदम भी नहीं चल सकता। इस ग्रन्थ का आर्यसमाज नया बांस, दिल्ली क सत्प्रयास से सम्वत् 2028 में आर्यभाषानुवाद भी प्रकाशित हो गया है। इसके बाद से यह ग्रन्थ यहां से प्रकाशित होता आ रहा है और हमारी जानकारी के अनुसार यह अब भी उपलब्ध है।
महर्षि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों के दूसरे प्रमुख संग्रहकर्ता, सम्पादक व प्रकाशक श्री महात्मा मुंशीराम वा स्वामी श्रद्धानन्द जी थे। पण्डित मीमांसक जी ने उनका परिचय देते हुए लिखा है कि श्री स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी का पूर्व नाम महात्मा मुन्शीराम था। उन्होंने ऋषि दयानन्द के अन्यों के नाम लिखे गये तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा ऋषि को लिखे गये उभयविधि पत्रों का संग्रह किया था। उनमें से कुछ पत्रों को उन्होंने पहले 'सद्धर्म प्रचारक' के सम्वत् 1966 के कुछ अंकों में प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् सम्वत् 1966 में ही उन्होंने ''ऋषि दयानन्द का पत्रव्यवहार” (प्रथम भाग) नाम से कुछ पत्रों का संग्रह छपवाया था। यद्यपि इस संग्रह में ऋषि के अपने लिखे हुए पत्र बहुत स्वल्प हैं, अधिकतर पत्र ऋषि के नाम भेजे गए विभिन्न व्यक्तियों के हैं, तथापि यह संग्रह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस संग्रह की भूमिका से विदित होता है कि श्री महात्मा मुन्शीरामजी के पास और भी बहुत से पत्रों का संग्रह था। जिसे वे 'द्वितीय भाग' में छापना चाहते थे। परन्तु अपने को ऋषि–भक्त मानने वाले आर्यजनों का सहयोग न मिलने से दूसरा भाग नहीं छप सका। अवशिष्ट पत्रों के संग्रह की क्या दशा हुई, इसका हमें काई ज्ञान नहीं। अवशिष्ट पत्र प्रकाशित न हो सके और सम्भवतः वह नष्ट हो गये, यह आर्यसमाज के लिए अपमानजनक होने के साथ पीड़ादायक भी है।
पत्र और विज्ञापनों के संग्रह व प्रकाशन-सम्पादन में श्री पण्डित भगवद्दत्त जी की प्रमुख भूमिका है। आपने सम्वत् 1972 से ऋषि दयानन्द के पत्रों और विज्ञापनों तथा ऋषि के जीवन कार्य से सम्बन्ध रखने वाली विविध सामग्रियों का अनुसन्धन तथा संग्रह प्रारम्भ किया। उन्होंने सम्वत् 1975, 1976, 1983, 1984 में क्रमशः चार भागों में ऋषि के स्वलिखित 246 पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह प्रकाशित किया। इसके अनन्तर भी वह शनैः शनैः इसी कार्य के अनुसंधान में लगे रहे। सम्वत् 2002 तक उन के पास ऋषि दयानन्द के लगभग 500 पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह हो गया था। माननीय पण्डित भगवद्दत्त जी ने उपलब्ध समस्त पत्रों और विज्ञापनों का तिथि क्रम से सम्पादन करके रामलाल कपूर ट्रस्ट लाहौर के द्वारा उनको प्रकाशित किया। यह संग्रह 'ट्रस्ट' ने सम्वत् 2002 में 20×30 अठपेजी आकार के 550 पृष्ठों में छपवाकर प्रकाशित किया था। माननीय पण्डित जी ने ऋषि दयानन्द का प्रमाणिक जीवन चरित लिखने के लिए भी बहुत सी सामग्री पत्रों के अनुसन्धान काल में संगृहीत कर ली थी और वे उसे व्यवस्थित करना ही चाहते थे कि सम्वत् 2004 में देश-विभाग-जनित भयंकर उपद्रवों में वह सम्पूर्ण महत्वपूर्ण सामग्री माडल टाउन, लाहौर में उनके घर में ही छूट गई। उसके साथ ही ऋषि दयानन्द के हस्तलिखित शतशः असली पत्र और ऋषि के नाम आये हुए अन्य व्यक्तियों के पत्र नष्ट हो गये। आर्यसमाज के इतिहास मे यह एक ऐसी दुःखद घटना है कि जिसका पूरा होना सर्वथा असम्भव है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि श्री माननीय पण्डित जी के पास ऋषि के द्वारा लिखे हुए जितने प़त्र और विज्ञापन संगृहीत थे, वे देश–विभाजन से कुछ काल पूर्व ही रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हो गये थे और उसकी कुछ कापियां बाहर निकल चुकी थी। अन्यथा आर्य-जाति ऋषि के इन महत्वपूर्ण पत्रों से भी सदा के लिए वंचित रह जाती और माननीय पण्डित जी का सारा परिश्रम निष्फल जाता। पण्डित मीमांसक जी ने इन पंक्तियों में इतिहास की दुर्लभ सामग्री संग्रहित कर हमें प्रदान की है जिसके लिए सारे आर्यजगत को उनका ऋणी होना चाहिये। हमें दुःख है कि आर्यसमाज उनके जीवनकाल में उनका वह सत्कार नहीं कर सका जिसके कि वह अधिकारी थे।
