राष्ट्रीय पुस्तक क्या हो





        समय-समय पर भारतीय गौरव की चर्चा में इस देश के साहित्य की भी चर्चा होती है। अंग्रेजों ने देश को दास बनाने के लिए यहाँ के गौरव को नष्ट किया है, ऐसे समय में किसी गौरव पूर्ण बात की चर्चा अच्छी लगती है। प्रधानमन्त्री मोदी ने जापान जाकर वहाँ के प्रधानमन्त्री को गीता की पुस्तक भेंट की तो गीता पर फिर से चर्चा चलने लगी। लोगों ने गीता के महत्व  को रेखांकित करने के लिए गीता को राष्ट्र ग्रन्थ घोषित करने की माँग कर दी, विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने अपने कार्यक्रम में कह दिया, सरकार तो गीता को राष्ट्र ग्रन्थ मानती है, बस केवल घोषणा करनी शेष है? विदेश मन्त्री के कथन से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के पेट में दर्द होना स्वाभाविक था। गीता का विरोध प्रारम्भ हो गया। कहा जाने लगा यह देश विभिन्न धर्मों का देश है, किसी एक धर्म पुस्तक को राष्ट्र ग्रन्थ घोषित नहीं किया जा सकता, इस वाद-विवाद में राष्ट्र ग्रन्थ घोषित करने की बात दब गई।


      हमारे देश में किसी वस्तु, व्यक्ति, प्राणी को महत्व देने के लिए व्यक्ति, वस्तु आदि को राष्ट्रीय गौरव प्रदान करके राष्ट्र पण्डित, राष्ट्र कवि, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय चिह्न आदि घोषित करते हैं। इस प्रकार देशवासियों के मन में इन का सम्मान बढ़ाते हैं, उनका संरक्षण और प्रचार-प्रसार भी कर देते हैं। इसी क्रम में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की माँग उठती है। प्रथम तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि गीता को धर्म पुस्तक का स्थान दिया गया है। न्यायालय में गीता पर हाथ रखकर शपथ दिलाई जाती है। इसी प्रकार कुरान और बाईबिल की पुस्तक पर हाथ रखकर भी शपथ दिलाई जाती है, शपथ लेने के लिए व्यक्तिगत विश्वास को काम में लिया जाता है। जो लोग नानाधर्मी का देश बताकर गीता का विरोध करते हैं, वे या तो पक्षपाती हैं, उनमें स्वाधीनता और दासता का बोध नहीं है। देश में क्या कुरान को धर्म ग्रन्थ बनाया जा सकता है? हाँ, बनाया जा सकता है जिस दिन इस देश की सत्ता  इस्लाम स्वीकार कर ले। यही परिस्थिति बाईबिल की भी हो सकती है। यदि कभी ऐसा हो भी जाये तो क्या इससे इस देश का गौरव बढ़ेगा? गौरव तो नहीं बढ़ेगा किन्तु दासता का इतिहास बढ़ेगा। यदि यह देश ईसाई बहुल बन जाय तो निश्चित रूप से यहाँ का धर्म ग्रन्थ बाईबिल हो जायेगा। अमेरिका में सभी को अपना धर्म ग्रन्थ मानने की स्वतन्त्रता है परन्तु बाईबिल सर्वोपरि है।


      धर्मग्रन्थ को राष्ट्रीय महत्व  देने के पीछे देश के गौरव को प्रदर्शित करने का विचार रहता है। गीता इस देश के इतिहास और परम्परा के प्रतीक  के रूप में स्वीकार की जाती है। इसका कर्म करने, फल में आसक्त न होने का विचार किसी भी बुद्धिमान् व्यक्ति को आकर्षित कर सकता है, वर्तमान में देशी-विदेशी विद्वानों में इसके प्रति रुचि रही है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के नायक लोकमान्य तिलक ने गीता रहस्य लिखकर गीता को समाज का मार्गदर्शक बनाया। महात्मा गाँधी ने भी उसे अपनी प्रेरणा का स्रोत बताया। विदेशी विद्वानों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन को गीता का प्रेमी बताया जाता है, ऐसे में गीता की बात को साम्प्रदायिकता से या धर्म निरपेक्षता से जोड़कर देखना दास मानसिकता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। यह विरोध प्रथम तो हिन्दू विरोध को प्रगतिशीलता मानने वालों की मानसिकता है, दूसरा विरोध का कारण अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की प्रवित्ति है। ये दोनों ही बातें बुद्धि और औचित्य से रहित हैं, अतः निन्दनीय हैं।


