प्यार का बन्धन!

प्यार का बन्धन!



      बन्धन सदा अप्रिय होते हैं किन्तु वे होते हैं, अनिवार्य ! कुछ बन्धन धर्म के, कुछ रीतियों के, कुछ समाज के, कुछ कानून के होते हैं। इन बन्धनों को न चाहते हुए भी व्यक्ति कई बार पालन करता है क्योंकि उसे समाज में रहना पड़ता है और वह एक सामाजिक प्राणी है।


       इन सब बन्धनों से ऊपर एक बन्धन होता है "प्यार का बन्धन"। पिता पुत्र में, भाई बहन में, मित्र-मित्र में यह बन्धन इतना अटूट होता है कि इसे तोड़ना सम्भव नहीं रहताइसी में एक बंधन लक्ष्य का, उद्देश्य का भी होता है जो संसार का सबसे बड़ा और सुदृढ़ बन्धन है।


      हमारे मन में अनेक बार आता है कि दूर पार के सहस्रों बन्धु, जिन्हें हमने देखा भी नहीं, मन से हमारे साथ हैं क्यों ? क्या इसीलिए नहीं कि उनका चिन्तन हमारे चिन्तन से एकाकार हो गया है।


      जिनका लक्ष्य एक है, जिनके स्वप्न एक हैं, विचार, मन, उद्देश्य एक हैं उनकी गति एक होती है। उनमें कभी विवाद हो नहीं सकता।


      राष्ट्र या विश्व के कल्याण का लक्ष्य तो बहुत बड़ा है। हम इसके किसी एक अंग के सम्बन्ध में भी यदि चिन्तन करें तो एकता का साम्राज्य जीवन को जय-गान से परिपूर्ण कर सकता है। मानस का निर्झर जिस कल-कल ध्वनि का संगीत गुंजाता है। मस्तिक जिन सुखद कल्पनाओं के स्वप्न संजोता है उन सबको मूर्त रूप देने के लिए फिर क्या बाधा हो सकती है।


      "प्यार" एक ऐसा शब्द है जिसमें कल्याण, निर्माण और उत्थान का सार एक साथ शोभित है। इसी प्यार में विश्व के कल्याण की कामना भी है और धरती को स्वर्ग बनाने की भावना भी। जिनके मन में केवल प्यार हो, घृणा, द्वेष शत्रु के प्रति भी न हो, वे सब स्वयं ही एक अटूट बन्धन में बंध विजय पथ के यात्री बन जाते हैं।


      सपने हमने भी देखे हैं। धर्म की गंगा में स्नान कर पाप, अज्ञान, अन्धकार मिटाने के लिए हमने भी गीतों के सरगम छेड़े हैं, पर उनको सुनने वाले व्यक्ति अभी बहुत कम दृष्टि में आए हैं। सम्भवतः दोष हमारा है, हमारे गीतों में प्यार का बल अभी दुर्बल प्रतीत हो रहा है।


        तारों की छाया में, चन्द्रमा की किरणें शन्ति तो देती हैं पर मन की क्या स्थिति है ? 4 अरब वर्षों की एक सृष्टि में मेरा क्या स्थान है, कितना छोटा हूँ मैं, पर मैं तो महान् था, छोटा कैसे हो गया ? अज्ञान से


ज्ञान बिना सूना है संसार। ज्ञान बिन सब डूबे मंझधार॥


प्रभु के पथ पर चलना सीखें, उस के पास रहे हम प्राण।


तभी हमारा सत्य जागता, तब होता सचमुच कल्याण॥


       इसलिए, भाइयों ओर बहिनो !


      इस धरती पर संघर्ष है ज्ञान का और अज्ञान का, सत्य का असत्य का, आत्मा का, भौतिकता का। यही संघर्ष पशुता को जन्म देकर मनुष्य को राक्षस बना देता है।


      देश काल-मजहब की दीवारों ने आसुरी भावों की बाढ़ ला दी है। सत्य और धर्म के उदात्त स्वरूप की गंगा को समूल नष्ट करने का उपक्रम किया जा रहा है। हमारा विवाद किसी वर्गविशेष से नहीं अपितु उन सब भावों से है जो पशुता को जन्म देते हैं। मनुष्य के आत्मतत्व के विकास की बाधा बनकर खड़ी होने वाली दीवारों को खड़ा करना वास्तव में धरती का सबसे बड़ा अपराध है।


      प्राणों को मुखरित होने दो, सत्य को गीत गाने दो, धर्म और आत्मा को मुस्कराने दो, यह हमारा चिन्तन है। इस चिन्तन के असुर रौंदते हैं तो हमें इसका प्रतिकार भी करना पड़ता है क्योंकि मानवता और सत्य की रक्षा हमारा एक मात्र लक्ष्य है।


      यज्ञाग्नि की लपटों से हमें शांति मिलती है और लगायी हुई आग सभी कुछ जला देती है।


      हम इस झुलसाने वाली अग्नि को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्प हैं। हम आदि सृष्टि से सत्य की रक्षा के लिए बलिदान देकर विजय वरण करते आए हैं और आज भी हम जीतेंगे। भारत का वह प्राचीन गौरव जो अध्यात्म की गंगा बहाता था, जो सत्य को विकास और प्राण को शक्ति प्रदान करता था, फिर से जागेगानया सूरज, नयी आशा, नया वैभव लेकर उभरेगा.......तभी हम अपने आदर्श और धर्म का सूरज धरती पर चमकाने में सफल होग परमात्मा हमारे साथ है।


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