महर्षि दयानन्द के पत्रों व विज्ञापनों के संग्रह में श्री महाशय मामराज जी का महत्वपूर्ण योगदान है। श्री महाशय मामराजजी खतौली जिला मुजफफरनगर के निवासी थे। आप के हृदय में ऋषि दयानन्द के प्रति कितनी श्रद्धा भरी थी, यह वही जान सकता है, जिसे उनके साथ कुछ समय रहने का सौभाग्य मिला हो। वे ऋषि के कार्य के लिए सदा पागल बने रहते थे। श्री पण्डित भगवद्दत्तजी ने पत्रों का जो महान् संग्रह किया था, उसमें अपका बहुत बड़ा भाग है। आपने जिस धैर्य और परिश्रम से ऋ़षि के पत्रों की खोज और संग्रह का कार्य किया है, वह केवल आप के ही अनुरूप है। यदि श्री पण्डित भगवद्दत्तजी को आप जैसा कर्मठ सहयोगी न मिलता तो वे कदापि इतना बड़ा संग्रह नहीं कर सकते थे। आपने भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी पुरानी सामग्री क वृहत् संग्रह किया था और उसका अधिक भाग श्री पण्डित भगवद्दत्तजी के ही पास माडलटाउन (लाहौर) में रक्खा हुआ था। अतः इनका बहुत सा संग्रह भी वहीं नष्ट हो गया। इन पंक्तियों को पढ़कर इन पंक्तियों के लेखक को महर्षि दयानन्द विषयक एक-एक पत्र व उसके शब्दों की महत्ता का अनुभव होता है। हम इन पत्रों का महत्व जाने या न जानें व उपेक्षा भी करे तथापि इन सभी महापुरूषों का समस्त आर्यजगत ऋणी है और सदा रहेगा।
महर्षि दयानन्द के पत्रों के संग्रह में एक मुख्य नाम पं. चमूपति जी एम.ए. का भी है। श्री पण्डित चमूपति जी को ठाकुर किशोरीसिंह से ऋषि दयानन्द के पत्रव्यवहार का एक बहुमूल्य संग्रह प्राप्त हुआ था। उसमें ऋषि दयानन्द के तथा अन्यों के ऋषि के नाम लिखे हुए लगभग 172 पत्रों का संग्रह था। उसे उन्होंने सम्वत् 1992 (सन् 1935) में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित किया था। इस संग्रह में ऋषि दयानन्द के अन्तिम समय के राजस्थान के विश्ष्टि व्यक्तियों से सम्बद्ध पत्र हैं। इस दृष्टि से यह संग्रह अत्यन्त महत्वूपूर्ण है।
पं. भगवदत्तजी के बाद ऋषि दयानन्द के पत्र औश्र विज्ञापनों के सम्पादन का सबसे अधिक सराहनीय व योग्यतापूर्वक कार्य यदि किसी ने किया है तो वह पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी हैं। आर्यसमाज उनका चिऱऋणी है। आपने महर्षि दयानन्द के सभी पत्रों, उनके द्वारा व उनको लिखे गये पत्रों सहित, समस्त विज्ञापनों का समावेश चार भागों में रामलाल कपूर ट्रस्ट से प्रकाशित स्वसम्पादित ग्रन्थ में किया है। इसे ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों का अब तक का सर्वांगपूर्ण सुसम्पादित संस्करण कह सकते हैं। आर्यसमाज की यह एक महानिधि है जिसमें ऋषि दयानन्द की आत्मा विद्यमान हैं। इसके अध्ययन का अपना अलग ही महत्व है। आर्यसमाज में इस ग्रन्थ की जितनी खपत व उपयोग होना चाहिये था, ऐसा हुआ नहीं दीखता। आर्यसमाज के विद्वानों को आर्यों में स्वाध्याय के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए ठोस प्रयास करने चाहिये अन्यथा आर्यसमाज का विशाल साहित्य भविष्य में सुरक्षित न रह सकेगा, इसमें सन्देह नहीं है। यह ऐसा ही होगा जैसा महाभारत काल क बाद वेदों की अप्रवृत्ति से हुआ और कठिनता से महर्षि को वेद प्राप्त हुए थे। वेदों व आर्ष साहित्य के अध्ययन सहित ऋषि ग्रन्थों व पत्रव्यवहार के अध्ययन का अपना ही महत्व है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के महर्षि दयानन्द जी के साहित्य के प्रति किये गये कार्यों को हम श्रद्धापूर्वक स्मरण कर उनका कृतज्ञता पूर्वक अभिनन्दन करते हैं और आर्यों से अनुरोध करते हैं कि वह रामलालकपूर ट्रस्ट, रेवली, सोनीपत, हरयाणा से पं. मीमांसक जी द्वारा सम्पादित पत्र और विज्ञापनों के संस्करण को मंगाकर उसे मननपूर्वक आद्योपान्त पूरी श्रद्धा से पढ़े। हमारी जानकारी में यह भी आया है कि परोपकारिणी सभा ने भी ऋषि के पत्रों और विज्ञापनों का नया संस्करण प्रकाशित किया है। इसका सम्पादन आर्य विद्वान श्री वेदपाल जी ने किया है। इस संस्करण को मीमांसक जी के संस्करण का ही नया रूप कह सकते हैं।
हमने आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द जी के पत्र और विज्ञापनों का पाठकों को किंचित परिचय देने का प्रयास किया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इनका सदुपयोग करेंगे और महर्षि दयानन्द के वैदिक धर्म व संस्कृति को योगदान को सर्वत्र प्रचारित करेंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य