      यही एक और बात पर भी विचार करना उचित होगा क्या गीता भारतीय ज्ञान परम्परा का सर्वोत्कृष्ट और सर्वोच्च ग्रन्थ है? क्या कोई और भी ग्रन्थ हैं। इस पर विचार करते हुए विचारणीय प्रश्नों में पहला प्रश्न है- क्या गीता कोई ग्रन्थ है? क्या गीता श्री कृष्ण की रचना है? पहली बात गीता कोई स्वन्तत्र ग्रन्थ नहीं है। गीता महाभारत के एक छोटे से भाग का नाम है। महाभारत में अनेक गीता विद्यमान हैं, हिन्दू समाज में कृष्णार्जुन संवाद को प्रमुख स्थान मिला है, अतः समाज में इसका प्रचार-प्रसार बहुत हुआ। वर्तमान में गीता प्रेस जैसे संस्थान में गीता के प्रचार-प्रसार में बहुत योगदान दिया है। पठन-पाठन की परम्परा में भी इसे पाठ्यक्रम में स्थान मिला। हिन्दी में रामचरित मानस जैसे ग्रन्थ धर्मग्रन्थ के रूप में प्रचलित हैं, उसी प्रकार उससे पूर्व से गीता का हिन्दू समाज में धर्म ग्रन्थ के रूप में प्रचार-प्रसार चला आ रहा है। गीता के सम्बन्ध में जानने योग्य तथ्य है, गीता कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है, न ही इसके रचयिता श्री कृष्ण, महाभारत काल में युद्ध समय दिये गये उपदेश को महाभारत की रचना करने वाले ने संकलित कर दिया है। जिस प्रकार महाभारत में प्रक्षेप या मिलावट है उसी प्रकार उसी अनुपात में गीता में भी प्रक्षेप मिलावट है। गीता के श्लोकों की संख्या भी कम अधिक देखने में आती है। बाली द्वीप में प्राप्त गीता में केवल अस्सी श्लोक प्राप्त होते हैं जबकि वर्तमान गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित गीता में सात सौ श्लोक मिलते हैं। इनके भाष्यकार बहुत हुए और उन्होंने बहुत तरह से अर्थ किये हैं परन्तु गीता का महत्व पुरुषार्थ करने की प्रेरणा है। गीता को आज वेदान्त का प्रसिद्ध ग्रन्थ माना जाता है। वेदान्त पर व्याख्यान करने वाले, वेदान्त पढ़ने-पढ़ाने वाले, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता को मिलाकर प्रस्थानत्रयी कहते हैं और तीनों में वेदान्त की पूर्णता मानते हैं। वेदान्त के इन तीन ग्रन्थों में सबसे प्राचीन उपनिषद् है फिर इनके व्याख्यान रूप में ब्रह्मसूत्र है और उसके भी बाद गीता का स्थान आता है। जो लोग गीता का महत्व  पढ़ते हैं, उनमें एक श्लोक पढ़ा जाता है- सर्वोपनिषदः गावो– जिसका अर्थ है- सब अर्थात् उपनिषद् गौवें हैं,  श्री कृष्ण गोपाल है, अर्जुन वत्स अर्थात् बछड़ा है और उनका दूध गीतामृत है।  इस क्रम में गीता का स्थान तीसरा, वेदान्त का मूल उपनिषद् है, ब्रह्मसूत्र गीता उसका व्याख्यान है। मूल से कभी व्याख्यान महत्वपूर्ण  हो सकता है परन्तु यहाँ उपनिषदों का महत्वकम नहीं है, संस्कृत के पठन-पाठन की न्यूनता से उनका प्रचार-प्रसार गीता की अपेक्षा कम है। गीता में और उपनिषदों में एक समानता है, वह यह कि गीता भी स्वतन्त्र रचना नहीं है और सभी उपनिषद् भी स्वतन्त्र पुस्तकों के रूप में किसी के द्वारा नहीं लिखी गई हैं। वैसे आज उपनिषद् ग्रन्थों की संख्या सैकड़ों में हैं, परन्तु विद्वत् समाज में दस या ग्यारह उपनिषद् ही स्वीकार्य हैं और सभी ग्रन्थ ब्राह्मण, शाखा ग्रन्थ या वेद के भाग हैं। इनमें ईशोपनिषद् का सबसे अधिक महत्व है और वह इस कारण है कि उपनिषद् के दो मन्त्रों को छोड़ कर सभी मन्त्र यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र हैं। इसप्रकार सारी उपनिषदें वैदिक साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में से आत्मा और परमात्मा को लेकर लिखी गई चर्चा को लेकर पृथक्-पृथक् पुस्तक के रूप दिया गया है। इस प्रकार उपनिषद्, वेदान्त शास्त्र की प्रामाणिक पुस्तकें हैं। स्वाध्यायशील लोग भली प्रकार जानते हैं कि उपनिषदों को वेदान्त नाम क्यों दिया गया है- वेदान्त शब्द  का अर्थ होता है वेद का रहस्य, वेद का प्रयोजन, वेद का प्रयोजन जहाँ संसार में मनुष्य को किसप्रकार जीवनयापन करना चाहिए यह सिखाता है उसीप्रकार हमारे संसार में आने का और मनुष्य जीवन पाने का परम प्रयोजन आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना है। इस प्रयोजन का नाम ही वेदान्त है। इस प्रयोजन की सिद्धि के बिना- गीता, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ या वेद का कोई महत्व नहीं रहता।


