प्रशंसा का उद्देश्य
प्रशंसा का उद्देश्य
(१) जब कोई किसी को प्रशंसा करता है तो उसके दो कारण हो सकते हैं :-
(क) या तो वस्तुतः उसके गुण हठात् दूसरे के मुख से प्रशंसा करा रहे होते हैं-वह परमात्मा की प्रसन्नता होती है और परमात्मा स्वयं कराते हैं।
(ख) किसी अपने अभिप्राय की सिद्धि के लिए चाटुकारिताभरी प्रशंसा होती है-वह मनुष्य स्वयं करता है। यह बनावटी और क्षणिक होती है । एक दिन दोनों के लिये धोखा (प्रवंचना) साबित (प्रमाणित) होती है। यदि कोई अन्य अभिप्राय न भी हो तो भी यह भाव अवश्य होगा कि मैं उसकी प्रशंसा करूं तो वह मेरी भी बड़ाई करेगा । यदि मेरी प्रशंसा न करेगातो मेरी बुराई भी प्रकट न करेगा।
(२) प्रशंसनीय कर्म :-(क) वे कौन से कर्म हैंजो प्रभु-प्रिय नहीं, पर लोक-प्रिय हैं ?
३-अपनी स्वार्थ-सिद्धि या यश के लिए दूसरों की सेवा-सहायता करना लोगों को तो प्रिय है क्योंकि उनके काम संवरते हैं । परन्तु प्रभु को प्रिय नहीं।
प्र०-वे कौनसे कर्म हैं जो प्रभु को प्रिय हैं-पर लोकप्रिय नहीं।
उ०-एकान्त-वास ।
प्र०-वे कौनसे कर्म हैं जो प्रभु और लोक दोनों को प्रिय हैं ?
उ०—निष्काम सेवा।
प्र०-कौन लोग कटु वचन बोलनेवाले होते हैं ?
उ० जिनकी प्रकृति पित्त (बहुत गर्म मिजाज) है। क्योंकि जिनको पित्त अधिक हो जाता है-उनकी वाणी कड़वी लगती है । जो वस्तु खायें वह कड़वी लगती है, मीठा भी खायें तो भी कड़वा प्रतीत होता है। ऐसे गर्म लोग जब मीठा भी बोलें तब भी कड़वा प्रतीत होता है।
प्रश्न-किन लोगों के वचन फीके लगते हैं ?
उत्तर-जिनकी प्रकृति वायु (वात) हो । बहुत शीघ्रकारी, पेट के हल्के हों । क्योंकि जिनको वायु वेग करती है उनकी जीभ का स्वाद फीका ही होता है। जो वस्तु खायें, फीकी लगती है। ऐसे ही इस प्रकृतिवाले मीठा भी बोलें-तब भी फीका ही लगता है।
४-मायाजाल-स्त्रियों में मोह, पुरुषों में लोभ की मात्रा अधिक होती है-इसलिए मोह का साथी काम और लोभ का साथी क्रोध बना रहता है। अहंकार तो सर्वव्यापी हुआ।