रात्रि ,नींद में

रात्रि के अंतिम प्रहर में,नींद नैनों से नदारद
फिर तुम्हारी याद आई फिर तुम्हारी याद आई


हर तरफ था  मौन पसरा 
जबकि सांसें चल रही थी
कोई    मानेगा   नहीं   मैं 
चांदनी  में  जल  रही थी


ये अभागा मन तुम्हारी याद में हर बार रोया 
पर मेरी आवाज़ तुम तक चाहकर भी जा न पाई


प्राण! स्मृति ही तुम्हारी
आज मुझको ठग रही थी
पूर्णिमा  की ये निशा थी 
पर अमा-सी लग रही थी


भावनाओं के भवन में भाव मन के पुण्य लेकर
पीर विरहा की हिये ने आंसुओं में गुनगुनाई


चांद  में प्रतिबिंब तेरा
देखकर की खूब बातें
आज भी तेरे लिए ही
हैं प्रतीक्षारत ये आंखें


ढल गई थी रात ऐसे, फिर प्रभाती का समय था
जब भ्रमर के साथ कलिका,प्रीत भींजी मुस्कुराई


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