     गीता की चर्चा करने वालों को ध्यान में रहना चाहिए गीता वेदान्त का ग्रन्थ है, वेदान्त ब्रह्मसूत्र का भी नाम है, ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के सन्देह स्थलों की और कठिन शब्दों  की व्याख्या करने वाली पुस्तक उपनिषदों के मूल ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थ हैं, जिन ग्रन्थों को तीन भागों में बांटा गया है, सम्पूर्ण ग्रन्थ का नाम ब्राह्मण ग्रन्थ है, उसी के एक भाग को आरण्यक कहते हैं, इसी के एक भाग जिसमें आत्मा-परमात्मा की चर्चा है, उसे उपनिषद् नाम से सम्बोधित किया जाता है। जिन ब्राह्मण ग्रन्थों के भागों को उपनिषद् कहते हैं, उन ब्राह्मण ग्रन्थों को ब्राह्मण इसलिए कहते हैं क्योंकि ब्रह्म वेद को कहते हैं और वेद के व्याख्यान को ब्राह्मण कहते हैं। वेद के व्याख्यान होने के कारण इन्हीं को कहीं वेद भी कह दिया गया है। इस प्रकार गीता का मूल है वेदान्त, वेदान्त का मूल है उपनिषद् ग्रन्थ, उपनिषदों का मूल है ब्राह्मण ग्रन्थ और ब्राह्मण ग्रन्थों के मूल हैं चार वेद संहिता। इतने लम्बे-चौड़े वैदिक साहित्य में गीता का स्थान कहाँ आता है और इसका कितना मह      व है यह विचारशील लोगों के लिए समझना कठिन नहीं है।


      हमारे गीता प्रेमी पौराणिक मित्रों का गीता प्रेम आत्मा-परमात्मा का दर्शन को लेकर नहीं है। पौराणिक मित्रों के गीता प्रेम का मुख्य कारण कृष्ण को अवतार और भगवान मानने के कारण है। यदि गीता के एक ही श्लोक को राष्ट्रीय वाक्य बताने के लिए कहा जाये तो वे यदा यदा हि… श्लोक को राष्ट्र का आदर्श वाक्य घोषित कर दें। इन मित्रों को गीता के पुरुषार्थ प्रेरणा से उतना प्रेम नहीं है जितना गीता विश्वदर्शन प्रकरण से है वे तो श्री कृष्ण के बाल मुख में विश्वदर्शन से गद्गद् रहते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्रधारी रूप उतना आकर्षित नहीं करता जितना राधा के साथ बांसुरी बजाने वाला रूप अपनी ओर खींचता है। इन मित्रों का मन्त्र है- राधे-राधे बोल, चले आयेंगे बिहारी। ऐसे प्रेमियों को कर्मण्येव…. अधिकार की पंक्तियाँ कैसे आकर्षित कर सकती हैं। गीता सम्मेलनों में गीता पर माला चढ़ा कर, उसके सामने दीप जला कर अपनी श्रद्धा प्रकाशित करने वालों के मन में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की इच्छा है तो उसके श्री कृष्ण को भगवान सिद्ध करने वाले प्रकरण से है। गीता की इन प्रक्षिप्त पंक्तियों को निकाल कर गीता को धर्म ग्रन्थ बनाने की चर्चा की जाये तो सम्भवतः उन्हें रुचिकर न लगे। गीता में स्त्रियों को, वैश्यों को अन्त्य=निम्न योनियों में गिनने वाली पंक्तियाँ भी गीता पंक्तियाँ ही लगेंगी या तुलसी की ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी की ग्राह्य व्याख्या करने के प्रयत्न यहाँ भी व्याख्या में लगा लेंगे।


      गीता की प्रशंसा और उपयोगिता में कोई बात है तो वह है जिस अर्जुन ने शस्त्र छोड़कर युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। ऐसे अर्जुन को पुनः युद्ध के लिये तैयार कर दिया था। गीता के प्रारम्भ के छः अध्याय और अन्त के छः अध्यायों में उपदेश और दर्शन की बातें कहीं गई हैं, परन्तु मध्य में अवतारवाद और व्यर्थ की बातों की भरमार है। गीता जिस प्रकार वेदान्त की व्याख्या उसके अनुसार गीता का मूल स्वर है बिना किसी भय और पक्षपात के अपने कर्तव्य  का पालन करना। मनुष्य जीवन समाप्ति के भय से, संघर्ष करने से पीछे हट जाता है तथा पक्षपात के भाव से कर्तव्य  की उपेक्षा करता है। श्री कृष्ण ने गीता में- न योत्स्य- मैं नहीं लडूँगा, कहने वाले अर्जुन को- करिष्ये वचनन्तव- जो भी तु कहेगा वह सब करने के लिए तैयार हूँ- यहाँ तक पहुँचा दिया यही और इतनी ही गीता है। गीता के सात सौ श्लोक यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मात्र दूसरे मन्त्र की व्याख्या है। इस मन्त्र में कहा गया है, मनुष्य को इस संसार में आकर सदा कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस कर्म करने की शर्त है कर्म करना है परन्तु उसके बन्धन में नहीं पड़ना है, बन्धन का कारण है- फल की इच्छा करना। इच्छा ही बन्धन का मूल है। यदि इच्छा रहित कर्म किया जाय तो बन्धन से मनुष्य बच सकता है इसे ही शास्त्र की भाषा में कर्     ाव्य कहा गया है। कर् ाव्य करने में भय और पक्षपात नहीं होते, इसे ही गीता की भाषा में अनासक्त कर्म कहा है, आसक्ति का अर्थ है फंसना, न फंसना है अनासिक्त, यही वेद कहता है जिसकी व्याख्या गीता में भी है, अब आपको सोचना है आपका राष्ट्र ग्रन्थ क्या हो? वेद का मन्त्र है-


कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।


एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।


– धर्मवीर



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